वरुण गांधी अपने बड़बोले व्यवहार और ट्विटर पेज के साथ नजरंदाज कर दिए गए हैं

वरुण गाँधी चिल्लाते रहें, किसी को क्या ही फर्क पड़ता है?

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कांग्रेसी राजशाही परिवार और असल में कांग्रेस की राजनीतिक विरासत से पोषित कुछ नाम आज भाजपा के बड़े नेता बन तो गए हैं, पर वह उस कद की गरिमा को स्थिर रखने में असफल साबित हो चुके हैं। ऐसे ही दो नाम हैं, माँ-बेटे की वो जोड़ी जो वास्तविक परिदृश्य में गाँधी परिवार के अंश हैं। बात हो रही है, मेनका गांधी और वरुण गाँधी की, यह दोनों लोग भाजपा के वह नेता हैं जिन्हें गाँधी परिवार में विघटन होते ही उन्हें भारतीय जनता पार्टी ने राजनीतिक शरण एवं संरक्षण दिया था। आज यही दोनों, उस भाजपा को आँख दिखाने से चूकते नहीं हैं। उत्तर प्रदेश में चल रहे विधानसभा चुनाव के दौरान इस बार इन दोनों की सहभागिता बतौर भाजपा सांसद शुन्य होती स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। इसका अंदेशा सिर्फ इसी बात से लगाया जा सकता है कि वरुण गाँधी अपनी ही पार्टी के विरुद्ध स्टैंड लेते दिख जाते हैं और लोगों से बात करने के लिए ट्विटर पर ही नज़र आते हैं, ज़मीनी रूप से इनका अब कोई जुड़ाव नहीं बचा है।

दरअसल, पीलीभीत से सांसद वरुण गांधी इन चुनावों में अपनी माता और सुल्तानपुर से सांसद मेनका गाँधी की ही भांति विधानसभा क्षेत्रों से नदारद हैं जिसके कारण कई प्रश्न संगठनात्मक ढांचे और जनता के बीच उठ रहे हैं। यूँ तो जबसे संजय गाँधी की मृत्यु के बाद मेनका गाँधी को उन्हीं के परिवार से बेदखल कर दिया था, भाजपा तबसे ही उनके साथ खड़ी रही परंतु जब मेनका और वरुण गाँधी के साथ खड़े होने का समय आया तो दोनों ने अपनी महत्वकांक्षाओं के मध्य संगठन की बलि चढ़ाना सही समझा है। शायद यही कारण है कि उत्तर प्रदेश चुनाव में न उनकी कोई सहभागिता दिख रही है और न ही वो अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्र के प्रत्याशियों को जिताने के मूड में दिख रहे हैं।

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वरुण गाँधी की फजीहत कई बार इस करण से भी हुई है कि प्रमोशन न मिलने पर वरुण के मन की खटास ट्विटर पर प्रदर्शित होती है जहाँ वो अपनी ही सरकार और पार्टी की नीतियों पर सवाल उठाते हैं और आरोप तान देते हैं। फिर चाहे किसान आंदोलन के समय पार्टी को घेरने की बात हो या बेरोज़गारी मुद्दे पर सरकार को सवालों में उलझाने की बात हो, इन सभी में वरुण का बड़ा योगदान प्रकट हुआ है।

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जबसे वर्ष 2017 में योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाया गया था, मेनका और वरुण का मन तबसे ही खट्टा हो गया था क्योंकि उन दोनों लोगों की महत्वकांक्षा सीएम की कुर्सी हथियाना था। ऐसा नहीं है कि इन दोनों को पार्टी की ओर से नकार दिया गया था, चूंकि योगी आदित्यनाथ की स्वीकृति देश भर में थी, इसी कारण से उन्हें मुख्यमंत्री पद पर बैठाया गया। बस योगी के सीएम बनते ही मेनका और वरुण का मोह पार्टी से धीरे-धीरे भंग होने लगा। यूँ तो 2019 में दोनों को पुनः भाजपा ने सांसद बनाया पर CM बनने की आरज़ू के आगे सांसदी का हर्ष कौन ही मनाता है? ये सत्य है कि भाजपा भी उन्हें ढो रही है, यदि ये दोनों संसदीय कार्यप्रणाली के अनुकूल अच्छा काम कर रहे होते या प्रमुख मुद्दों पर सकारात्मक राय प्रकट कर रहे होते तो निस्सन्देह उन्हें बार-बार नाम के मंत्रालयों का प्रभार नहीं दिया जाता। यह मेनका गाँधी के अंडर परफॉर्मर होने का ही सबूत था, जो उन्हें मोदी मंत्रिमंडल 2014 में केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय से संतोष करना पड़ा।  और तो और दूसरे वाले कार्यकाल में उन्हें किसी भी मंत्रिमंडल में स्थान देने से अछूता छोड़ देना इसकी पुष्टि करता है कि मेनका गाँधी या वरुण गाँधी दोनों की राजनीतिक परिपक्वता निशान के घेरे में है।

ऐसे में जब उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में बतौर सांसद एक नेता को अपने प्रतिनिधि का सहयोग चाहिए होता है, तब ये दोनों माँ-बेटे संगठन की किसी भी प्रक्रिया या प्रचार में हिस्सा नहीं ले रहे हैं। एक लंबे समय से भाजपा में उन्हें दरकिनार इसी कारण से किया जा रहा है क्योंकि उन दोनों का पार्टी में योगदान तिनके मात्र भी नहीं रहा है। यह भी सत्य है कि यदि इन दोनों का उग्र या ज़रा सा भी योगदान पार्टी या संगठन के प्रति प्रकट हुआ होता तो निस्संदेह आज यह दोनों लोग साइडलाइन न हुए होते।

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