चुनाव को लोकतंत्र का पर्व कहते हैं, परंतु चुनाव लोकतंत्र की परीक्षा है और 10 मार्च को इस परीक्षा का परिणाम आने वाला है। इन सभी परीक्षाओं में उत्तर प्रदेश के चुनाव की चर्चा सबसे ज्यादा है और आखिर हो भी क्यों न? हमारे देश में वास्तविक रूप में प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के बाद अगर कोई सबसे ज्यादा ताकतवर व्यक्ति है, तो वो है उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री! कहा जाता है कि दिल्ली के सत्ता की चाबी उत्तरप्रदेश से होकर ही गुजरती है। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि उत्तर प्रदेश ही देश का भावी प्रधानमंत्री तय करता है। उत्तर प्रदेश का चुनाव किसी दल और नेता के राजनीतिक सफर का अंत कर सकता है, तो वही इस चुनाव में नेताओं और दलों को राजनीतिक अमरत्व प्रदान करने की भी शक्ति है। अब 10 मार्च को आने वाला चुनाव परिणाम किस का अंत करेगा और किसे अमरत्व प्रदान करेगा यह तो भविष्य के गर्भ में निहित है। परंतु, जैसा कि एग्जिट पोल और राजनीतिक पंडितों द्वारा लगाया गया राजनीतिक गुणा गणित है, उससे तो यही सिद्ध होता है कि यह चुनाव सपा और यादव परिवार का सर्वनाश कर देगा। 10 मार्च को आने वाला चुनावी परिणाम कैसे यादव परिवार के ताबूत में आखिरी कील सिद्ध होगा, आईए समझते हैं।
और पढ़ें: अखिलेश यादव सहित समाजवादी पार्टी ‘मैनपुरी’ में कूचा गए हैं!
सपा की बदहाली के लिए अखिलेश ही जिम्मेदार!
किसी भी एग्जिट पोल में समाजवादी पार्टी की सरकार बनते हुए नहीं दिखाई जा रही है। समाजवादी पार्टी बुरी तरीके से हार रही है और योगी आदित्यनाथ पुन: पूर्ण बहुमत से सरकार बना रहे हैं। आप मानें या न मानें पर यही राजनीतिक घटना और समाजवादी पार्टी की शर्मनाक पराजय यादव परिवार में विद्रोह को जन्म देगी। आप सभी जानते हैं कि समाजवादी पार्टी यादव परिवार द्वारा नियंत्रित की जाती है। पर यादव परिवार का इस पार्टी पर पूर्ण नियंत्रण तभी तक था, जब कमान मुलायम के हाथों में थी। मुलायम सभी के सर्वमान्य नेता थे चाहे वह रामगोपाल हों या फिर शिवपाल। पर फिर अखिलेश आए और उन्होंने तख्तापलट कर पार्टी पर कब्जा कर लिया। अखिलेश चाहते थे कि मुलायम के राजनीतिक विरासत का एकमात्र उत्तराधिकारी वही बने। पुत्र मोह में मुलायम भी यह अपमान सह कर चुप रह गए। पर अखिलेश से पार्टी संभली नहीं।
वो सभी को साथ लेकर चलने में असमर्थ रहे और अपने चाचा तथा भाइयों को मुलायम की विरासत का राजनीतिक हिस्सा सौंपने से साफ इनकार कर दिया। फिर भी सभी चुप रहे, क्योंकि उन्हें लगा कि अखिलेश अपनी गलतियों की भरपाई सपा को सत्तासीन करके पूरी कर देंगे। लेकिन अभी तक उनके द्वारा जितने भी फैसले लिए गए हैं, वह सिर्फ और सिर्फ उनकी नादानी को परिलक्षित करते हैं। चाहे मायावती और कांग्रेस के साथ गठबंधन का फैसला हो या शिवपाल को पार्टी से बाहर निकालने का या फिर अकेले चुनाव लड़ने का, अखिलेश का कोई भी फैसला पार्टी के लिए लाभदायक सिद्ध नहीं हुआ और पार्टी निरंतर गर्त की ओर अग्रसर होती चली गई। राजनीतिक सहयोगी और हितैषी बिछड़ते चले गए। रामगोपाल दूर हो गए और अब तो अपर्णा भी भाजपा में जा मिली हैं।
सपा का टूटना तय है!
खैर पूर्व विधानसभा और लोकसभा चुनाव में जो हुआ सो हुआ, इस बार के चुनाव में अखिलेश की सारी गलतियों को भुला कर उन्हें निर्णय लेने का एकाधिकार दिया गया। अखिलेश ने भी 2022 के चुनाव में भाजपा को मात देने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी। बस से पूरे उत्तर प्रदेश का भ्रमण किया। चाचा शिवपाल को भी पार्टी में हिस्सा दिया। अपने चाचा डॉक्टर रामगोपाल को भी मनाया। राजभर से लेकर मौर्य तक को पार्टी में शामिल किया। अपने सैद्धांतिक विरोधियों से भी गठबंधन किया। अतः अब उनकी अक्षमता और राजनीतिक बुद्धिहीनता के अलावा ऐसा कोई कारण नहीं है, जो उनके हार का आधार बन सके। भाजपा के खिलाफ एंटी इनकंबेंसी भी है। ब्राह्मण भी नाराज है और अखिलेश का दावा है कि ब्राह्मण उन्हीं के पाले में हैं।
मुसलमानों को भी भरपूर रूप से टिकट दिया गया। इसलिए अगर इस बार अखिलेश हारते हैं तो यह सीधे-सीधे नेतृत्व की अक्षमता और नकारेपन के कारण होगा। फिर, यादव परिवार के अंदर से ही अखिलेश को हटाने की और राजनीतिक विरासत के बंटवारे की मांग उठने लगेगी। इसमें एक पेंच और भी है, जिस अखिलेश ने राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने के लिए अपने पिता और मुलायम सरीखे नेता तक को धोखा दे दिया उनकी महत्वाकांक्षा को देखकर ऐसा लगता नहीं है कि वह इतनी आसानी से पद का त्याग करेगा और दूसरों के लिए मार्ग प्रशस्त करेगा। परंतु शिवपाल, रामगोपाल और अखिलेश के भाइयों के धैर्य का बांध भी इस परिणाम के बाद टूट जाएगा।
ध्यान देने वाली बात है कि सालों से अलग रहने वाले शिवपाल भी चालक निकले। उन्होंने चुनाव से पहले ही भांप लिया कि राज्य में योगी की लहर है, अतः ऐन मौके पर अखिलेश से जा मिले। अब अगर हार होती है तो उसके जिम्मेदार सिर्फ अखिलेश होंगे और समाजवादी पार्टी में अपनी पार्टी का विलय कर शिवपाल अब स्वाभाविक तौर पर समाजवादी पार्टी में एक स्टेकहोल्डर हैं, न कि कोई नेता। इसीलिए, वो अखिलेश को पद से हटाने की मांग करेंगे और अखिलेश के पास पद न छोड़ने का कोई कारण नहीं होगा। यहीं से समाजवादी पार्टी में बगावत शुरू होगी। एक वंशवादी पार्टी की यही कमजोरी होती है कि अगर परिवार कमजोर पड़ा तो पूरा परिवार बिखर जाएगा, जैसे- कांग्रेस, राजद, रालोद आदि दल बिखर गए। 10 मार्च 2022 को इसकी शुरुआत होगी, तो तैयार रहिए भारत की राजनीति में एक और राजनीतिक वंश का अंत देखने के लिए।
और पढ़ें: यूपी के राहुल गांधी बनने की ओर अग्रसर हैं अखिलेश यादव, उनका ये हास्यास्पद तर्क तो देखिए!