हिजाब आंदोलन ‘सांस्कृतिक’ नहीं, बल्कि ‘राजनीतिक इस्लाम’ का हिस्सा है

सरकार को इससे जोर-शोर से निपटना चाहिए!

Hijab

Source- TFIPOST

हिजाब पर विवाद हो गया, एकाएक यह एक राष्ट्रीय मुद्दा बन गया। देश-विदेश में खबरे छपने लगी। ‘मुस्कान’ शेरनी बन गयी और भगवा गमछा ओढ़े बच्चों को आतंकवादी करार दे दिया गया। सरकार तनाशाह हो गयी। मुसलमान मजलूम हो गए। कोर्ट पक्षपाती हो गया और देश असहिष्णु हो गया! कर्नाटक के पक्ष में देश विदेश और यहां के राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय संगठन मुखर हो गए। भारत की भर्त्सना और मुसलमानों को सांत्वना दी जाने लगी। अपने अंतर-आत्मा में झांके बिना OIC, बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, नेता और दुनिया जहां तक भारत को सीख देने लगे। मामला कोर्ट पहुंचा। खोजबीन शुरू हुई, तो पता चला कि हिजाब मुद्दा इस्लाम के सांस्कृतिक आंदोलन का हिस्सा नहीं, बल्कि इस्लाम के राजनीतिक आंदोलन का हिस्सा था। शायद, यही अंतर समझने में हम, आप और शासन व्यवस्था सब विफल रहें, जिसके कारण देश में ऐसी अराजक स्थिति उत्पन्न हो गई।

आइये, आपको सांस्कृतिक और राजनीतिक इस्लाम के बीच का अंतर समझाते हैं। हम सभी ने बीते दिनों में कई ऐसे आंदोलन या यूं कहें कि विरोध प्रदर्शन देखें, जिसे यह कहकर प्रचारित किया गया कि दीन और इस्लाम को बचाने के लिए ऐसा करना जरूरी है, जैसे- तीन तलाक, नागरिकता कानून और अब ये हिजाब मुद्दा। इन सभी विरोध प्रदर्शनों में मुस्लिमों को कमजोर और पीड़ित कहकर प्रचारित किया गया और एक सुनियोजित तथा विकृत इस्लामी मानसिकता के तहत इसे संचालित किया गया।

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‘औरतों को पर्दे में रखने के लिए नहीं है हिजाब और बुर्का’

अब जैसे हिजाब मुद्दे को ही ले लें। जैसे- गौ, गंगा, गीता और गायत्री आदि हिंदुओं के धार्मिक स्तम्भ हैं, वैसे ही कृपाण, कंघा, कडा और केश सिखों के धार्मिक आधार हैं, उसी तरह हज, जकात और कुरान आदि मुसलमानों के। इन सभी में हिजाब और बुर्का का उल्लेख कहीं भी नहीं है। इस बात को स्पष्ट करते हुए स्वयं केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने भी कहा था कि इस्लाम में हिजाब और बुर्का का उल्लेख कहीं भी औरतों को पर्दे में रखने के लिए नहीं किया गया। यह इस्लाम का अंग नहीं, बल्कि इस्लाम के ठेकेदारों और पितृसत्तात्मक सोंच रखने वाले कट्टरपंथी मुसलमानों की जिद है, जो अपनी झूठी शान के लिए बच्चियों को बुर्के में रखना चाहते हैं। यह वैज्ञानिक रूप से भी उचित नहीं है, क्योंकि अत्यधिक हिजाब के प्रयोग से हमें सूर्य द्वारा प्राप्त विटामिन-D की कमी हो सकती है, जिससे ढेरों रोग फैलने की संभावना है। वैज्ञानिक शब्दावली में ऐसे रोग को हिजाब सिंड्रोम भी कहा जाता है। यहां तक कि स्वयं हिजाब के समर्थन में प्रदर्शन करनेवाली कर्नाटक की छात्राएं भी आम जीवन में हिजाब के इस्तेमाल से परहेज करती हैं। हिजाब और बुर्के के प्रयोग से सार्वजनिक स्थानों पर सुरक्षा संबंधी चिंताएं भी शुरू हो जाती हैं।

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राजनीतिक इस्लाम का हिस्सा है हिजाब मुद्दा

पर, लोक व्यवस्था, स्वास्थ्य, नैतिकता, शैक्षणिक मर्यादा, सुरक्षा, शिक्षा, समानता और अनुशासन संबंधी सभी मुद्दों को दरकिनार करते हुए कुछ असामाजिक और राष्ट्र विरोधी तत्वों ने इसे बेवजह मुद्दा बना दिया। हिजाब मुद्दा और इससे जनित प्रदर्शन पूर्णतः राजनीतिक इस्लाम का हिस्सा था, क्योंकि जैसा कि पहले बताया गया है सांस्कृतिक इस्लाम में इसकी अनिवार्यता तो दूर इसका सीधा उल्लेख भी नहीं है। यहां हमें एक बात समझने की आवश्यकता है कि राजनीति का प्रथम उद्देश्य सत्ता की प्राप्ति होती है। अगर आपका उद्देश्य सही हुआ, तो सेवा और सिद्धांत की राजनीति कर आप सत्ता पाते हैं और अपने सेवाभाव को व्यापक पैमाने पर लागू करते हैं और अगर उद्देश्य गलत हुआ, तो आप छल, बल और भ्रम के आधार पर इसे हासिल करने का प्रयास करते हैं।

हिजाब मुद्दे में भी यही हुआ। चूंकि हिजाब सैद्धांतिक रूप से इस्लाम का हिस्सा नहीं है तथा यह औरतों के दमन और पितृसत्तात्मक सोच का परिचायक है, इसलिए PFI, जमीयत उलेमा-ए-हिंद और अन्य मुस्लिम संगठनों ने सबसे पहले इसे इस्लाम से जोड़ा। फिर, कुछ तथाकथित विद्वान हिंदुओं को मिलाने के लिए धार्मिक स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार से जोड़ा। बाहर से आर्थिक सहायता प्राप्त कर अराजकता फैलाई। OIC, पाक और बांग्लादेश जैसे अन्य मुस्लिम संगठनों से भारत की निंदा कराई। विश्व की गणमान्य हस्तियों को टूल किट के रूप में इस्तेमाल कर, उनसे भारत विरोधी ट्वीट और बयान दिलवाए। जमीयत ने उस मुस्कान नाम की लड़की को 5 लाख का पुरस्कार देकर एक नायिका के रूप में पेश किया, जिसके परिवार वाले स्वयं राजनीतिक संगठन से जुड़े हुए हैं।

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इससे पहले भी कई बार ऐसा देखने को मिल चुका है

ध्यान देने वाली बात है कि फतवा पॉलिटिक्स भी राजनीतिक इस्लाम का ही हिस्सा है। पहले हिजाब, फिर किताब नाम का अभियान शुरू किया गया। कांग्रेस और मुस्लिम परस्त नेताओं ने नफरत वाले बयान देना शुरू किया। सिखों की पगड़ी तक के बारे में भ्रम फैलाया गया और यही सब चीज़ें राजनीतिक इस्लाम का हिस्सा है। इसमें कहीं भी मुसलमान आपको मजलूम की तरह नहीं दिखेगा, बल्कि एक सशक्त, मजबूत कौम की तरह दिखेगा, जिसे राजनीति ने दिग्भ्रमित कर दिया है। चूंकि ये राजनीतिक दल जानते हैं कि किसी भी प्रकार की अराजकता और अव्यवस्था फैलाने के कारण सरकार इनपर कारवाई कर सकती है, अतः ये औरतों और बच्चियों को ढाल बनाकर पेश करने लगे हैं।

ऐसा ही मॉडल नागरिकता कानून के विरोध में भी देखने को मिला था, जहां पाकिस्तान के मुसलमानों को नागरिकता दिलाने और सही हिन्दू अल्पसंख्यकों के नागरिकता को रोकने के लिए प्रदर्शन किए गए और इसमें मुस्लिम महिलाओं को आगे कर दिया गया। इसी तरह का मॉडल तीन तलाक को जायज ठहराने के लिए किया गया, जहां स्वयं मुस्लिम महिलाएं ही खुद पर हो रहीं ज्यादतियों के समर्थन में सड़क पर उतर गई थी। न तो नागरिकता कानून, न ही हिजाब मुद्दा और न ही तीन तलाक इस्लाम से जुड़ा हुआ है। मोदी, हिन्दू और हिंदुस्तान का विरोध करने के लिए राजनीतिक इस्लाम ने इसे मजहबी और सांस्कृतिक इस्लाम से जोड़ दिया है। सरकार को ये चक्रव्यूह तोड़ते हुए जल्द से जल्द ऐसे लोगों पर कारवाई करनी चाहिए, अन्यथा वो दिन दूर नहीं, जब ये कट्टरपंथी इस्लाम को हाइजैक कर भारत के खिलाफ इस्तेमाल करना शुरू कर देंगे।

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