अपने ही छात्रों के मूल्यांकन का अधिकार कॉलेजों से छीन लिया जाना चाहिए

इस कदम से ही गुरु घंटाल और चेला चोर होने से बचेगा!

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आप जब कोई वस्तु खरीदते हैं तो क्या चाहते हैं? एक उपभोक्ता के तौर पर आप चाहते है की कम से कम पैसे में आपको अधिक से अधिक गुणवत्ता वाली वस्तु मिल सके। पर शायद शिक्षा इस क्षेत्र में एक अपवाद बन चुकी है। हमारे माता-पिता हमें एक उत्कृष्ट शिक्षण संस्थान से शिक्षा दिलाने के लिए अत्यंत मेहनत और पैसा खर्च करते हैं, इसमें कोई दो राय नहीं है। परंतु, जो इसके असल उपभोक्ता है यानी कि विद्यार्थी और जो इसके असल आपूर्तिकर्ता है यानी कि प्रोफ़ेसर, वह कितनी मेहनत और लगन से इस सौदे को सुगम और सार्थक बनाते हैं यह प्रश्न का विषय है?

सबसे पहले तो आपको एक उदाहरण से समझाने का प्रयास करते हैं। अगर आप किसी होटल में खाना खाने जाते हैं तो एक उपभोक्ता के तौर पर आप सेवा, सुगमता और खाने की गुणवत्ता को लेकर संवेदनशील होते हैं। अगर आपने निर्धारित राशि का भुगतान किया है तो आप यह अवश्य चाहेंगे कि आपको जल्दी से जल्दी और मानक के अनुरूप खाना परोसा जाए लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में ऐसा नहीं है। हम सभी जानते हैं कि हमारे देश में कुछ चुनिंदा गुणवत्ता वाले शिक्षण संस्थानों को छोड़कर अधिकतर शिक्षण संस्थान निजी हैं चाहे वह किसी भी प्रकार की शिक्षा और डिग्री मुहैया कराते हों। इन शिक्षण संस्थानों में माता-पिता अत्यधिक श्रम और पैसा खर्च करके अपने बच्चों का दाखिला कराते हैं। पर, वहां जाने वाले विद्यार्थी एक उपभोक्ता के तौर पर ना तो शिक्षा की अहमियत समझते हैं और ना ही उसको प्रदान की जाने वाली गुणवत्ता में होने वाली खामी को उजागर करना चाहते हैं। वह चाहते हैं की प्रोफ़ेसर उन्हें कक्षा में उपस्थित होने से छूट दे,  अंतिम पंक्ति में बैठकर मजे करने की अनुमति दें, खुद भी छुट्टी ले और उन्हें भी मटरगश्ती करने दे।

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छात्र और प्रोफेसर दोनों ही दोषी हैं-

जिसके चलते शनै: शनै: वह प्रोफेसर भी लेक्चर लेने और पढ़ाने के प्रति उदासीन हो जाता है क्योंकि उसकी जवाबदेही तय करने वाले उपभोक्ता यानी कि विद्यार्थी स्वयं ही अपने द्वारा खर्च किए गए पैसे का मूल्य प्राप्त करने को इच्छुक नहीं होते हैं। प्रश्न पत्र भी इसी उद्देश्य से सेट किया जाता है कि सभी बच्चे किसी तरीके से बस पास कर जाएं। किसी किसी निजी शिक्षण संस्थान में तो शिक्षक पहले ही परीक्षा में आने वाले प्रश्नों को बता देते हैं। कहीं कहीं तो सीधे डिग्री प्रदान कर दी जाती है। गुणवत्ता का ख्याल ना तो प्रश्न पत्र तैयार करने में रखा जाता है और ना ही मूल्यांकन में, क्योंकि प्रोफेसर ने भी उस स्तर का नहीं पढ़ाया होता है तो उस स्तर का प्रश्न पत्र भी किस मुंह से तैयार कर सकते हैं?

सबसे गम्भीर समस्या यह है कि प्रैक्टिकल में नंबर दिए नहीं बल्कि बांटे जाते हैं। थीसिस बनाई नहीं बल्कि खरीदी जाती है। कोविड-19 के दौरान इन निजी क्षेत्रों की परीक्षा पद्धति, प्रश्न पत्र की गुणवत्ता और मूल्यांकन के तरीकों में और भी गिरावट आई है। जिससे ना तो यह बच्चे कुछ सीख पाते हैं और ना ही सीखने का प्रयास करते हैं। बस मास्टर जी और बच्चों की मिलीभगत से विद्यार्थी परीक्षा पास करके जाता हैं। गुरु शिष्य के कर्तव्य से पीछा छुड़ाकर दोनों पक्ष खुश होते हैं और कोई जवाबदेही तय करने वाला भी नहीं होता है। परंतु आप स्वयं सोचिए क्या यह सही है?

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आप स्वयं चिंतन करिए कि क्या इस तरीके के मूल्यांकन और गुणवत्ता हीन शैक्षणिक प्रक्रिया के कारण बच्चों का भविष्य अंधकार में नहीं हो रहा है? स्नातक किए हुए बच्चे राष्ट्र निर्माण में हाथ बटाना तो दूर, एक छोटी सी दरख्वास्त लिखने में भी असमर्थ होते हैं। न तो उनके व्यक्तित्व का निर्माण हो पाता है, ना ही चरित्र का और ना ही वह इतने दक्ष हो पाते हैं कि कोई भी उद्द्यम उन्हें बिना अनुभव के नौकरी दे सकें।

सुधार के लिए मूल्यांकन का अधिकार संस्थाओं से वापस लेना होगा-

तो इसका क्या उपाय है?  इसका एकमात्र उपाय यही है कि इन निजी कॉलेजों के हाथ से मूल्यांकन का अधिकार छीन लिया जाए। वैसे भी हमारे संस्कृति में यह परंपरा प्राचीन समय से विद्यमान रही है। महाभारत काल में भी जब द्रोणाचार्य से शिक्षा प्राप्त कर कौरव और पांडव हस्तिनापुर पहुंचे तो उनके शिक्षा का मूल्यांकन वहां की जनता ने रंगभूमि में प्रतियोगिता कराकर की। गुरु वशिष्ट से शिक्षा प्राप्त कर राम भी जब अयोध्या पहुंचे तो उनका मूल्यांकन महर्षि विश्वामित्र ने किया।

वैसे भी यह सैद्धांतिक रूप से भी यह उचित नहीं लगता कि जो शिक्षित करें वही मूल्यांकन करें क्योंकि अगर शिक्षित करने वाला व्यक्ति ही मूल्यांकन करेगा तो हो सकता है वह किसी न किसी प्रकार के पूर्वाग्रह से ग्रसित हो। अतः सरकार को राष्ट्र हित को ध्यान में रखते हुए भविष्य के इन कर्णधारों का मूल्यांकन यूजीसी AICTE सरकारी एजेंसियों या फिर गुणवत्ता वाली शिक्षण संस्थानों को सौंप देना चाहिए।

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पुनः एक उदाहरण लीजिए और स्वयं सोचिए, क्या हो अगर आपके शहर में स्थापित किसी निजी इंजीनियरिंग कॉलेज का प्रश्न पत्र आईआईटी द्वारा तैयार होकर आए और बच्चों की उत्तर पुस्तिका भी जांच होने के लिए ऐसी ही उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षण संस्थानों में भेजी जाए, बिल्कुल उसी प्रकार से जैसा कि बोर्ड एग्जाम में किया जाता है।

इसका परिणाम यह होगा कि बच्चे पास करने के लिए अथक श्रम करेंगे और अगर नहीं किया तो इसका परिणाम अनुत्तीर्णता (फेल) के रूप में सामने आएगा। प्रोफेसर भी अपने पढ़ाने के तौर तरीके को लेकर के जागरूक होंगे अन्यथा अगर उनके द्वारा पढ़ाए गए विद्यार्थी बड़े पैमाने पर फेल होते हैं तो उनकी भी जवाबदेही तय होगी और उनके द्वारा प्रदान की गई शिक्षा के गुणवत्ता पर प्रश्न उठेंगे।

कॉलेज में शैक्षणिक मूल्यांकन के दो आधार हैं। प्रथम, प्रश्न पत्र तैयार करना और द्वितीय उत्तर पुस्तिका की जांच करना। इन दोनों आधारों का मजबूत होना और किसी भी प्रकार के मिलावट से रहित होना बच्चों के भविष्य के लिए आवश्यक हैं जिसके लिए इन निजी कॉलेजों से मूल्यांकन का आधार छीनना आवश्यक है।

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