अखिलेश और शिवपाल: खतम, टाटा, बाय बाय

राजनीतिक सम्बन्ध खत्म तो बस, चाचा भतीजा भी खत्म!

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अब पछताए होत का जब चिड़िया चुग गई खेत, आज ये कहावत मुलायाम यादव के लघु भ्राता और अखिलेश यादव के चचाजान शिवपाल यादव के परिप्रेक्ष्य में एकदम सटीक बैठता है। समाजवादी पार्टी (सपा) के विधायक और प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (लोहिया) के राष्ट्रीय अध्यक्ष शिवपाल सिंह यादव ने शुक्रवार को लखनऊ में हुई पार्टी की बैठक में उन्हें “आमंत्रित नहीं” करने के लिए पार्टी प्रमुख और भतीजे अखिलेश यादव पर परोक्ष रूप से कटाक्ष किया है। अब यह हालात इस वजह से और महत्वपूर्ण हो जाते हैं क्योंकि अखिलेश ने एक तो अपने चाचा को अपने पार्टी के सिंबल पर चुनाव लड़ाया, और तो और प्रसपा के हिस्से एक भी अन्य सीट नहीं दी, इससे सर्वप्रथम प्रसपा के अस्तित्व पर पहले ही ताले जड़ गए क्योंकि उसे इतना तुच्छ श्रेणी का दिखा दिया गया कि शिवपाल को भी प्रसपा के चुनाव चिन्ह पर नहीं सपा के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ाया गया। यह बात अभी इतनी शोर में नहीं है क्योंकि अभी लड़ाई बैठक-बैठक की चल रही है जिसमें अखिलेश ने शिवपाल को आमत्रित नहीं किया और बिना उनके साथ के नेता प्रतिपक्ष के नाम पर मुहर लगा दी।

यूँ तो शिवपाल के अनुसार वो बैठक के लिए बहुत दिनों से तैयार बैठे थे पर जब बैठक हुई तो उन्हें कोई सुचना ही नहीं मिली। मीडिया से बात करते हुए शिवपाल यादव ने कहा, “मुझे पार्टी की बैठक में आमंत्रित नहीं किया गया था। मैंने दो दिनों तक इंतजार किया और इस बैठक के लिए अपने सभी कार्यक्रम रद्द कर दिए लेकिन मुझे आमंत्रित नहीं किया गया। मैं समाजवादी पार्टी से विधायक हूं लेकिन अभी भी आमंत्रित नहीं किया गया है।”  बता दें कि अखिलेश यादव, जिन्होंने हाल ही में राज्य की राजनीति पर ध्यान केंद्रित करने के लिए लोकसभा सांसद के रूप में इस्तीफा दे दिया था, को कल हुई बैठक के दौरान नवनिर्वाचित विधायकों द्वारा विधायक दल के नेता के रूप में चुना गया था।

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अब यह बगावत नहीं तो और क्या है। पहले जहर का घूँट पीकर शिवपाल ने सपा के साथ चुनाव लड़ने के लिए स्वीकृति दी। बाद में शिवपाल ने भी अखिलेश को अपना नेता मान लिया। इतना अब करने के बाद भी शिवपाल को अखिलेश की तरफ से दरकिनार किया गया। यह दूसरी बार है जब शिवपाल और अखिलेश के बीच संबंधों के सामने चट्टान दिखाई दे रही है क्योंकि 2016 में अखिलेश द्वारा अपने चाचा को अपने मंत्रिमंडल से बर्खास्त करने के बाद उनका पहली बार झगड़ा हुआ था। अखिलेश बाद में जनवरी 2017 में समाजवादी पार्टी के प्रमुख बने, जबकि शिवपाल ने अपनी पार्टी – प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (पीएसपी) बनाई।

पिछले साल, चाचा और भतीजे के बीच तनावपूर्ण संबंध कम हो गए थे। इटावा में एक पंचायत चुनाव में सपा और पीएसपी ने हाथ मिलाया था और 24 में से 18 वार्डों में जीत हासिल की थी। दिसंबर 2021 तक, दोनों पार्टियां राज्य में विधानसभा चुनावों के लिए सीटों के बंटवारे के समझौते पर पहुंच गई थीं। समझौते के बाद शिवपाल यादव सपा के टिकट पर चुनाव लड़ने के लिए तैयार हो गए थे। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के सात चरणों के परिणाम 10 मार्च को घोषित किए गए थे। योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली भाजपा की राज्य इकाई ने 255 सीटों पर जीत हासिल की।

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सपा को 111, रालोद को आठ और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी को छह सीटें मिली थीं। इस पूरे प्रकरण में जहाँ एक ओर ये प्रदर्शित होता है कि शिवपाल को साथ लाना केवल अखिलेश की राजनीतिक मजबूरी थी ताक़ि एक वोट कटुआ पार्टी कम हो जे और यह तो विधानसभा चुनाव प्रचार में भी दिख रहा था कि अखिलेश ने अपने चाचा को इस स्तर तक पहुंचा दिया कि प्रचार करते समय चुनावी रथ में एक कुर्सी पर मुलायम बैठे थे तो दूसरी पर अखिलेश, शिवपाल को मुलायम की कुर्सी से सटकर खड़ा हुआ देखा गया था। बात तो तब ही उड़ रही थी कि अखिलेश ने अपनी चाल चलकर अपने चाचा से पुराने सारे बदले निकाल   लिए।

अंततः अब रुदाली राग के साथ बैठक से वांछित रखने पर शिवपाल यादव ने इटावा में एक भागवत कथा में शामिल होते हुए यह कहा कि, भगवान राम का राजतिलक होने वाला था, लेकिन उनको वनवास जाना पड़ा। इतना ही नहीं हनुमान जी की भूमिका भी बेहद महत्वपूर्ण थी. क्योंकि अगर वह नहीं होते, तो राम युद्ध नहीं जीत पाते। ये भी याद रखें कि हनुमान ही थे, जिन्होंने लक्ष्मण की जान बचाई।” शिवपाल के इस बयान से उन्होंने अपने आप को इतनी संज्ञाओं से लाद दिया कि दुःख की कोई सीमा नहीं है साफ साफ प्रदर्शित हो रहा है। सौ की सीढ़ी बात यह है कि अखिलेश ने प्रो-प्लेयर की तरह चाचा को नॉक आउट कर दिया और चाचा को पता भी नहीं चला।

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