ईस्ट इंडिया कंपनी 2.0 है अमेरिकी बिग टेक

दुनिया को मानसिक गुलाम बनाते जा रही हैं ये कंपनियां!

ईस्ट इंडिया कंपनी

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इतिहास साक्षी रहा है कि पूंजीवाद जब भी अपने पराकाष्ठा पर पहुंचा है, परतंत्रता की उत्पत्ति हुई है। ऐसा नहीं है कि साम्यवाद, समाजवाद और अन्य किसी वैचारिक सिद्धांतों की अति ने समाज और व्यवस्था में गड़बड़ी नहीं पैदा की, पर पूंजीवाद के प्रेम में आप परतंत्रता को अंगीकार कर लेते हैं। इसे एक उदाहरण से समझिए। जनसत्ता और अर्थ की सनक अपने चरम पर पहुंची तब विश्व के विभिन्न हिस्सों से कुछ पूंजीवादी सत्ताधीश नाव पर सवार होकर अनंत अर्थ के अंतहीन खोज में निकले। वे भारत पहुंचे और हर उस चीज का प्रयोग किया जिससे वो अर्थ प्रवाह को निरंतर जारी रख सकें।

सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, प्राकृतिक, भौगोलिक और हर उस स्तर पर भारत तथा विश्व के अन्य भूभाग का शोषण किया जहां किया जा सकता था। शोषण का माध्यम बनी व्यापारिक संस्था को ईस्ट इंडिया कंपनी कहा गया। भारत के परिप्रेक्ष्य में इसी शोषण, बर्बरता, निरंकुशता, अराजकता और नृशंसता पर ब्रिटेन की ईस्ट इंडिया कंपनी अपना एकाधिकार और आधिपत्य स्थापित करने में सफल रही और अंततः भारत ब्रितानी साम्राज्यवाद का एक सफल उपनिवेश बना। परंतु, क्या सच में भारत एक पंजीवादी संस्था और पूंजीवादी व्यवस्था के चंगुल से पूर्णत: स्वतंत्र हो चुका है और आज के परिप्रेक्ष्य में इसकी प्रासंगिकता और वैधता कितनी है?

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अमेरिकी ईस्ट इंडिया कंपनी 2.0

शायद, ऐसा नहीं है। आज के समय में पूरा विश्व ही तथाकथित “ईस्ट इंडिया कंपनी” के चंगुल में फंसता नज़र आ रहा है और इसके पुरोधा हैं अमेरिकी ईस्ट इंडिया कंपनी 2.0 जैसे- गूगल, फ़ेसबुक, ट्विटर, अमेज़न आदि। इन्हीं के माध्यम से अमेरिका अपने आर्थिक साम्राज्यवाद और डॉलर आधारित वैश्विक अर्थव्यवस्था को प्रभावित करता रहता है। विकृत पूंजीवाद आपके सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवस्था में मूलभूत परिवर्तन कर आपको परतंत्रता से प्रेम करना सिखाता है। इसे भी एक उदाहरण से समझिए। हमारे देश में आभूषण के तौर पर सोना और चांदी पहनने की परंपरा है। इस परंपरा के वैज्ञानिक आधार भी हैं। पर पूंजीवाद को विज्ञान और परंपरा से कोई लेना देना नहीं है। उसे तो बस मतलब है अर्थ के प्रवाह से। अतः जब ब्रिटिश पूंजीवादियों के समक्ष भारत में पाए जाने वाले हीरे के दोहन की समस्या उत्पन्न हुई, तब उन्होंने हीरे की अंगूठी पहनाने को वैवाहिक परंपरा से जोड़ दिया। राम और कृष्ण की धरती पर त्वचा के रंग को श्रेष्ठता से जोड़ दिया गया, ताकि करोड़ों के सौंदर्य प्रसाधन के उद्यम खूब फले-फूले।

हमारे व्यक्तित्व का अंत

बाज़ार पूंजीकरण के हिसाब से अमेरिका की 10 सबसे बड़ी कंपनिया हैं- एपल, माइक्रोसॉफ़्ट, अल्फाबेट (गूगल), अमेज़न, फ़ेसबुक, टेस्ला, हेथवे, निविडा, वीजा, जेपी मॉर्गन आदि। अब पूंजीवादी सनक का कमाल देखिये। आप अमेजन से एपल का फोन खरीदते हैं। फोन खरीदने के लिए वीजा कार्ड का प्रयोग करते हैं। उस फोन पर Facebook, Whatsapp, Email, Gmail, Google, Microsoft और आपके दैनिक जीवन को संचालित करनेवाली सारी चीजों को अपने फोन से नियंत्रित करते हैं। आप मानें या न मानें परंतु, आज के जमाने में अगर किसी व्यक्ति के बारे में सब कुछ जानना है तो आप उसके smartphone की जांच अवश्य करना चाहेंगे। अगर एक मनुष्य के अस्तित्व को सूचना और डाटा में समाहित करें तो उसके सारे तत्व उसके फोन में प्रदर्शित हो सकते हैं। व्यक्ति क्या खाता है, क्या सोचता है, क्या पढ़ता है, उसके पसंद, नापसंद, बैंक खाते से लेकर सबकुछ उसके फोन में मिल जाएगा।

तो ज़रा सोचिए कि क्या अमेरिका की इन बड़ी ईस्ट इंडिया कंपनियों ने आपके जीवन को एक छोटे से फोन, उसमे मिलने वाले सेवाओं, एप और सुविधाओं में कैद नहीं कर लिया? सबसे खतरनाक बात यह है कि इन सेवाओं, एप और सुविधाओं के बदले में आप अपने बारे में उन्हें इतनी जानकारी दे देते हैं कि आपके सर्वदा परतंत्र रहने की संभावना बनी रहती है और आपको ये बुरा भी नहीं लगता। गूगल आपके जन्मस्थान से लेकर घर के आंगन तक के बारे में जानता है, तो वही अमेज़न को ये पता है कि आपको लाल पतलून पसंद है या पीली। माइक्रोसॉफ़्ट को आपके कार्यस्थल के बारे में पता है तो वही Facebook आपके दोस्त और परिवार को जानता है। कम से कम हमारे पुरखे शारीरिक और राजनीतिक रूप अंग्रेजों के गुलाम थे, पर हम तो मानसिक रूप से इन अमेरिकी टेक कंपनियों के ग़ुलाम होते जा रहे हैं। हमे क्या पसंद आना चाहिए और क्या नहीं ये भी वही निर्धारित करते हैं। हम तकनीक और virtual दुनिया से इतने घिर चुके हैं कि अब हम एक कैदी बन उन्हीं का हिस्सा बन चुके हैं और हमें इसमें आनंद भी आने लगा है।

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राष्ट्र पर प्रभाव

इतना ही नहीं, ये कंपनियां देश के स्वतन्त्रता और संप्रभुता से खिलवाड़ करने लगी हैं। एक नागरिक राष्ट्र की इकाई होता है। उसके स्वतन्त्रता पर किसी प्रकार का हमला राष्ट्र के स्वतन्त्रता के साथ खिलवाड़ है। हाल के दिनों में ऐसे कितने ही मामले अंतरराष्ट्रीय पटल पर सामने आए, जब Facebook और Twitter ने नागरिकों के निर्णय क्षमता को प्रभावित कर देश का चुनावी माहौल बदलने की कोशिश की। अमेज़न ने रिलायंस और फ्युचर ग्रुप के बीच का सौदा प्रभावित कर भारत के खुदरा बाज़ार पर एकाधिकार प्राप्त करने की कोशिश की, तो वहीं ट्विटर ने वेंकैया नायडू का ट्वीटर अकाउंट अप्रमाणित कर दिया और दूसरी ओर तालिबानियों के अकाउंट को त्वरित प्रमाणित कर दिया।

आम आदमी पर प्रभाव

इसके साथ-साथ इन बड़ी अमेरिकी कंपनियों से आम आदमी अपना पेट भी भरता है। यूट्यूब, Instagram, Facebook और Microsoft कमाई का भी स्रोत है। ऐसे लोगों को उनकी कमाई का हिस्सा देने में ये तकनीकी कंपनियां ठीक वैसा ही भेदभाव करती हैं, जैसे अंग्रेज़ भारतीय और ब्रिटिश अफसर के बीच किया करते थे। कुल मिलाकर सारांश ये है कि सरकार, नागरिक, संस्था और राष्ट्र के कानून को ये टेक कंपनिया अपने हाथों की कठपुतलिया बनाकर राष्ट्र की स्वतन्त्रता को प्रभावित कर रही हैं और अपने मुनाफे का सारा पैसा स्वदेश के उत्थान में लगा रही हैं। सरकार को त्वरित कदम उठाते हुए इनके एकाधिकार को समाप्त करना चाहिए, क्योंकि इनसे लड़ना एक आम आदमी के बस की बात नहीं है।

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