सिखों का एक बड़ा वर्ग क्यों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से घृणा करता है?

यह घृणा पूर्वाग्रह जनित तो नहीं!

सिख मोदी

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आलोचना और घृणा में मूलभूत अंतर होता है। आलोचना उन्नति जनित होती है, जबकि घृणा पूर्वाग्रह जनित। आपकी आलोचना आपको परिस्कृत करती है, जबकि घृणा आपको खा जाती है। आप सोंच रहे होंगे कि राजनीतिशास्त्र के इस विषय में हम दर्शनशास्त्र की बातें क्यों कर रहें है? ऐसा इसलिए क्योंकि राजनीतिशास्त्र की इस समस्या का हल दर्शनशास्त्र के पास ही है। आजकल, भारत के राजनीतिक पटल पर एक अत्यंत विकट और वृहद समस्या का जन्म हुआ है। समस्या ये है कि आखिर क्या कारण है, जो सिख समुदाय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना नहीं, बल्कि उनसे घृणा करने लगा है? आखिर क्या कारण है, जो सिख समुदाय ये भूल चुका है कि उनका उद्गम स्रोत सत्य सनातन ही है, जिसकी रक्षा हेतु अनेकों गुरुओं और बंदों ने अपना रक्त बहाया और ये भूल गए है कि किसने बहाया, किसलिए बहाया?

पाठकों को बिना लाग लपेट के हम यह स्पष्ट कर दें कि TFI आज भी कृषि कानून के पक्ष में है और हमें पूरा विश्वास है कि आज नहीं तो कल कृषक हितैषी ये कानून लागू होकर रहेगा। दूसरी चीज़ जो हम अपने पाठकों को स्पष्ट करना चाहते है वो यह है  कि ये कोई किसान आंदोलन नहीं बल्कि “जाट और जट्ट” जमींदार आंदोलन था। भारत की 63 प्रतिशत आबादी, करीब 15 करोड़ परिवार और कुल आधे राज्य कृषि पर आश्रित हैं। स्वयं चिंतन करिए कि कितने राज्यों और किसानों ने इस तथाकथित किसान आंदोलन में भाग लिया। खैर, बाद में यह जमींदार आंदोलन से खलिस्तान आंदोलन में परिवर्तित हो गया।

अतः हरियाणा के जाटों ने इससे दूरी बना ली और पंजाब के प्रभावशाली शासक और उच्चवर्ग के किसान कानून विरोध की आड़ में खालिस्तानी ख्वाब देखने लगे। लाल किले के प्राचीर पर खालिस्तानी ध्वजारोहण हो या फिर सिंघू सीमा पर हुआ खूनी तांडव, दिल्ली में अराजकता फैलाने का सवाल हो या फिर खालिस्तानी संगठन द्वारा जनमत संग्रह कराने की घोषणा, सब इसी बात की परिचायक है कि वास्ताव में कृषि कानून पंजाब के जमींदार किसानों की बेड़ियों में बंधे शोषित किसानों के पुनरुद्धार का मंत्र था, जिसे पंजाब के “Elite Farmers” और ‘कनाडा किसानों’ ने खालिस्तान आंदोलन में परिवर्तित कर दिया।

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देश में फिर से सिर उठा रहा खालिस्तान

दरअसल, भारत के राजनीतिक पटल पर ऐसे प्रश्नों का उभरना स्वयं में इस बात का प्रमाण है कि सरकार के प्रति सिखों का प्रदर्शन उनके आलोचना का नहीं, बल्कि घृणा का प्रतीक था। अगर उनके विरोध और प्रदर्शन के तरीकों से भी आप यह नहीं समझ पा रहे हैं, तो इसका मतलब आपने आंखों पर पट्टी बांध रखी है। शायद, इसीलिए आप यह नहीं देख पा रहे हैं कि 80 के दशक का खालिस्तान फिर से थोड़ा अलग ढ़ंग से अपना सर उठा रहा है। इस बार खालिस्तान ने अपने संगठनात्मक, संरचनात्मक और सैद्धांतिक रूप में परिवर्तन कर भारत की जनता को दिग्भ्रमित कर दिया है।

किसान यूनियन के आड़ में खालिस्तानियों ने इस बार संगठन की शक्ति प्राप्त कर ली है। सिद्धू, चन्नी, कांग्रेस और अकाली दल की आड़ में खालिस्तान ने इस बार राजनीतिक संरचना भी प्राप्त कर ली है! रही बात सिद्धांत की तो इस बार खालिस्तानी इसे किसान आंदोलन और संघवाद के रूप में लेकर आए हैं। इस कारण उन्हें जनता की सहानुभूति और समर्थन भी प्राप्त हो रहा है तथा भारत की अखंडता और संप्रभुता पर प्रहार करते इन लोगों पर सैन्य कारवाई भी नहीं हो सकती।

खालिस्तानियों पर नरसिम्हा राव ने चलाया था चाबुक

ऑपरेशन ब्लू स्टार, भिंडरवाले का उदय, इंदिरा गांधी की हत्या, 1984 के सिख दंगे, राजीव-लोंगेवाला समझौता, खलिस्तान का चरमोत्कर्ष और राजीव गांधी की मृत्यु जैसी ऐतिहासिक घटनाओं ने पंजाब में खलिस्तान समर्थित उग्रवाद को चरम पर ला दिया। स्थिति इतनी गंभीर हो गयी कि इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद ब्लू स्टार में भाग लेने वाले सैन्य अधिकारी और पंजाब के DGP तक को गोली मार दी गयी थी। ऐसा लग रहा था, जैसे पंजाब देश से अलग हो जाएगा। यह देश की अखंडता और संप्रभुता पर सबसे बड़ा खतरा था। उस समय में राष्ट्र को इस प्रलय से निकालने के लिए दो राष्ट्र नायकों नें कमान संभाली थी, जो थे भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव और केपीएस गिल।

प्रसिद्ध राजनीतिक पत्रकार प्रेम शंकर झा ने 2005 में आउटलुक पत्रिका में प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के लिए श्रद्धांजलि लेख लिखते हुए उद्दृत किया,जब मैंने तत्कालीन कैबिनेट सचिव से पंजाब चुनाव को लेकर अपनी शंका व्यक्त की, तो उन्होंने मुझे बताया कि यह निर्णय केवल प्रधानमंत्री द्वारा लिया गया था जो पंजाब में एक चुनी हुई सरकार को स्थापित करने के लिए दृढ़ थे, चाहे मत प्रतिशत कितना भी संकीर्ण क्यों न हो! प्रधानमंत्री राव का मानना ​​​​था कि केवल लोकतन्त्र ही सिख आबादी से उग्रवादियों को अलग कर सकता है। राव की यह अंतर्दृष्टि भविष्यसूचक साबित हुई।

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केपीएस गिल का बेहतरीन नेतृत्व

वहीं, दूसरी ओर केपीएस गिल के नेतृत्व में पुलिस ने न सिर्फ आतंकवादियों को श्रेणी A से D में सूचीबद्ध किया, बल्कि यह सुनिश्चित किया की “A” श्रेणी में आने के बाद कोई आतंकी छह महीने से अधिक समय तक जीवित न रहे। इन तौर तरीकों ने न सिर्फ खलिस्तानियों को चुनौती दी, बल्कि उनके मन में भय भी व्याप्त कर दिया, जिससे अंततः काल्पनिक खलिस्तान का कार्यालय अमृतसर से वैंकूवर ले जाना पड़ा।

आज भी राष्ट्र ने नरसिम्हा राव और केपीएस गिल को अपनी स्मृतियों में संजो कर रखा है। आज जब कुछ खालिस्तानी सिंघू बार्डर पर एक सिख को मारकर लटका देते है या कभी दिल्ली में अराजकता फैलाते हैं, तब देश गिल जैसे होनहार अधिकारियों के लिए रोता है। आज जब लाल किले पर तिरंगे का अपमान होता है, खालिस्तनी सिर उठाते है, तब देश नरसिम्हा राव और गिल की तरफ देखता है और सोचता है कि काश ये कुछ समय और होते, तो खालिस्तान का नाग फिर कभी सर उठाने योग्य ही नहीं बचता।

खालिस्तान, सिख और पीएम मोदी

परंतु, जब से नरेंद्र दामोदर दास मोदी भारत के प्रधानमंत्री बने हैं। वे शायद उसी नीति पर चल रहे हैं, जिसके सहारे पामुलापार्थी वेंकट नरसिम्हा राव जैसे ओजस्वी प्रधानमंत्री ने खालिस्तान के ख्वाब को दिन में तारे दिखा दिए। नरेंद्र दामोदर दास मोदी भारतीय जनता पार्टी के नेता और आरएसएस के प्रचारक भी रह चुके हैं। ऐसे में वो खालिस्तानियों के रग-रग से वाकिफ हैं, शायद इसीलिए खालिस्तानियों के लाख उकसाने पर भी वह सिख समुदाय के विरुद्ध नहीं जाते।

आज भी पीएम मोदी सम्मान से सिख गुरुओं का नाम लेते हैं, उनके शौर्य को नमन करते हैं और वीर बाल दिवस की घोषणा भी इसी का सूचक है, तो अब आखिर किस बात की समस्या है? इसके अलावा जब जब सिख समुदाय पर संकट आया, पीएम मोदी ने घर के बड़े बुजुर्गों की भांति उन्हें दिशा दी, उन्हें सम्मान दिया। इसी बात पर बीजेपी नेता तजिन्दर पाल सिंह बग्गा ने अपने ट्वीट थ्रेड में प्रकाश भी डाला है, तो प्रश्न तो बनता है – गल की है पाजी?

पर आखिर करें तो करें क्या? कहें तो कहें क्या? नरेंद्र मोदी सरकार की हालत ऐसी ही हो चुकी है। अगर इन खालिस्तानियों पर 80 के दशक जैसा बर्बर प्रहार करते हैं, तो लोकतंत्र के ठेकेदार अपने राजनीतिक फायदे के लिए उन्हें पीड़ित किसान दिखाकर सहानुभूति और भ्रम की ऐसी लहर फैलाएंगे कि मामला और जटिल होता चला जाएगा। भारत सरकार के हाथ इसलिए भी बंधे हुए है कि कहीं दुष्ट खालिस्तानियों को दंडित करने के चक्कर में देशभक्त और कर्तव्य परायण सिख न पिस जाएं, अन्यथा नागरिकता कानून पर देशभर में उपद्रव फैलाने वालों का हाल क्या हुआ ये आप सभी ने देखा।

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सिखों से प्रेम करते हैं पीएम मोदी

पर, इस बार स्थिति भिन्न है। इन खालिस्तानियों ने कांग्रेस और अकाली दल जैसे राजनीतिक संगठनों का समर्थन प्राप्त कर लोकतांत्रिक चोगा ओढ़ लिया है। इसके साथ-साथ उन्होंने किसान का मुखौटा भी लगाया है और बहादुर सिखों को अपना ढाल भी बनाया है। सिख समाज को यह सोचना चाहिए कि जिस पीएम मोदी ने धर्म के लिए 20 प्रतिशत राष्ट्रव्यापी मतों को ठुकराते हुए जालीदार टोपी पहनने से इंकार कर दिया, उसी मोदी ने न सिर्फ पगड़ी पहन गुरुद्वारे में अरदास की, बल्कि आपातकाल के दौरान सिख पगड़ी पहनकर ही इंदिरा सरकार से लड़ाई भी लड़ी।

वास्तव में कहें, तो पाकिस्तान समर्थित उग्रवादियों के बहकावे में आकर कुछ लोगों ने जो उपद्रव फैलाया है, उसकी जिम्मेदारी न केवल सरकार पर है, अपितु हमारे सिख भाइयों पर भी है। यदि इस बार अन्याय पर मौन रहे, तो इसका परिणाम मोदी सरकार से अधिक सिख समुदाय के लिए हानिकारक होगा, जिनके हित के लिए पीएम मोदी अपना सर्वस्व अर्पण करने को तैयार है!

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