धामी और सावंत से सबक – ‘रघुवर दास सिंड्रोम’ से भाजपा को हर कीमत पर बचना चाहिए

संभलना जरुरी है, वरना यह सिंड्रोम बर्बाद कर देगा!

रघुबर दास सिंड्रोम

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जब किस्मत ख़राब हो, तो ऊंट पर बैठे आदमी को भी कुत्ता काट लेता है। कुछ ऐसा ही हाल सत्ता पर काबिज बड़े-बड़े नेताओं का इस चुनाव में हुआ और मात्र इस चुनाव में ही नहीं, बल्कि बीते कई चुनावों में ऐसे नेता “रघुवर दासस सिंड्रोम” से ग्रसित होकर घर बैठने पर मजबूर हो गए हैं। रघुवर दासस झारखण्ड के वो मुख्यमंत्री रहे हैं, जिन्होंने राज्य में पूरे 5 वर्ष का शासन बिना खतरे के किया। एक नेता और शासक के तौर पर भी झारखण्ड में उनका कोई सानी नहीं था, वो हार गए क्योंकि वो न ही योगी बन पाए और न बन पाए हिमंता बिस्वा सरमा। वो रघुवर दासस बने रहने के कारण सत्ता से बेदखल हो गए। अब यही हाल उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और अन्य कई भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों का है, जिनकी हालत रघुवर दासस जैसी हो जाएगी और बीते गुरूवार को आए चुनावी नतीजों में इसका ट्रेलर भी आ गया। ध्यान देने वाली बात है कि इस चुनाव में भाजपा के कई धुरंधर नेता “रघुवर दासस सिंड्रोम” के शिकार हो गए।

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आखिर क्या है रघुवर दासस सिंड्रोम?

राजनीति संभावनाओं और समीकरणों का खेल है, जिनके बनते और बिगड़ने में लेशमात्र भी समय नहीं लगता। आज का राजा कल का रंक और फ़कीर हो सकता है इसको समझना बेहद आवश्यक है। रघुवर दासस भाजपा के उन कर्म प्रधान मुख्यमंत्रियों में से एक थे, जिनके सिर कई बड़ी और अहम उपलब्धियां दर्ज़ हैं। सर्वप्रथम वो झारखण्ड के सबसे पहले गैर आदिवासी मुख्यमंत्री बने थे, जिन्होंने पहले बार अपना पूरा 5 साल का कार्यकाल बिना किसी रुकावट के पूर्ण किया। यद्यपि वो 2019 में विधानसभा चुनाव हार गए और राज्य में JMM के हेमंत सोरेन सरकार बनाने में कामयाब हो गए। इससे रघुवर दासस की छवि और उनके कद को कम नहीं आंका जा सकता, क्योंकि वास्तव में रघुवर दासस सर्वमान्य नेता थे।

रघुवर दासस के कार्यकाल में कई निर्णय पहली बार लिए गए, जिनको छूने में भी अन्य दलों और नेताओं की जड़ें हिलती थी। पत्थलगड़ी गिरोह के सफाईकर्मी समुदाय से आने वाले रघुवर दासस को झारखंड का पहला गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री बनाकर भाजपा ने ऐतिहासिक कदम उठाया था। मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही रघुवर दासस ने अवैध रूप से संचालित टेरेसा के एनजीओ पर कार्रवाई करने का पहली बार कदम उठाया। उनके निर्देशन में धार्मिक धर्मांतरण पर प्रतिबंध लगाने वाला देश का पहला राज्य झारखंड बना था। यह झारखंड में रघुवर दासस की सरकार ही थी, जिसने कड़े और सख्त कदमों के तहत पॉपुलर फ्रंट ऑफ़ इंडिया (PFI) पर प्रतिबंध लगाया था और ऐसा करने वाला देश का पहला राज्य भी बना था। ध्यान देने वाली बात है कि दास के नेतृत्व में ही जबरन और अवैध धर्मांतरण को रोकने के प्रयास के तहत झारखंड धर्मांतरितों के लिए लाभ रोकने वाला देश का पहला राज्य बना था।

निश्चित रूप से, इसके अतिरिक्त झारखंड ने रघुवर दासस के नेतृत्व में अपने सबसे शांतिपूर्ण 5 साल, पारदर्शी टेंडर प्रक्रिया, लेश मात्र भी भ्रष्टाचार न होना, सड़क निर्माण और अन्य बुनियादी ढांचे को उनके शासनकाल में देखा। ऐसा कहा जा सकता है कि उन्होंने झारखंड को विकास की पटरी पर ला दिया था। इसके बावजूद वो विधानसभा चुनाव हार गए। लोग इसके पीछे सरयू राय विवाद को उनके पतन के लिए जिम्मेदार ठहरा सकते हैं, लेकिन यह सच नहीं है। उन्होंने आ बैल मुझे मार वाली स्थिति की तरह अपने ही हाथ से अपनी राजनीतिक हत्या करने का काम किया। क्योंकि उन्होंने काम तो बहुत किए लेकिन अपने काम को प्रदर्शित करने में विफल साबित हुए और हेमंत सोरेन उनकी कुर्सी हथिया ले गए।

रघुवर दासस सिंड्रोस से ग्रसित हैं कई दिग्गज नेता

यहीं से पैदा होता है “रघुवर दासस सिंड्रोम” का बीज, काम करने में काम 21 पर दिखाने में निल बटे सन्नाटा। यह एक ऐसी स्थिति है, जिसमें दृश्यता की पूर्ण कमी के कारण अभूतपूर्व कार्य करने के बावजूद बड़े-बड़े नेता चुनाव हार जाते हैं। भाजपा के कई मुख्यमंत्री हैं, जो रघुवर दास सिंड्रोम के कारण गर्त में समा गए और कई ऐसे हैं, जो आगामी भविष्य में उसी विकार के कारण रसातल में जाएंगे। पुष्कर सिंह धामी एक अच्छे नेता हैं, लेकिन “रघुवर दासस सिंड्रोम” का हालिया सबसे प्रमुख उदाहरण वही हैं। यह सिंड्रोम उत्तराखंड के पूर्व के दोनों रावत सीएम पर भी हावी था। ध्यान देने वाली बात है कि त्रिवेन्द्र सिंह रावत और तीरथ सिंह रावत दोनों नेता के तौर पर सक्षम और प्रभावशाली थे, पर काम को प्रचारित और प्रदर्शित कैसे किया जाए उससे कोसों दूर थे और निस्संदेह वो दोनों भी “रघुवर दास सिंड्रोम” से संक्रमित थे।

आने वाले समय में भाजपा शासित कई अन्य राज्यों में भी कुछ ऐसा ही देखने को मिल सकता है, जहां सरकार तो भाजपा बना लेगी पर जिसके नेतृत्व में चुनाव लड़ेंगे वो ही फ्लॉप साबित होंगे। इस श्रृंखला में हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर, हरियाणा के सीएम मनोहर लाल खट्टर, गुजरात के सीएम भूपेंद्र भाई पटेल आदि शामिल हैं। निश्चित रूप से ये सभी अच्छा काम कर रहे हैं, लेकिन इस अच्छे काम का कोई अर्थ ही नहीं जब उसे कोई जानता ही नहीं। प्रचार और प्रसार के बगैर सरकार काम करती जाए और धरातल पर उस काम की चर्चा ही न हो, तो वो काम कितना भी जन-उपयोगी क्यों न हो उसकी महत्ता कम ही रहती है। इसी रीति से भाजपा को अब अपने मुख्यमंत्रियों की कार्यशैली को निचोड़ने की आवश्यकता है, नहीं तो हर बार यही होता रहेगा और एक दिन सभी नेता “रघुवर दासस सिंड्रोम” का दर्द लिए घर पर बाम मलते दिखाई देंगे।

यूं तो गोवा में भाजपा ने अप्रत्याशित जीत दर्ज़ कर अपना किला बचा लिया, तो वहीं इससे प्रमोद सावंत की साख भी बचना भाजपा के लिए अप्रत्याशित ही था। मनोहर पर्रिकर के जाने के बाद से ही गोवा में भाजपा अपने अस्तित्व को कठघरे में खड़ा पाती है। लक्ष्मीकांत पारशेखर जैसे मौकापरास्त नेताओं की दगा झेल चुकी भाजपा राज्य में अपने हर नेता को कमोबेश उसी हाल में पाती है। ऐसे में प्रमोद सावंत भी अबतक भाजपा के कार्यों और सरकार को जनता से सीधा जोड़ने में थोड़े ही सही पर विफल रहे हैं। इसी बीच अब जब उन्हें पुनः राज्य की गद्दी मिल गई है। ऐसे में उन्हें भाजपा को राज्य में मनोहर पर्रिकर के कार्यकाल वाली भाजपा बनाने का दायित्व लेना पड़ेगा।

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रघुवर दासस सरीखे नेताओं से भरी हुई है भाजपा 

यह तो हुए “रघुवर दासस सिंड्रोम” से ग्रसित नेताओं के हाल, इनमें कई अपवाद ऐसे हैं जिनके काम को एक राज्य की जनता तक सीमित कतई नहीं माना जा सकता है। इनमें सबसे बड़े उदाहरण उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ हैं, जिनकी PAN INDIA अपील किसी से छिपी नहीं है। योगी सरीखे युवा राजनेता असम में क्रांति लाने वाले हिमंता बिस्वा सरमा हों, त्रिपुरा के सीएम बिप्लब देब हो या अनुभवी मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान। कम से कम समय में अपने काम के बूते पर अपनी छवि निखारने वाले हिमंता और बिप्लब की जितनी प्रशंसा की जाए कम ही होगी। लाल सलाम के गढ़ में सेंध लगाने और जनता से सीधा संवाद कर सरकार चलाने वाले यह दोनों मुख्यमंत्री अपने काम से अपनी छवि को बड़ा बना चुके हैं। शिवराज सिंह चौहान का मध्यप्रदेश में जननेता वाला आधार उनको प्रभावी नेता बनाता है।

एक नेता जिनके काम को हर जगह स्वीकार्यता मिलती है, वो हैं महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस। यह तो घर के भेदी कुछ नेता थे जिन्होंने शिवसेना को सत्ता में रखने की लालसा में सरकार बना रही भाजपा को विपक्षी बना दिया और मुख्यमत्री बन रहे देवेंद्र फडणवीस को विपक्ष का नेता बना दिया। जिस तरह का जनादेश भाजपा को मिला था, यदि शिवसेना को सीटें देने के बजाय भाजपा खुद से लड़ती तो आज की स्थिति काफी अलग होती। ध्यान देने वाली बात है कि देवेंद्र फडणवीस ने राज्य में अपनी बड़ी छवि बनाने के साथ ही काम भी किया और वो काम जनता के सामने प्रदर्शित भी हुआ।

बात का सार यही है कि भाजपा रघुवर दासस सरीखे नेताओं से भरी हुई है। एक बढ़िया शासक और नेता होने के बाद भी प्रचार-प्रसार में लचर हालत उनके पतन का प्रमुख कारण बनती जा रही है। ऐस में अच्छे नेता जो राज्य को एक बेहतर जगह बनाने के लिए दिन-रात काम करते हैं, लेकिन वो दोबारा जीत  हासिल करने के लिए संघर्ष करते दिख जाते हैं, ऐसे में इसे संगठनात्मक कमी कहा जाए तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। भाजपा को या तो इन ‘अच्छे लोगों’ के स्थान पर लोकप्रिय चेहरों को स्थापित करना चाहिए या उन्हें चुनाव जीतना सिखाना चाहिए कि कैसे काम बोलता है के साथ-साथ काम दिखाना भी ज़रूरी होता है।

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