UN और पश्चिम के लिए उनका पॉल्यूशन औद्योगिक क्रांति है और भारत के पॉल्यूशन से पर्यावरण का नुकसान हो रहा है

आखिर कहां से लाते हो इतनी बेशर्मी ?

PM Modi

Source- TFI

विदेशी राष्ट्रों को भारत की उन्नति फूटी आंख नहीं सुहाती। वो बस भारत में उतना ही विकास देखना चाहते हैं, जितना उनके लिए फायदेमंद हो और भारत सदा सर्वदा के लिए उनपर आश्रित रहे। पर, हाल के दिनों में सशक्त नेतृत्व की वजह से भारत स्वावलंबी हुआ है। यही स्वावलंबन भारत को महाशक्ति बनाने का मार्ग खोल रहा है। इसीलिए पश्चिम के देश अब नए-नए अंतरराष्ट्रीय संस्था और संगठनों के माध्यम से भारत को कभी हतोत्साहित करते है, कभी डराते हैं तो कभी पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने का आरोप लगाते है। इसी कड़ी में एक अंतरराष्ट्रीय संगठन  IPCC ने भी भारत के प्रति अपनी कुंठा प्रदर्शित की है और अपनी रिपोर्ट में भारत को दुनिया के सबसे प्रदूषित और सबसे असुरक्षित देशों में रखा है। IPCC ने बीते सोमवार को अपनी छठी मूल्यांकन रिपोर्ट का दूसरा भाग जारी किया। यह वैश्विक जलवायु परिवर्तन के प्रभावों, जोखिमों, कमजोरियों और अनुकूलन उपायों से संबंधित रिपोर्ट है। जिसमें कहा गया है कि समुद्र तल की वृद्धि से भारत की आबादी विश्व में सबसे ज्यादा प्रभावित होगी।

ध्यान देने वाली बात है कि पश्चिम दुनिया के अधिकांश देश भारत पर अपने विकास को छोड़ने और एक नासमझ कार्बन-तटस्थ नीति का पालन करने के लिए दबाव डाल रहा है। जलवायु परिवर्तन एक ऐसी घटना है जिसकी जिम्मेदारी पूरी तरह से विकसित दुनिया की है, क्योंकि जब अपने देश के विकास की बात थी तब अमेरिका सहित सभी विकसित पश्चिमी देशों ने जी भरकर ऊर्जा का दोहन किया और औद्योगिक क्रांति की आड़ में पर्यावरण को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया, लेकिन अब जब भारत जैसे विकासशील देश विकास प्राप्त करने की प्रक्रिया में है, तब उन्हें IPCC जैसे संगठनों के माध्यम से डराया जा रहा है। 1700 और 1800 के दशक में अपनी आर्थिक क्रांतियों के दौरान, आज के ‘विकसित’ देशों ने दुनिया को एक गैस चैंबर बना दिया। अब जबकि दुनिया भर के विकासशील देश अपने विकास लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए ऐसा ही कर रहे हैं, तो पश्चिम के देश उन्हें डरा रहे हैं।

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कैसे भारत के विकास को पटरी से उतार रहा है पश्चिम

भारत को अभी भी अपने संसाधनों का पूर्ण उपयोग करना बाकी है, ताकि ‘विकास’ के लक्ष्यों को पूरा किया जा सके। अगर ऊर्जा संसाधनों की बात करें, तो वर्तमान में जीवाश्म ईंधन ही एकमात्र व्यवहार्य संसाधन है, जिसका उपयोग भारत अपने विकास के लिए कर सकता है। हरित ऊर्जा भी एक संसाधन है पर, इसे दहनशील ईंधन में बदलने में काफी समय लगेगा। भारत इसका इंतजार नहीं कर सकता और देश निरंतर आगे बढ़ते जा रहा है। भारत का औद्योगिक और आर्थिक विकास के प्रति यही प्रतिबद्धता पश्चिम को डराता है। इसलिए यह कोई संयोग नहीं है कि न केवल पश्चिम से जुड़े विभिन्न गैर सरकारी संगठनऔर जलवायु सक्रियता समूह, बल्कि चीन भी भारत के विकास पथ को पटरी से उतारने के लिए लगातार कदम उठा रहे हैं। वे भारत के उद्योगों और कारखानों के खिलाफ निरंतर विरोध प्रदर्शन करते हैं, जिसके कारण हमारी स्टरलाइट कॉपर प्लांट, कुडलकुलम परियोजना और अन्य विकासशील अभियानों को बंद करना पड़ता है। पश्चिम पर्यावरण के प्रति किए गए अपने पापों का प्रायश्चित भारत से करना चाहता है, पर भारत भी झुकेगा नहीं ……..।

पश्चिमी दबाव के आगे नहीं झुक रहा भारत

संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन जैसे देश अब हरित ऊर्जा के बारे में बात कर रहे हैं, क्योंकि उन्होंने तो अपने हिस्से के जीवाश्म ईंधन का उपयोग कर लिया। अतः कार्बन तटस्थ बनने के लिए बड़ी-बड़ी नीतियां प्रस्तुत प्रस्तुत कर रहे हैं और स्वयं पेरिस जलवायु समझौते में निर्धारित लक्ष्यों से पीछे हैं। वर्ष 2018 कार्बन उत्सर्जन के आंकड़ों के अनुसार, चीन 10.06 जीटी के साथ सूची में सबसे ऊपर है, अमेरिका 5.41 जीटी के साथ दूसरे स्थान पर है, जबकि भारत 2.65 जीटी कार्बन ही उत्सर्जित करता है।

पिछले साल ग्लासगो में COP26 शिखर सम्मेलन के दौरान, पीएम मोदी ने शुद्ध-शून्य उत्सर्जन प्रतिज्ञा भी की थी, लेकिन साथ ही उन्होंने पश्चिमी देशों को उनकी जिम्मेदारी की याद दिलाई। उन्होंने कहा, “यह भारत की अपेक्षा है कि दुनिया के विकसित राष्ट्र जलवायु वित्त के रूप में जल्द से जल्द 1 ट्रिलियन डॉलर उपलब्ध कराएं। न्याय मांग करेगा कि जिन राष्ट्रों ने अपनी जलवायु प्रतिबद्धताओं को पूरा नहीं किया है, उन पर दबाव डाला जाना चाहिए। जलवायु मामले पर कार्रवाई से विकसित देश पीछे नहीं रह सकते है।”

भारत ने वर्ष 2050 तक शुद्ध-शून्य कार्बन उत्सर्जन प्रतिज्ञा लेने से इनकार कर दिया। पीएम मोदी ने कार्बन उत्सर्जन की अपनी प्रतिज्ञा की समय सीमा 2070 तक बढ़ा दी है। जैसा कि TFI द्वारा पहले बताया गया था कि नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत के अनुसार, भारत पेरिस समझौते के तहत उल्लेखित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए एकमात्र G20 राष्ट्र है, जो ट्रैक पर है। एक विकासशील राष्ट्र होने के बावजूद, भारत अपने उत्सर्जन को नियंत्रण में रखने में कामयाब रहा है।

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विकसित दुनिया का बेशर्म पाखंड

विकसित दुनिया ने विश्व के पर्यावरण का क्या हाल किया है, इसका सारांश यहां समझिए: विकसित देशों ने विश्व को प्रदूषित किया है। यही एकमात्र कारण है कि आज जलवायु परिवर्तन एक संकट है। ऊपर से उन्होंने अपने अपराधों के लिए भुगतान करने से इनकार कर दिया है। साथ ही अपनी ज़िम्मेदारी और प्रायश्चित का भार भारत जैसे विकासशील देशों पर स्थानांतरित कर रहे हैं। उनके अनुसार अब अचानक से भारत जैसे देश जलवायु परिवर्तन के लिए दोषी हो गए हैं और इसका मतलब हमें खुद को विकसित करना छोड़ देना चाहिए।अतः विकसित देश अपने नकली कार्यकर्ताओं का उपयोग करके भारत के विकास को हाईजैक करने की भी नापाक कोशिश कर रहे हैं।

भारत का प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन पश्चिमी देशों की तुलना में बहुत कम है। ऐतिहासिक रूप से भी, विश्व की एक चौथाई आबादी होने के बावजूद, भारत वैश्विक पर्यावरणीय गिरावट के लिए यकीनन सबसे कम जिम्मेदार है। दुनिया को इस तथ्य को स्वीकार करना ही होगा कि भारत जलवायु संकट के लिए ज़िम्मेदार नहीं है। दुनिया भी ये जानती है पर यह तथ्य विकसित दुनिया को असहज स्थिति में डाल देगा। लोग पूछने लगेंगे कि अगर भारत नहीं तो गड़बड़ी के लिए फिर कौन जिम्मेदार है? यही पश्चिम की औकात है। यही पश्चिम का विरोधाभास है। अंततः पश्चिम को ही जवाबदेह ठहराया जाएगा और IPCC के माध्यम से उनकी भटकाव की रणनीति विफल हो जाएगी।

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