भारतीय संस्कृति और विरासत के पुनरुद्धार के लिए राकेश सिन्हा की पहल समय की मांग है

आखिर क्यों है इतिहास पुनर्लेखन की आवश्यकता ?

स्रोत - गूगल

भारत को राजनीतिक स्वतंत्रता तो 15 अगस्त 1947 को ही मिल गई किंतु भारत आज भी सांस्कृतिक परतंत्रता का शिकार है। 2014 के बाद सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ने राजनीतिक विमर्श में केंद्रीय भूमिका निभाना शुरू कर दिया है। अब समय है कि भारत अपनी सांस्कृतिक परतंत्रता को त्याग दे। इसके लिए भाजपा सांसद और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारक राकेश सिन्हा ने एक प्रस्ताव संसद में रखा है।

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भाजपा नेता राकेश सिन्हा ने उठाई भारतीय ज्ञान परंपरा को पुनर्जीवित करने की मांग 

राज्यसभा के सांसद राकेश सिन्हा ने यह कहते हुए कि अंग्रेजी शिक्षा और यूरोप से उत्पन्न होने वाले विचार ने भारत को विचारों से परतंत्र कर रखा है, भाजपा सांसद राकेश सिन्हा ने शुक्रवार को राज्यसभा में एक प्रस्ताव पेश किया जिसमें सरकार से भारतीय ज्ञान परंपरा को पुनर्जीवित करने के लिए राज्य और जिला स्तर पर अनुसंधान संस्थान (रिसर्च फाउंडेशन ) स्थापित करने का अनुरोध किया गया है। चर्चा की शुरुआत करते हुए राकेश सिन्हा जी ने कहा  कल्पना का वि-औपनिवेशीकरण समय की मांग है | उन्होंने ब्रिटिश इतिहासकार थॉमस बेबिंगटन मैकाले द्वारा शुरू की गई पश्चिमी शिक्षा प्रणाली की भारतीयों को उनकी  पारंपरिक शिक्षा तंत्र से दूर करने की भूमिका के बारे में  चर्चा, साथ ही नालंदा जैसे शिक्षा के केंद्रों के नष्ट होने की बात उठाई है। उन्होंने कहा – कि भारतीय ज्ञान परंपरा को वर्षों की गुलामी के कारण उपेक्षा का सामना करना पड़ा क्योंकि औपनिवेशिक संस्कृति ने इसके प्रति हीनता की भावना पैदा करने की कोशिश की है | भारत के प्रसिद्ध ज्ञान केंद्रों को औपनिवेशिक काल के दौरान राजनीतिक, सैन्य और सांस्कृतिक हमलों का सामना करना पड़ा और उससे पहले भी विश्व प्रसिद्ध नालंदा विश्वविद्यालय को जलाना एक ऐसा उदाहरण है, जिसकी कई पीढ़ियों को जानकारी भी नहीं थी | यूरोप से उत्पन्न अंग्रेजी शिक्षा और विचारों ने भारत को राजनीतिक गुलामी के साथ-साथ विचारों और प्रवचनों का भी गुलाम बना लिया और यह भावना स्वतंत्रता के बाद भी कायम रही।

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विपक्षी दलों द्वारा उठाया गया जाति व्यवस्था का मुद्दा 

हालांकि विपक्षी दलों द्वारा राकेश सिन्हा के प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान जाति का मुद्दा उठाकर यह आरोप लगाया गया कि प्राचीन काल में जाति व्यवस्था ने शिक्षा को आम जनमानस तक पहुंचने नहीं दिया। उन्होंने कहा कि प्राचीन गौरव की बात उठाते समय जाति व्यवस्था की कुरूपता को छुपाया नहीं जाना चाहिए। यह सर्वविदित है कि प्राचीन काल के गौरव की बात उठने पर जाति की बात उठाना राजनीति से प्रेरित है। जाति की जैसी कठोरता ब्रिटिश काल में परिलक्षित होती है, वह प्राचीन भारत में नहीं थी।नंद शासक शूद्र थे, मौर्यों के संदर्भ में भी कई मत प्रचलित हैं, जिनमें कहीं उन्हें वैश्य और कहीं कहीं शूद्र माना गया है। यदुवंशी राष्ट्रकूट मूलतः क्षत्रिय कुल के नहीं थे, मराठे क्षत्रिय नहीं थे, प्रतिहारों को गुज्जर भी माना गया है, कश्मीर का प्रतापी शासक ललितादित्य कायस्थ था। इतना ही नहीं वर्ण व्यवस्था कर्म आधारित थी।

 

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समय- समय पर उठती इतिहास को दोबारा से लिखने की मांग  

भारत का इतिहासलेखन इतना भ्रमित करने वाला है की उसे सुधारने के लिए कई शोध संस्थाओं की आवश्यकता है। भारत उदारवादी, साम्यवादी और इस्लाम के सांस्कृतिक उपनिवेशवाद का शिकार है। हमारी मुक्ति ही हमारे उद्धार का  वाहक बनेगी। राकेश सिन्हा का प्रस्ताव इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।जिस प्रकार भारत के इतिहास से चोल, चेर , पाण्ड्य तथा सम्राट अशोक और महान मराठा शासकों के साथ- साथ और भी कई महान विभूतियों को या तो पूरी तरह से गायब कर दिया गया या फिर उन्हें बहुत कम स्थान दिया गया | ऐसे में देश में एक ऐसा वर्ग भी है, जो इतिहास के पुनर्लेखन को लेकर बार-बार अपनी मांग रख रहा है | आज भारत को यदि आगे बढ़ना है, तो उसे अपने गौरवशाली इतिहास और संस्कृति को अपनी आने वाली पीढ़ियों को बताना होगा | जिससे हमारी आने वाली पीढ़ी औपनिवेशिक और वामपंथी विचारधारा द्वारा चलाए गए एजेंडे में ना फंसकर रह जाए, अपितु हमारी आने वाली पीढ़ियाँ अपने गौरवमयी इतिहास पर गर्व महसूस करें |

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