सोशल मीडिया के इस मायावी युग में जितनी जल्दी गुमनाम व्यक्ति को ख्याति मिलती है, उससे ज़्यादा उसकी गिरावट की आवाज़ होती है। दिसंबर 2020 में कोरोना काल में वायरल हुए बाबा का ढाबा, के मालिक कांता प्रसाद ने देशभर से सुर्खियां, ग्राहक और वित्तीय मददगार पाने के बाद जो पाया वो जगजाहिर है। इसी पिछले दो दिनों से उत्तराखंड का एक 19 वर्षीय लड़का प्रदीप मेहरा वायरल हो गया है। उसकी कहानी से TRP बटोरने की अंधी दौड़ में कुछ मीडिया घराने पत्रकारिता के अपने सिद्धांतों की बैंड बजाने के साथ ही पत्रकारिता का गला घोंट रहे हैं। आज मीडिया अपनी TRP के चक्कर में प्रदीप मेहरा या यूं कहें कि ऐसे लोगों की जमकर तारीफ कर रही है, लेकिन कल उसी शख्स को भुला दिया जाएगा, यह वही पत्रकारिता है जिस पत्रकारिता को भारत में वल्चर जर्नलिज्म कहा जाता है।
https://twitter.com/vinodkapri/status/1505535421589377025
सोशल मीडिया के मायाजाल के इस युग में जितनी ख्याति आज आसानी से मिल जाती है, उस ख्याति के बाद जीवन में आने वाली कठिनाइयों का कोई सानी नहीं है। 20 मार्च को फ़िल्ममेकर विनोद कापड़ी ने एक वीडियो ट्वीट करते हुए लिखा, “This is PURE GOLD, नोएडा की सड़क पर कल रात 12 बजे मुझे ये लड़का कंधे पर बैग टांगें बहुत तेज़ दौड़ता नज़र आया। मैंने सोचा किसी परेशानी में होगा, लिफ़्ट देनी चाहिए बार-बार लिफ़्ट का ऑफ़र किया पर इसने मना कर दिया। वजह सुनेंगे तो आपको इस बच्चे से प्यार हो जाएगा।”
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न्यूज-18 का घटिया कारनामा
वायरल हो रही वीडियो में लड़का कहता है कि वह अपने काम से घर तक हर रात करीब 10 किमी दौड़ता है और सेना की तैयारी कर रहा है। वीडियो के बढ़ते प्रसार के साथ ही डिजिटल मीडिया से सीधा, मेनस्ट्रीम मीडिया की गिद्ध दृष्टि प्रदीप मेहरा पर पड़ी और फिर क्या था, TRP की अंधी दौड़ में सहभागी बनते हुए मीडिया घराने लग गए प्रदीप के पीछे। रात में दौड़ लगा रहे लड़के वाले तथ्य को जानकार मीडिया का एक धड़ा लड़के के साक्षात्कार के लिए पागल सा हो गया है। न्यूज़ 18 समूह ने तो TRP के लालच में प्रदीप मेहरा के परिश्रम का ही मज़ाक उड़ा दिया।
प्रदीप को स्टुडियो में ही दौड़ाना शुरू कर दिया!
स्टुडियोवादी पत्रकारिता का अद्भुत नमूना! @vinodkapri मैं अपना सिर पीट लूँ अब? 🤦
— Umashankar Singh उमाशंकर सिंह (@umashankarsingh) March 21, 2022
स्टूडियो में बुलाकर फुटेज बनाने के लिए समूह द्वारा प्रदीप मेहरा से स्टूडियो में ही दौड़ लगाने के लिए कहा गया जो कि शर्मनाक है। इसके अतिरिक्त समाचार चैनलों में एक के बाद एक ब्रेकिंग आनी शुरू हो गई, ऐसा लग रहा था कि इन लोगों ने कभी मेहनत करने वाले व्यक्ति को देखा ही नहीं हो। भारत में गिद्ध पत्रकारिता अपने चरम पर है जहां कुछ पत्रकार लोगों की भावनाओं को समझे बिना उसे परे रख “ब्रेकिंग न्यूज” की अंधी दौड़ में भाग रहे हैं। तो वहीं डिजिटल मीडिया के जमाने में आज प्रत्येक खबर लोगों की उंगलियों पर चलती है। निश्चित रूप से मीडिया ने खबरों से अपना भावनात्मक स्पर्श खो दिया है और उसका अंतिम लक्ष्य किसी भी कीमत पर खबर को ब्रेक करना रह गया है।
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पत्रकारिता की यह सूरत बदलनी चाहिए
ऐसा नहीं है कि यह पहली बार हुआ है, भारत की ही बात करें तो ऐसा पहले भी कई बार देखने को मिला था। जब कोरोना काल के समय में लोगों के शवों पर अपना एजेंडा चलाने के लिए लोग “श्मशान घाट” पर बैठ जाते थे। असंवेदनशीलता की पराकाष्ठा बन चुके पत्रकार और प्रचार आधारित समाचार अनैतिक हैं और प्रत्येक स्तर पर निम्नतम हैं। फिर चाहे बड़े पैमाने पर आई त्रासदी पर असंवेदनशील रिपोर्टिंग के मामले हो, जैसे- नेपाल में आए भूकंप में भारतीय मीडिया की की गई आलोचना हो, जहां हाथ में माइक लिए पत्रकार जीवित लोगों से सवाल पूछ रहे थे कि आप कैसा महसूस कर रहे हैं? इससे बड़ी बेशर्मी की क्या ही बात होगी और मदद के बजाय वे सब उस दौरान बचाव प्रक्रिया में बाधा डाल रहे थे। जब भारत कोविड की कठिन स्थिति से गुजर रहा था, तब कई अंतरराष्ट्रीय मीडिया संस्थान भारत में शवों की खोज और गिनती कर रहे थे। इस तथ्य के बावजूद कि मृत्यु की संख्या, जनसंख्या के अनुसार भारत में सबसे कम है। भारतीय ‘प्रोपेगैंडा प्रोग्रामर्स’ की मदद से वे भारत को बदनाम करने के लिए एक पूरा एजेंडा संचालित समाचार चलाते रहे थे।
वहीं, प्रोपेगेंडा की मशीनरी कुछ ऐसी है कि हाल ही में रिलीज़ हुई फिल्म, ‘द कश्मीर फाइल्स’ को एक प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने यह कहकर बदनाम कर दिया कि यह फिल्म आम चुनाव 2024 के लिए एक बेस बनाकर तैयार की गई है। कश्मीर से हिंदुओं के पलायन पर फिल्म को सांप्रदायिक ब्रांड किया गया है। ऐसे में यही कहा जा सकता है कि ऐसे मीडिया एजेंसियों की बेशर्मी चरम पर है और स्टूडियो में बैठे ‘गिद्धों’ ने मासूम कश्मीरी हिंदुओं के सामूहिक बलात्कार और हत्या पर बनी फिल्म को लोगों को बांटने का सांप्रदायिक तरीका बना दिया।
हाल के कई घटनाक्रमों में यह स्पष्ट रूप से देखा गया कि संवेदनशून्यता की किस हद तक मर्यादाएं तार-तार की जाती हैं। गरीब और पीड़ित वर्ग के बारे में बताना एक बात होती है और उसकी गोपनीयता भंग करना एक अलग बात ही नहीं बल्कि अपराध होती है। खबरों के नाम पर सनसनी फैलाने से बचना चाहिए जो कि मौजूदा समय में आम हो गया है। पत्रकारिता के छात्र इस ध्येय से तो बिल्कुल भी पत्रकारिता करने के लिए नहीं आए थे, जैसी पत्रकारिता अब भारत में देखने को मिल रही है। कुछ भी हो पत्रकारिता की यह सूरत बदलनी चाहिए।