अनकही कहानी: कैसे मुलायम ने शिवपाल को अपने जाल में फंसाया और उनकी बली चढ़ा दी

कुर्बानी सिपाही की दी जाती है, राजा और राजकुमार की नहीं!

शिवपाल यादव
क्या आप जानते हैं?

‘जब कुर्बानी देने का टाइम आए तो सिपाही की कुर्बानी दी जाती है, राजा और राजकुमार तो ज़िंदा रहते हैं, गद्दी पर बैठने के लिए!’

उत्तर प्रदेश में कुछ ही हफ्तों में विधानसभा चुनाव प्रारंभ होने है। वहीं, मिर्ज़ापुर का यह संवाद उत्तर प्रदेश के यादव परिवार पर सटीक बैठता है, जिसने वंशवाद की राजनीति का उद्घोष किया है। एक ऐसा परिवार जिसमें सत्ता में बने रहने के लिए किसी भी सीमा को लांघा जा सकता है और हर नाते से मुंह भी मोड़ा जा सकता है।  उत्तर प्रदेश के राजनीतिक गलियारे का सबसे बड़ा नाम है मुलायम सिंह यादव की जिसने पुत्रमोह में की आड़ में अपने भाई से विश्वासघात करने से पूर्व एक बार भी नहीं सोचा।

आज अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही समाजवादी पार्टी एक समय में उत्तर प्रदेश ही नहीं अपितु भारतीय राजनीति के सबसे प्रभावशाली पक्षों में से एक हुआ करती थी। फिलहाल के लिए शिवपाल यादव समाजवादी पार्टी में वापस आ चुके हैं, और सब ‘कुशल मंगल’ प्रतीत होता है। 5 वर्ष पहले जो ‘महाभारत’ प्रारंभ हुई थी, उसका दूर-दूर तक अब कोई अवशेष नहीं दिखता। पर क्या यही सत्य है?

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पुत्रमोह के आगे हारे शिवपाल यादव

इस सत्य की खोज में हमें कुछ दशक पीछे जाना होगा, जब समाजवादी पार्टी का उत्तर प्रदेश की राजनीति पर एकछत्र राज था। इस एकछत्र राज का कारण स्पष्ट था –पार्टी के संस्थापक और सर्वेसर्वा मुलायम सिंह यादव, जिन्होंने घाट-घाट का पानी पी रखा था और वाकपटुता एवं राजनीति में निपुण थे। अल्पसंख्यक तुष्टीकरण से लेकर लोकलुभावन नीतियों तक लॉलीपॉप दिखाना तो उनके लिए बाएँ हाथ का खेल था।

परंतु जहां बुद्धि से काम न हो, वहां बल कैसे काम नहीं आएगा? यहीं पर प्रकट हुए शिवपाल सिंह यादव, जिनके बाहुबल में कोई सानी नहीं था। उत्तर प्रदेश में ‘बाहुबली राजनीति’ को लाने वाले यही व्यक्ति थे। इनका मानना था कि जब बुद्धि से न जीत सको, तो आतंक से विजयी हो। इसी के अंतर्गत मुलायम सिंह यादव ने यूपी में बिहार के ‘जंगलराज’ से पूर्व अपना ‘जंगलराज’ स्थापित किया। यहां बुद्धि मुलायम चलाते थे और बल शिवपाल यादव का था। इसी तिकड़मबाज़ी के बल पर वर्ष 1989 में समाजवादी पार्टी की पहली बार उत्तर प्रदेश में सरकार बनी। दोनों के विरुद्ध चुनौती पेश करना मतलब प्रलय को निमंत्रण देने के समान था।

कुछ और ही स्वप्न देख रहे थे मुलायम 

लेकिन इन सब में अखिलेश यादव कहां से आए? ऐसा क्या हुआ कि जिन भाइयों के भ्रातृत्व पर कोई प्रश्न भी नहीं उठा सकता था, वह अचानक से महाभारत से भी विकट युद्ध में परिवर्तित हो गया? इसका कारण था – पुत्रमोह। अखिलेश यादव ऑस्ट्रेलिया से पढ़कर आए थे, जिन्हें राजनीति से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं था। उनकी पहचान केवल इतनी थी कि वे मुलायम सिंह यादव के पुत्र हैं, इससे अधिक कुछ नहीं।

लेकिन स्थिति बदली 2012 में, जब उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने अपेक्षाओं के विपरीत प्रचंड बहुमत से सत्ता प्राप्त की और सरकार बनाने का दावा किया। सभी को लगा कि मुलायम सिंह यादव ही मुख्यमंत्री बनेंगे और यदि ऐसा नहीं हुआ तो वे शिवपाल यादव को मुख्यमंत्री बनाएंगे। लेकिन मुलायम तो कुछ और ही स्वप्न देख रहे थे। तब राजनीतिक विश्लेषकों का मानना था कि 2014 तक भाजपा का कोई अस्तित्व नहीं रहेगा और एक खिचड़ी सरकार ही देश को संभाल पाएगी।

जब सामने आने लगी शिवपाल यादव की असंतुष्टि

अब सपने देखने पर कोई टैक्स थोड़े ही लगेगा, इसीलिए सभी को चकित करते हुए मुलायम सिंह यादव ने अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री के रूप में चुना क्योंकि उनके दिमाग में पीएम बनने के खयाली पुलाव आने लगे थे। शिवपाल सिंह यादव के लिए यह निर्णय किसी विश्वासघात से कम नहीं था। जो व्यक्ति हर प्रकार से कार्यकर्ताओं से जुड़ा हुआ हो, जिसने बाहुबल से लेकर धनबल तक पार्टी के लिए जुटाया हो, वो ‘पुत्रमोह’ से पराजित हो जाये तो वह खुश नहीं होगा। शिवपाल यादव की असंतुष्टि ने प्रारंभ में अपनी दुविधा नहीं दिखाई, लेकिन यह दरार 2014 तक सामने आने लगी।

तब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने केंद्र सरकार में नियंत्रण स्थापित कर लिया था और अपेक्षाओं के ठीक विपरीत उत्तर प्रदेश में प्रचंड बहुमत के साथ 70 से अधिक सीटें प्राप्त की। चाचा-भतीजे के संबंधों के बीच रोड़ा साल 2015 में सैफई महोत्सव के उद्घाटन के दिन आया, जब शिवपाल ने अखिलेश यादव के तीन करीबी सहयोगियों को पार्टी विरोधी गतिविधियों के लिए निष्कासित कर दिया और इसी कारण से अखिलेश यादव पारिवारिक उत्सव में शामिल नहीं हो सके थे। इसके अलावा सपा के नेतृत्व में राज्य की बिगड़ती कानून व्यवस्था ने पहले ही सरकार की छवि को कठघरे में ला खड़ा कर दिया था। लिहाजा, सोशल मीडिया के युग में आप अधिक दिनों तक अपने कुकर्मों को नहीं छुपा सकते हैं।

जब मुलायम सिंह यादव ने चली 3-D शतरंज की चालें

वहीं, एक ऐसी घटना घटी, जिसने शिवपाल यादव के विनाश की नींव रख दी। शिवपाल बाहुबली तो थे ही और स्वभावानुसार वह मुख्तार अंसारी और उनकी पार्टी को सपा के पाले में लेकर आए लेकिन तभी अखिलेश यादव ने उनके इस फैसले का विरोध किया और विलय रद्द करा दिया। शिवपाल ने इस्तीफे की धमकी भी दी लेकिन मुलायम ने बीच बचाव किया और कहा कि अगर शिवपाल चले गए तो पार्टी बिखर जाएगी।

परंतु परदे के पीछे तो खेल कुछ और ही चल रहा था। उसी समय समाजवादी पार्टी से निष्कासित अमर सिंह को पार्टी में 6 वर्षों के बाद शामिल कर लिया गया, जिसका अखिलेश यादव ने काफी विरोध किया था परंतु शिवपाल ठहरे हठी, वे अपनी ज़िद पर अड़ गए। जब बात मुलायम सिंह यादव तक पहुंची, तो सभी को लगा कि शिवपाल यादव को प्राथमिकता दी जाएगी परंतु अखिलेश यादव ने PWD विभाग सहित सभी प्रमुख विभागों को शिवपाल से छीन लिया।तब क्रोधित शिवपाल ने सैफई में डेरा डाला और यहीं से मुलायम सिंह ने अपनी 3-D शतरंज की चालें चलना प्रारंभ किया।

अखिलेश यादव के पास पिता का सानिध्य

सिलसिलेवार प्रेस कांफ्रेंस में मुलायम सिंह यादव शिवपाल के पास बैठे और सबको विश्वास दिलाया कि ये दोनों (शिवपाल यादव और अमर सिंह) अखिलेश के कारण पीड़ित हैं। पार्टी सुप्रीमो का समर्थन सुनिश्चित करने के बाद शिवपाल ने मुख्यमंत्री के खिलाफ अपनी नाराजगी जताते हुए कहा था कि “जो नेताजी (मुलायम) को स्वीकार्य है, वह मुझे भी स्वीकार्य है।” लेकिन अखिलेश यादव को सानिध्य तो मुलायम सिंह यादव का ही मिल रहा था। अखिलेश यादव द्वारा उम्मीदवारों की सूची जारी करने के बाद मुलायम सिंह यादव ने उन्हें 6 साल के लिए पार्टी से निष्कासित कर दिया था। हालांकि, एक दयालु पिता के समान मुलायम सिंह ने जल्दी से अपने फैसले को पलट दिया और एक दिन बाद ही अपने बेटे को बहाल कर दिया।

पार्टी की बागडोर का था सवाल

फिर अखिलेश यादव ने राज्य के पार्टी विधायकों को अपनी ओर कर लिया और खुद की राज्य इकाई के नेता के रूप में अपनी ताजपोशी की और शिवपाल को कहीं का नहीं छोड़ा। एक ही रात में शिवपाल यादव और अमर सिंह दोनों इतिहास बन गए। शिवपाल को यह सोचकर पार्टी से अलग होने के लिए मजबूर होना पड़ा कि अखिलेश ने उनके राजनीतिक करियर के अंत की कहानी बुनी है। उनके लिए एक और युक्ति जो उल्टी पड़ गई, वह यह थी कि उन्होंने मुलायम की दूसरी पत्नी के बच्चों को शामिल करके परिवार के भीतर मुलायम की पकड़ को कमजोर करने के लिए एक आंतरिक खेल खेलने की कोशिश की थी।

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इसी अंतर्कलह का सबसे अधिक लाभ भारतीय जनता पार्टी को मिला, जिन्होंने सभी को चकित करते हुए प्रचंड बहुमत से उत्तर प्रदेश में सरकार भी स्थापित की और समाजवादी पार्टी के शासन का भी अंत किया। आज सत्ता में वापसी के लिए शिवपाल यादव भी उतने ही लालायित हैं, जितने कि अखिलेश यादव। वे भले ही सत्ता में आने के लिए ‘सब कुछ भुलाने’ का दावा कर रहे हों परंतु उनके पास यही अंतिम विकल्प है, जिसके लिए केवल एक व्यक्ति जिम्मेदार है-मुलायम सिंह यादव, जिसने सूक्ष्मता से अखिलेश और शिवपाल के बीच दूरी पैदा की ताकि समाजवादी पार्टी की बागडोर उनके भाई नहीं बल्कि पुत्र के हाथों में रहे!

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