“मैं दुनिया की सभी भाषाओं की इज्जत करता हूं, पर मेरे देश में हिंदी की इज्जत न हो, यह मैं सह नहीं सकता,” यह कथन था आचार्य विनोबा भावे का, जो भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, सामाजिक कार्यकर्ता तथा प्रसिद्ध गांधीवादी नेता थे। स्वतंत्रता तो विनोबा भावे जैसे क्रांतिकारियों के बदौलत हासिल हो गई, पर आज़ादी के 7 दशक बाद भी देश के कई ऐसे इलाके हैं, जहां आज भी राजभाषा हिंदी को हीनभावना से देखा जाता है। हाल ही में तमिलनाडु से कुछ ऐसा ही मामला सामने आया, जिसका निपटारा करने की ओर कोर्ट अग्रसर भी हो चुका है।
दरअसल, तमिलनाडु में नेशनल एजुकेशन पॉलिसी (National Education Policy 2022) लागू होने के खिलाफ कुछ लोगों ने हाई कोर्ट में पीआईएल दायर की थी, जिसमें हिंदी को विकल्प भाषा के रुप में रखे जाने को लेकर सवाल उठाए गए थे। इस पर हाई कोर्ट की प्रथम पीठ ने सुनवाई की और जमकर फटकार लगाई है। हाई कोर्ट ने कहा, ‘हिंदी सीखने में क्या हानि है? बहुत से लोग हिंदी न जानने के कारण केंद्र सरकार की नौकरियां खो देते हैं।’ कोर्ट ने कहा कि शिक्षण संस्थानों में हिंदी को तीसरी भाषा बनाने में क्या कठिनाई है?
मद्रास उच्च न्यायालय ने मौखिक रूप से कहा है कि यदि तमिल और अंग्रेजी के साथ-साथ शिक्षण संस्थानों में तीसरी भाषा के रूप में हिंदी को पढ़ाया जाता है, तो यह हानिकारक नहीं होगा। कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश मुनीश्वर नाथ भंडारी और न्यायमूर्ति पीडी औदिकेसवालु की पहली पीठ ने मामले में 6 सप्ताह के भीतर जवाब दाखिल करने का आदेश दिया है। पीठ अर्जुन एलयाराजा द्वारा दायर एक जनहित याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें पूरे तमिलनाडु के शैक्षणिक संस्थानों में एनईपी, 2020 के कार्यान्वयन के लिए निर्देश देने की मांग की गई थी।
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सरकार का हास्यास्पद तर्क!
कोर्ट की फटकार के बाद तमिलनाडु के महाधिवक्ता आर शुनमुगसुंदरम ने अपनी ओर से दलील देते हुए कहा कि तमिलनाडु सरकार द्वि-भाषा नीति का पालन करती है न कि त्रि-भाषा नीति का पालन करती है। अगर त्रि-भाषा नीति का पालन किया गया, तो छात्रों पर ज्यादा बोझ पड़ेगा। उन्होंने यह भी कहा कि राज्य में किसी को भी हिंदी सीखने से नहीं रोका गया है। हिंदी प्रचार सभा जैसी संस्थाएं हैं, जहां कोई भी हिंदी सीख सकता है।
महाधिवक्ता की इस टिप्पणी पर कोर्ट ने कहा कि सीखना एक बात है और शिक्षण देना अलग। कोर्ट ने कहा कि, जिस प्रकार राज्य में पहले से ही अंग्रेजी और तमिल भाषा का उपयोग हो रहा है, यदि तीसरे विकल्प के तौर पर हिंदी को जोड़ा जाता है तो इसमें किसी की भी हानि नहीं है।
पीठ में कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश (एसीजे) एम एन भंडारी ने कहा कि तमिलनाडु राज्य में नौकरी पाने के लिए राज्य के किसी भी रहवासी को कोई कठिनाई नहीं होती, पर यदि को राज्य के बाहर उत्तर भारत या केंद्र के अंतर्गत नौकरी की तालश करता है, तो उसको हिंदी न आने के कारण मन मारकर बैठना पड़ जाता है। इसीलिए तीसरे ,विकल्प के तौर पर यदि हिंदी को राज्य में डाला जाता है तो उससे यह भिन्नता समाप्त हो सकती है।
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स्टालिन ने भी दिया बयान
वहीं, दूसरी ओर राज्य के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने ‘मोझीपोर’ (भाषा के लिए युद्ध) शहीदों के सम्मान में एक कार्यक्रम में बोलते हुए कहा कि जब अन्ना (सीएन अन्नादुरई) 1967 में सत्ता में आए, तो वे दो भाषा नीति लाए और मोझीपोर के कारण राज्य का नाम तमिलनाडु रखा। सीएम स्टालिन ने कहा,“हम अभी भी उन कानूनों में संशोधन करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जो राज्य की भाषाओं को राष्ट्र की आधिकारिक भाषाओं में पहचान दिला सकें।” स्टालिन ने कहा, “सिर्फ इसलिए कि हम तमिल चाहते हैं, इसका मतलब यह नहीं है कि हम संकीर्ण सोच वाले हैं। न केवल हिंदी, बल्कि हम किसी भी भाषा के खिलाफ नहीं हैं।”
स्टालिन ने दावा किया, “हम हिंदी का विरोध नहीं करते, हम केवल हिंदी थोपने का विरोध करते हैं। हम तमिल के शौकीन हैं और इसका मतलब यह नहीं है कि हम दूसरी भाषा से नफरत करते हैं।” उन्होंने यह भी कहा कि किसी भी भाषा को सीखने के लिए व्यक्ति की रुचि होनी चाहिए और इसे कभी भी थोपा नहीं जाना चाहिए। हालांकि, स्टालिन खुद अपने बयान में फंसते नजर आ रहे हैं, क्योंकि एनईपी 2022 के अंतर्गत हिंदी को राज्य में तीसरा विकल्प बनाने की बात कही गई है न कि अनिवार्य भाषा का टैग दिया गया है। ऐसे में उनके हालिया बयानबाजी को हिंदी के प्रति उनकी कुंठा के रुप में संदर्भित किया जा सकता है!
कोर्ट ने दिया 6 हफ्ते का समय
यह सर्वविदित है कि बदकिस्मती या दुर्भाग्यवश, जब भी देश में सर्वाधिक बोले जाने वाली भाषा हिंदी का सन्दर्भ दिया जाता है, तो यही दक्षिण के चुनिंदा वर्ग और नेता उसको नकारने लग जाते हैं! इसका सबसे बड़ा कारण है कि छद्म राजनीति से प्रेरित होकर, जब भी देश के राज्यों को एक सूत्र में पिरोने के प्रयास होते हैं, उसमें सबसे बड़ा भागीदार हिंदी भाषा ही होती है और तुच्छ मानसिकता के परिचायक तथा हिंदी को कुदृष्टि से देखने वाले लोग इसका विरोध करने में जुट जाते हैं। यही कारण है कि आज फ़िज़ूल में हिंदी को कोर्ट में स्वीकृति लेने के लिए धकेला गया, जबकि उसका सीधा अर्थ यह था कि तमिलनाडु में तमिल और अंग्रेजी के बाद तीसरे विकल्प के तौर पर हिंदी को दर्ज़ा देना।
अंततः न्यायलय ने सरकारी वकील को अपना जवाब दाखिल करने के लिए 6 हफ़्तों का समय दिया है। ताकि मामले पर पूर्णविराम लगाया जा सके, क्योंकि यह मुद्दा राजनीति से प्रेरित नहीं है और यह राज्य और राज्य के लोगों के उत्थान एवं उनके भविष्य का निर्णायक सूत्र है। इसमें राज्य की सत्ताधारी पार्टी और उसके नेताओं का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से दखल देना, उत्थान के बजाए गर्त में ले जाने का कदम सिद्ध हो सकता है, जिससे न्यायलय भी भली-भांति परिचित है।
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