“कश्मीरी हिंदुओं का सच इतना सच कि कभी कभी वो झूठ झूठ लगने लगता है……..”
ये केवल एक संवाद नहीं, कहीं न कहीं वास्तविकता है। जब आप विवेक अग्निहोत्री द्वारा निर्देशित ‘द कश्मीर फाइल्स’ को देखकर सिनेमाघर से बाहर निकलेंगे तो आपके अंदर दो प्रकार की भावनाएं होंगी। या तो आप अतिभावुक होंगे या फिर आप पर्दे पर हुई घटनाओं को देखकर स्तब्ध और निशब्द महसूस करेंगे क्योंकि कश्मीरी हिंदुओं के साथ जो हुआ, 1989–1992 के बीच जो उन्होंने पीड़ा सही, उसे बिना किसी लाग लपेट के, स्पष्टता के साथ दिखाने के लिए अद्भुत साहस की आवश्यकता चाहिए।
यह कथा है दो कश्मीरी पंडितों की
विवेक रंजन अग्निहोत्री द्वारा निर्देशित ‘द कश्मीर फाइल्स’ कश्मीरी हिंदुओं, विशेषकर कश्मीरी पंडितों के साथ हुए अत्याचारों पर आधारित एक मार्मिक फिल्म है, जिसमें प्रमुख भूमिकाओं में हैं अनुपम खेर, दर्शन कुमार, मिथुन चक्रवर्ती, पल्लवी जोशी, पुनीत इस्सर, मृणाल कुलकर्णी, भाषा सुंबली, प्रकाश बेलावाड़ी, अतुल श्रीवास्तव, चिन्मय मांडलेकर इत्यादि। यह कथा है दो कश्मीरी पंडितों की– एक, जिसे रातों अपना घर छोड़ने पर विवश होना पड़ता है और दूसरा वो जो अपनी वास्तविकता से, अपनी संस्कृति से अपरिचित है।
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कश्मीरी पंडितों के साथ जो त्रासदी हुई, वो जर्मनी के कुख्यात Holocaust से कम नहीं थी। परंतु इसके बारे में लोग चर्चा तक नहीं करते, ऐसा क्यों? The Kashmir Files के प्रोमोशनल संवाद में ही इसका उत्तर है, “बहुत खतरनाक वॉर है, Narratives [विचारधाराओं] का वॉर है, कैमरा ऑन, मातम चालू, कैमरा बंद, मातम बंद। जो बच्चे कैमरा ऑन होने पर पत्थर फेंका करते थे, कैमरा ऑफ होते ही गायब हो जाते हैं, इसीलिए सारी दुनिया को कश्मीरी हिंदुओं की कहानी पता नहीं है….”
मानो विवेक फिल्म नहीं दर्पण दिखा रहे हों
द कश्मीर फाइल्स के साथ सबसे बड़ा गुण यह है कि वह विधु विनोद चोपड़ा की ‘शिकारा’ नहीं बनती, यानी वह कश्मीरी पंडितों के साथ हमदर्दी का दावा कर मूल विषय से भटकती नहीं है। इसमें बिना लाग लपेट के कश्मीरी हिंदुओं पर समस्त प्रकार के अत्याचार दिखाए, और इनमें तो कई ऐसे दृश्य भी हैं जिन्हें देख या तो आप सुन्न पड़ जाएंगे या फिर आप रातभर सो नहीं पाएंगे। जिस प्रकार से आतंकियों ने त्राहिमाम मचाया था, और जिस प्रकार से कश्मीर में ‘रालीव, चालीव, गलीव’ [धर्म परिवर्तन करो, भागो, या मर जाओ] के नारे गुंजायमान होते थे।
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ये तो कुछ भी नहीं। जिस प्रकार से आतंकियों को खुलेआम राजनीतिक संरक्षण मिलता था, और जिस प्रकार से कश्मीरी पंडितों को जम्मू में गंदे, असह्य राहत शिविरों में रहने को विवश होना पड़ता था, वो सब भी स्पष्टता के साथ विवेक अग्निहोत्री ने दिखाया है, मानो वे फिल्म नहीं दर्पण दिखा रहे हों। इस फिल्म में छात्र राजनीति पर भी प्रकाश डाला गया है, और कुछ जगह आप सहमत हो या नहीं, परंतु JNU की विषैली राजनीति का भी पर्दाफाश करके रख दिया है।
अपनी भूमिका के साथ न्याय करते दिखे अनुपम और मिथुन
रही बात अभिनय की तो अनुपम खेर ने अपनी भूमिका के साथ पूरा न्याय किया है। प्रोफेसर पुष्कर नाथ पंडित की भूमिका में उन्होंने मानो समस्त कश्मीरी पंडित समुदाय का दर्द उकेरा है। उनका पूरा पूरा साथ दिया है मिथुन चक्रवर्ती ने, जिन्होंने नौकरशाह ब्रह्म दत्त के रूप में उन लोगों की विवशता दिखाई, जो कश्मीर में होते हुए भी परिस्थितियों के आगे विवश थे। इनके अतिरिक्त पल्लवी जोशी, पुनीत इस्सर, भाषा सुंबली, अतुल श्रीवास्तव, प्रकाश बेलावाड़ी ने भी अपनी अपनी भूमिकाओं में न्याय किया है।
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परंतु सबसे अधिक प्रभाव जमाया दर्शन कुमार ने, जिन्होंने कृष्णा पंडित के रूप में अपने जीवन के सबसे अनोखी भूमिकाओं में से एक भूमिका निभायी है। ये भूमिका बॉलीवुड में उनकी जगह बना या बिगाड़ भी सकती है, परंतु उन्होंने बड़ी परिपक्वता से उन भारतीयों का चित्रण किया जिन्हें अपनी वास्तविक संस्कृति/इतिहास का कोई आभास या ज्ञान ही नहीं है। जब उनके हाथ में भावनात्मक दृश्य आते हैं, तो उनका अभिनय देखते ही बनता है।
इस फिल्म में कुछ अवगुण भी हैं
इस फिल्म में कुछ अवगुण भी हैं जो इसे पूरी तरह एक मास्टरपीस नहीं बनने देते। इतिहास और वर्तमान के बीच ये फिल्म अपना समन्वय खो देती है। कुछ दृश्य ऐसे भी होते हैं, जहां ‘ताशकंद फाइल्स’ के अजीबो गरीब एडिटिंग और उसके अजीब होने का स्मरण हो आता है। परंतु इन्हें अगर अलग रखें, तो ‘द कश्मीर फाइल्स’ ने कश्मीरी हिंदुओं के त्रासदी पर सभी को नींद से झकझोरा है और वास्तविकता से परिचित कराया है, यहां आपको सत्य के अलावा शायद ही कुछ देखने को मिले। इसे कोई भी रेटिंग देना उचित नहीं होगा, क्योंकि बात अब इस देश के सांस्कृतिक और भविष्य की है।
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