यूरोप द्वारा भारत को 60 वर्षों से अधिक समय तक महाशक्ति बनने से रोकने का इतिहास जान लीजिये

सांप कितनी बार भी केंचुली बदल ले, रहेगा सांप ही!

SOURCE- TFIPOST

भारत आज जो कुछ भी है सिर्फ और सिर्फ अपने प्रयासों से ही है। 75 साल में रूस को छोड़कर किसी ने भी भारत के सच्चे मित्र की भूमिका नहीं निभाई। अगर पश्चिमी दुनिया ने अतीत में भारत की मदद की होती तो हम शायद एक अलग राष्ट्र होते। हमारे पास एक बहुत बड़ी अर्थव्यवस्था, एक सर्वोच्च अंतरिक्ष कार्यक्रम, एक मजबूत रक्षा उद्योग और निश्चित रूप से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में एक स्थायी सीट तो होती ही।

इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता की नई दिल्ली की पिछली सरकारों ने देश की स्थिति खराब कीं। उन्हें भारतीय विकास को बेशर्मी से कुचलने के लिए जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए पर इसके साथ साथ संयुक्त राज्य अमेरिका के नेतृत्व वाली पश्चिमी दुनिया भी इसके लिए जिम्मेदार है।

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भारत के खिलाफ प्रतिबंध

पश्चिम के पास प्रतिबंध नाम का एक हथियार है जिसे वे उन राष्ट्रों के खिलाफ प्रयोग करते हैं जो उनकी लाइन पर नहीं चलते। ऐसा ही अभियान अभी रूस के खिलाफ चलाया जा रहा है लेकिन, वर्ष 1998 में पोखरण-2 के परीक्षणों के बाद इसे भारत के खिलाफ भी चलाया गया था। कनाडा, संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन, फ़्रांस और पूरा यूरोपीय संघ ने भारत की निंदा करते हुए प्रतिबंधों का समर्थन किया था। भारत पर प्रतिबंधों में सहायता में कटौती करना, रक्षा सामग्री और प्रौद्योगिकियों के निर्यात पर प्रतिबंध लगाना, अमेरिकी ऋण और क्रेडिट गारंटी समाप्त करना, और अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों द्वारा उधार देने पर रोक शामिल थी।

भारत को महत्वपूर्ण प्रौद्योगिकियों से वंचित करना

इन प्रतिबंधों ने अंतरिक्ष कार्यक्रम को सबसे अधिक प्रभावित किया। 1990 के दशक में भारत रूसी अंतरिक्ष एजेंसी रॉसकॉसमॉस से 250 मिलियन डॉलर में क्रायोजेनिक तकनीक प्राप्त करना चाहता था। यह तकनीक अंतरिक्ष में भारी उपग्रहों को गहराई तक ले जाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है पर अमेरिकी सीनेट की विदेश संबंध समिति ने रूस को सहायता रोकने के लिए बाध्य किया। उस समय संशोधन को पेश करने वाले व्यक्ति स्वयं जो बाइडेन थे। उस समय आर्थिक संकट से गुजर रहे रूस को अमेरिकी सीनेट के संशोधन का पालन करना पड़ा। नतीजतन, भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम दशकों नहीं बल्कि कई वर्षों तक पीछे चले गए। अंततः, भारत को स्वदेशी क्रायोजेनिक तकनीक विकसित करनी पड़ी, जिसका पहला प्रयोग 2014 में इसरो द्वारा किया गया था।

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वैक्सीन नाकाबंदी

जब भारत को टीकों की सबसे अधिक आवश्यकता थी, संयुक्त राज्य अमेरिका ने हमारे देश में वैक्सीन के कच्चे माल की आपूर्ति को रोकने का फैसला किया। संयुक्त राज्य अमेरिका ने फरवरी 2021 में, वैक्सीन उत्पादन के लिए कच्चे माल के निर्यात पर अंकुश लगाने के लिए रक्षा उत्पादन अधिनियम लागू किया था। मोदी सरकार की आक्रामक कूटनीति के कारण संयुक्त राज्य अमेरिका को अपने तरीके बदलने पड़े और भारत को कच्चे माल की आपूर्ति फिर से शुरू करने के लिए मजबूर होना पड़ा।

जलवायु सतर्कता

पश्चिम एक बार फिर भारत पर अनुचित जलवायु मानकों को थोप कर भारत के आर्थिक विकास को बाधित करने की कोशिश कर रहा है। पश्चिम भारत को कोयले के उपयोग को रोकने के लिए प्रेरित कर रहा है। पश्चिम के विपरीत, भारत अभी भी एक विकासशील देश है। पश्चिम यह जानता है। यह भारत से कोयले का परित्याग करने और पर्यावरण मानकों का पालन करने का आह्वान कर देश के विकास को पटरी से उतारने की चाल है। हालांकि, मोदी सरकार पश्चिम द्वारा स्थापित उदारवादी जाल में नहीं फंसी है। इसने पश्चिम की योजना को खारिज करते हुए जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए एक स्वदेशी और भारत केंद्रित योजना को अपनाया है।

पश्चिम ने वास्तव में कभी भी भारत की जरूरत के समय में मदद नहीं की है। उसने बड़े पैमाने पर भारत के हितों को नुकसान पहुंचाया है। 1971 के बांग्लादेश के मुक्ति-युद्ध में अमेरिका पाकिस्तान के साथ खड़ा था। भारत के प्रति पश्चिम की उदासीनता हमें महंगी पड़ी है। वैसे, अंग्रेजों ने अपने शासन के दौरान भारत से लगभग 45 ट्रिलियन डॉलर की चोरी की। $45 ट्रिलियन आज यूनाइटेड किंगडम के कुल वार्षिक सकल घरेलू उत्पाद से 17 गुना अधिक है। कल्पना कीजिए कि आजादी के बाद भारत में कितना धन शेष रहा होगा।

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