बिहार के राजनीतिक परिदृश्य में कर्पूरी ठाकुर को हमेशा से उच्च स्थान दिया जाता रहा है। लोग उन्हें ‘जन नायक’ के रूप में याद करते हैं। बिहार के राजनीतिक वर्ग की ओर से उनके लिए लगातार भारत रत्न की मांग भी की जाती रही है। आज 17 फरवरी को उनकी पुण्यतिथि है। अतः ये आवश्यक हो जाता है कि कर्पूरी ठाकुर के जीवन और उनके राजनीतिक सफर का उचित मूल्यांकन किया जाये, तभी यह तय हो पाएगा कि क्या सच में कर्पूरी ठाकुर जन के नायक थे या जनता के मन में ये भ्रम उनके राजनीतिक चेलों द्वारा अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए फैला दिया गया। नीतीश कुमार, लालू यादव, रामविलास पासवान उनके कुछ राजनीतिक शिष्य थे और कर्पूरी ठाकुर स्वयं जय प्रकाश नारायण के शिष्य थे।
कर्पूरी ठाकुर नाई समाज से आते थे। उनका जन्म समस्तीपुर जिले के पितौंझिया गांव में हुआ था, जिसे आज कर्पूरीग्राम के नाम से जाना जाता है। अपने जवानी के दिनों में वो अखिल भारतीय छात्र संघ से जुड़े और फिर भारत छोड़ो आंदोलन में भी शामिल हुए। स्वतंत्रता पश्चात वो अध्यापन का कार्य करने लगे। वर्ष 1952 में ठाकुर ताजपुर विधानसभा क्षेत्र से सोशलिस्ट पार्टी से विधायक चुने गए और फिर यहीं से शुरू हुई उनके सार्वजनिक जीवन में मिलावट। इस आर्टिकल में हम कर्पूरी ठाकुर के राजनीतिक जीवन की उन महत्वपूर्ण गलतियों के बारे में विस्तार से जानेंगे, जो उनके जन नायक की छवि को न सिर्फ ध्वस्त करता है, बल्कि समाज और राजनीति को उनके द्वारा दिये गए कोढ़ को भी उजागर करता है।
आरक्षण का कोढ़ दिया
कर्पूरी ठाकुर, जय प्रकाश नारायण के करीबी थे। इंदिरा गांधी से भीषण वैमनस्य के कारण उन्होंने और जनता पार्टी के अन्य प्रमुख नेताओं ने “सम्पूर्ण क्रांति” आंदोलन का नेतृत्व किया। जिसके बाद इंदिरा के खिलाफ देश में रोष व्याप्त हुआ और 1977 के बिहार विधानसभा चुनाव में सत्तारूढ़ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को जनता पार्टी के हाथों भारी हार का सामना करना पड़ा। कर्पूरी ठाकुर ने पिछड़ा राग अलापकर सत्यनारायण सिन्हा को रास्ते से हटाया और खुद मुख्यमंत्री बन बैठे। जनता पार्टी, जनसंघ और कांग्रेस(ओ) की मिली जुली ये सरकार जल्द ही गिर गयी और इसके प्रमुख कारण थे- कर्पूरी ठाकुर। ठाकुर मुंगेरी लाल आयोग की रिपोर्ट को लागू करने के पक्षधर थे, जिसने सरकारी नौकरियों में पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की सिफारिश की थी।
परिवारवाद और जातिवाद को दिया बढ़ावा
इतना ही नहीं, कर्पूरी ठाकुर ने बिहार की राजनीति में जातिवाद को भी भरपूर बढ़ावा दिया। गरीबी और जाति का सामाजिक समीकरण साधते हुए, उन्होंने इस राजनीतिक विचार का भरपूर शोषण किया। कर्पूरी ठाकुर ने जाति को गरीबी से जोड़कर समाज को शोषक और शोषित वर्ग में विभाजित कर दिया। जिससे सामाजिक वैमनस्य बढ़ा और यह बिहार में आज तक व्याप्त है। आरक्षण के प्रति उनकी नीति ने आग में घी डालने का काम किया। ठाकुर ने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया। उन्हें लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान, देवेंद्र प्रसाद यादव और नीतीश कुमार जैसे प्रमुख जातिवादी बिहारी नेताओं का गुरु कहा जाता है।
और पढ़ें: समाजवादी पार्टी ने अयोध्या को फैजाबाद और प्रयागराज को इलाहाबाद बनाने की तैयारी कर ली है
समाजवाद और गरीबी को बढ़ावा
ध्यान देने वाली बात है कि कर्पूरी ठाकुर ने समाजवाद के नाम पर गरीबी को बढ़वा दिया। उन्होंने कभी भी गरीबी उन्मूलन पर व्यापक कार्य नहीं किया, बल्कि उल्टे गरीबों को वोट बैंक में परिवर्तित कर दिया। शहरीकरण और पूंजीवाद के बीच में वो ऐसे अवरोध बने कि बिहार आज तक विकास को तरस रहा है। कुल मिलाकर, कर्पूरी ठाकुर ने गरीबी का उन्मूलन करने के बजाए गरीबी को महिमामंडित कर दिया। इसके पीछे सिर्फ उनका राजनीतिक स्वार्थ था और बदले में उन्होंने सिर्फ राजनीतिक रूप से स्वार्थी और जातिवादी नेताओं को जन्म दिया, जिसका दंश बिहार आज तक झेल रहा है!