अकाली दल को बस भाजपा ही तार सकती है, कहीं इस दल का अस्तित्व ही न खो जाए

अकाली दल का अस्तित्व भाजपा ही बचा सकती है!

एक दम से वक्त बदल दिए, जज्बात बदल दिए, बड़े प्रचलित हुए इस मीम को आज शिरोमणि अकाली दल के परिप्रेक्ष्य में बिलकुल सटीक पाया जा रहा है। जो पार्टी एक ज़माने में प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता बनाती हो, आज उसकी दशा ऐसी हो गई कि दल के टॉप 2 नेता भी ऐसी हार हारे कि मुंह दिखाने के काबिल नहीं बचे। 94 वर्षीय प्रकाश सिंह बादल हों या उनके पुत्र सुखबीर सिंह बदल दोनों ने पंजाब विधानसभा चुनाव के नतीजों में अपनी मूल सीट खोने के साथ ही राज्य में अपनी पार्टी की स्थिति ऐसी कर दी कि अब अकाली दल विधानसभा में ढूंढे नहीं मिलेगा। ऐसे में अकालियों के पास अपने अस्तित्व को भुनाने का एक ही रास्ता रह गया है, जो भाजपा के साथ वापस जाकर ही संभव है।

बुरी तरह हारे हैं सुखबीर और प्रकाश सिंह बादल

आम आदमी पार्टी (आप) ने पंजाब विधानसभा चुनाव में 117 विधानसभा सीटों में 92 सीटों को हासिल कर बहुमत के साथ पंजाब में क्लीन स्वीप किया है, शिरोमणि अकाली दल (शिअद) अन्य प्रमुख राजनीतिक दलों के साथ पीछे रह गया है। अकाली दल के नेता सुखबीर सिंह बादल जलालाबाद निर्वाचन क्षेत्र में आम आदमी पार्टी के जगदीप कंबोज से 30,930 मतों के अंतर से चुनाव हार गए हैं, जबकि प्रमुख शिअद नेता प्रकाश सिंह बादल भी आम आदमी के खिलाफ लंबी सीट हार गए हैं। जब पार्टी के शीर्ष दो नेताओं को जिनमें एक, चार बार के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल तो उपमुख्यमंत्री रहे सुखबीर सिंह बादल की इतनी करारी हार देखने को मिले तो पार्टी का मूल ही खिसकने लगता है। धरातल से धराशाई हो चुकी शिरोमणि अकाली दल अब अपने अस्तित्व के लिए राज्य में हाथ-पैर मार रही है।

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इस जुगत में कि किसान आंदोलन का साथ देकर पंजाब चुनाव जीत लेंगे, शिरोमणि अकाली दल ने एनडीए गठबंधन से पीछा छुड़ा लिया था। विडंबना यह है कि एकमात्र नेता जिसे कभी इतना बड़ा जनादेश मिला था कि 93 सीटों के साथ उसने सरकार बनाई थी, आज उससे डबल डिजिट की संख्या ला पाने में पसीना छूट गया। 1997 में प्रकाश सिंह बादल थे जब अकाली दल को 75 और भाजपा को 18 सीट प्राप्त होने के साथ शिअद-भाजपा गठबंधन ने 93 सीटें जीती थीं। फिर 2012 में, बादल ने शिरोमणि अकाली दल को लगातार जीत दिलाकर इतिहास रच दिया और बादल चौथे कार्यकाल के लिए सीएम बने। चुनाव प्रबंधन कौशल और इतिहास बनाने के लिए उनके बेटे और पार्टी प्रमुख सुखबीर सिंह बादल की सराहना की गई थी।

क्या भाजपा से अलग होना सही फैसला था?

2017 में यह आंकड़ा घटकर 15 सीट का रह गया था और बाद में जब एनडीए का साथ छोड़ इस बार 2022 का चुनाव बसपा के साथ लड़ा तो संख्या 3 पर आकर सिमट गई। ऐसे में किसान आंदोलन का समर्थन करने के रौब में केन्द्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा देना, भाजपा गठबंधन से अलग होना और अन्तोत्गत्वा माया मिली न राम की मंत्र के साथ शिरोमणि अकाली दल के हाथ ठेंगा ही लगा। ऐसे में राज्य में अब शिरोमणि अकाली दल का अस्तित्व तो धरती में समाहित होने के साथ ही उसके कार्यकर्ताओं में यह टीस है कि क्या भाजपा से अलग होना एक सही फैसला था? अधिकांश का जवाब न में आता है।

ऐसे में 2017 में, यह पहली बार था कि बादल के नेतृत्व वाला अकाली दल मुख्य विपक्षी दल भी नहीं बन सका और दिल्ली की एक पार्टी अचानक राज्य में आकर राज्य की राजनीति में भूचाल ले आई और आम आदमी पार्टी से शिअद ने अपना स्थान खो दिया।

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भले ही बादल अकाली दल की मूल विचारधारा से दूर हो रहे हैं – सिखों के हितों की रक्षा के लिए और इसके लिए उन्हें आलोचना का सामना करना पड़ा, लेकिन फिर भी उन्होंने पार्टी को एक प्रभावी चुनाव जीतने वाली मशीन के रूप में प्रबंधित किया। लेकिन लगातार सबसे खराब अपमानजनक हार के साथ ऐसा लगता है कि पार्टी अब मशीन पीसने की स्थिति में आ गई है।

वोट शेयर डेटा बहुत कुछ करता है स्पष्ट 

वोट शेयर डेटा यह स्पष्ट करता है कि 2014 में उन्होंने जिस स्थान को खोना शुरू किया था, उसका सबसे मजबूत कारण उनके निर्वाचन क्षेत्र – सिखों में असंतोष था, जो अब भी जारी है। यह भी स्पष्ट है कि सत्ता से बाहर होने के पांच साल बाद भी बादल अभी भी सत्ता विरोधी लहर का सामना कर रहे हैं और 2015 में बरगाड़ी बेअदबी और बहबल कलां पुलिस फायरिंग जैसे मुद्दों ने उनकी राजनीति पर एक काला साया डालना जारी रखा है।

सिख निर्वाचन क्षेत्र में जमीन खोने के बाद, जो बड़े पैमाने पर किसानों के निर्वाचन क्षेत्र के साथ ओवरलैप करता है, बादल तब बाद में भी बुरी तरह से लड़खड़ा गए, जब उन्होंने शुरू में तीन विवादास्पद कृषि बिलों के मुद्दे को लेकर भाजपा के साथ संबंध तोड़ लिया। लेकिन इस प्रकरण ने एक बार फिर सिख किसानों के बीच उनकी छवि और विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचाया था।

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विशेष रूप से, अंततः इस बार के चुनावों में अकाली दल बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन के बावजूद अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सका। सुखबीर ने भले ही किसी अन्य अकाली गुट को चुनौती नहीं बनने दी, लेकिन इस हार के बाद उन्हें एक बार फिर अपने नेतृत्व को लेकर सवालों का सामना करना पड़ेगा। अभी के लिए अपमानजनक हार ने बादल के नेतृत्व और अकाली दल के भविष्य पर बड़ा सवालिया निशान लगा दिया है। ऐसे में अब करो या मरो वाली स्थिति में पहुँच चुके शिरोमणि अकाली दल और उसके नेताओं के पास एक ही अवसर है जिसे भुनाने से वो राजनीतिक रूप से गंगा नहा लेंगे। भाजपा के पास वापस जाना एक अंतिम विकल्प है जिससे नकार देना पुनः उनकी बेवकूफी ही होगी।

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