दलित कहां से आए, उन्हें दलित शब्द से ही क्यों परिभाषित किया गया, क्यों दलित? क्या दलित हिन्दू नहीं ? इन सभी सवालों का एक उत्तर है कि दलित न तो कोई जाति थी न ही कोई वर्ण। पर यह दलित शब्द दबे-कुचले-मज़लूमों और शोषित वर्ग के लिए प्रयोग किया जाने लगा। उन्हें अछूत बोलने के बजाय दलित बोलना प्रारंभ किया गया। परन्तु हमारे वर्ण व्यवस्था में तो ऐसा कोई भी वर्ण नहीं है। वर्ण हिंदू धर्म के संदर्भ में, समाज को वर्गों में पदानुक्रमित करने की ब्राह्मणवादी विचारधारा को संदर्भित करता है। मनुस्मृति जैसे ग्रंथों में यह विचारधारा का प्रतीक है, जो समाज को चार वर्णों में वर्गीकृत करता है:
1. ब्राह्मण: वैदिक विद्वान, पुजारी और शिक्षक।
2. क्षत्रिय: शासक, योद्धा और प्रशासक।
3. वैश्य: कृषिविद और व्यापारी।
4. शूद्र: मजदूर और सेवा प्रदाता/दास।
ऐसे में दलित तो कभी थे ही नहीं, रही बात दबे कुचले और शोषित वर्ग की तो उन्हें शूद्र कहा जाता था। इसी आडंबर ने आज तक शूद्र जनों को हिन्दू धर्म से अलग-थलग और विभाजित करके रखा हुआ है। उन्हें दलित-दलित कहकर यह एहसास कराया गया है कि तुम सिर्फ दलित हो, हिन्दू धर्म से तुम्हारा कोई सरोकार नहीं है। परिणाम सबके सामने है, जहां आज हर जगह हिन्दू धर्म और दलित वर्ग अलग-अलग तरीके से संदर्भित किए जाते हैं तो यह कथन भी समाज में आसानी से सुनने को मिल जाता है कि हिन्दू, मुस्लिम और दलित वर्ग। तीनों को ऐसे अलग करके बताया जाता है कि हिन्दू मुस्लिम दो विपरीत धर्मों के अलावा एक और धर्म है जिसे दलित कहा जाता है।
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ज्योतिबा फुले ने पहली बार किया था उल्लेख
दलित शब्द की उत्पत्ति समाज सुधारक कहे जाने वाले ज्योतिबा फुले द्वारा उल्लेख के बाद हुई थी। 1880 के दशक के उत्तरार्ध में मराठी शब्द ‘दलित’ का प्रयोग महात्मा जोतिबा फुले द्वारा बहिष्कृत और अछूतों के लिए किया गया था, जो हिंदू समाज में उत्पीड़न के शिकार थे और समाज से टूट गए थे। दलित एक संस्कृत का शब्द है। शास्त्रीय संस्कृत में इसका अर्थ है “विभाजित, टूटा हुआ, बिखरा हुआ।”
ऐसे में एक ओर शूद्र समाज को दलित नाम की नई संज्ञा मिल गई थी, तो कहीं न कहीं इस भेद को राजनीतिक अवसर में भुनाने की कोशिश उन्हीं बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर ने की, जिनके हिस्से भारत का संविधान निर्माण करने का श्रेय जाता है। अब तक जितना भेद साफ़ ढ़ंग से प्रदर्शित नहीं होता था, वो दलित शब्द के राजनीतिकरण से देश ने महसूस किया। महज अपनी राजनीतिक महत्वकांक्षा पूर्ण करने के लिए दलित आरक्षण, दलित उत्थान न जाने क्या-क्या पोषित हुआ और पाला गया।
कई बार सरकार ने भी आपत्ति जताई कि दलित शब्द का प्रयोग न करते हुए संविधान के अनुरूप वैधानिक शब्द “अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति” शब्द का प्रयोग किया जाए। पर मीडिया और राजनीति दोनों की रोटियां उस दिन जल-भून जाएंगी, जिस दिन उनकी शब्दावली से दलित शब्द हट जाएगा। सौ बात की एक बात तो यह है कि स्वार्थी समाज दलित के नाम पर लाभ भी लेना चाहता है और SC/ST एक्ट का दुरूपयोग करके मासूम आमजन को प्रताड़ित भी करना चाहता है। निश्चित रूप से यह 100 फीसदी लोगों की मानसिकता नहीं है, पर जिस प्रकार एक गन्दी मछली पूरे तालाब को गन्दा कर देती है, तो गेंहू के साथ घुन भी पिसता ही है। यही हाल आज सभ्य अनुसूचित जनजाति के लोगों का भी है।
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अपनी राजनीति चमकाने के लिए पार्टियों ने किया शोषित
निश्चित रूप से सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से भाजपा ने अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति कार्ड को सकारात्मक ढंग से इस बार उत्तर प्रदेश में शक्ति प्रदान की है। भाजपा ने इस बार शोषित वर्ग को यह सन्देश दे दिया कि अन्य सभी दलों ने आज तक उनके मत का राजनीतिकरण करने के अलावा कुछ नहीं किया। यह भाजपा ही है, जिसने टिकट वितरण से लेकर सभी निर्णायक बिंदुओं पर अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के नेतृत्वकर्ताओं पर भरोसा जताया। आगामी मंत्रिमडल में भी इसकी गहरी छाप प्रदर्शित हो जाएगी कि अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति से आने वाले जनप्रतिनिधियों को कितनी अहम ज़िम्मेदारी बतौर मंत्री मिलने जा रही है।
यह कोई नई बात नहीं है पर कथनी और करनी में फर्क अब जनता समझ गई है, फिर चाहे अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति की राजनीति करने का दावा करने वाली बहुजन समाज पार्टी हो या राजभर जैसे नेताओं के छिटपुट दल, इन सभी नेताओं ने अपने घर भरने के अतिरिक्त कुछ नहीं किया। “दलित-दलित” करके वोट हथियाने के अलावा चुनाव बाद यह नेता कभी जनता के बीच दिखाई भी नहीं पड़ते। वहीं, नेतृत्व देने में अव्वल भाजपा ने अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति को प्रतिनिधित्व देकर ये सिद्ध कर दिया कि निस्संदेह समाज के हर वर्ग की सहभागिता ही सुंदर कल का निर्माण कर सकती है।
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