चंद्रबाबू नायडू- एक ऐसा नेता जिसने अपने हाथों से अपने राजनीतिक करियर की तिलांजलि दे दी!

गठबंधन से अलग होना नायडू की बहुत बड़ी भूल थी !

चंद्रबाबू नायडू

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एक समय इनकी गिनती भारत के प्रभावशाली नेताओं में होती थी। इनका प्रभाव केवल इनके राज्य में नहीं, अपितु राष्ट्रीय राजनीति में भी था। परंतु अति महत्वकांक्षा एवं अपने आप को श्रेष्ठतम सिद्ध करने की होड़ में इन्होंने अपना ही सत्यानाश करके दम लिया। आज हम बात करते हैं नरा चंद्रबाबू नायडू की, जिन्हे एक छोटी सी झड़प में विजयी होने हेतु राजनीति के एक महत्वपूर्ण युद्ध में पराजय का सामना करना पड़ा। आज ही के दिन यानी 20 अप्रैल 1950 को चित्तूर जिले के नरवारीपल्ले ग्राम में जन्में चंद्रबाबू नायडू ने अनेक कठिनाइयों का सामना करते हुए तिरुपति में स्थित श्री वेंकटेश्वर विश्वविद्यालय से अपना परास्नातक पूर्ण किया। प्रारंभ में वे कांग्रेस के कट्टर समर्थक एवं प्रखर सदस्य थे, और वे कुछ समय तक कांग्रेस की ओर से आंध्र प्रदेश सरकार के प्रतिनिधि भी रहे।

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घमंड में चूर थे नायडू

इसी समय उनकी बातचीत प्रख्यात तेलुगु अभिनेता एन टी रामा राव से हुई, जो शनै शनै राजनीति की ओर अपने कदम बढ़ा रहे थे। 1982 में उन्होंने तेलुगु देसम पार्टी की स्थापना की, और अगले ही वर्ष आंध्र प्रदेश में प्रचंड बहुमत से सरकार स्थापित की। चंद्रबाबू नायडू स्वयं टीडीपी के उम्मीदवार के हाथों पराजित हुए, परंतु पारिवारिक संबंध एवं राजनीतिक कार्यकुशलता को देखते हुए एनटी रामाराव ने उन्हे अपने पार्टी में शामिल कर लिया। चंद्रबाबू नायडू ने भी इसका प्रारंभ में उचित उपहार दिया। 1985 में जब कांग्रेस के इशारे पर पार्टी के ही वरिष्ठ नेता एन भास्कर राव ने तख्तापलट करते हुए एनटीआर को सत्ता से हटवाने का प्रयास किया था। परंतु चंद्रबाबू नायडू ने इस प्रयास पर पानी फेरने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, और एनटीआर ने एक बार फिर सत्ता में धूमधाम से वापसी दर्ज की।

लेकिन किसे पता था कि जिसने सत्ता दिलाई थी, वही एक दिन उनके साथ घोर विश्वासघात करेगा। 1994 के चुनाव में जब टीडीपी ने सत्ता वापसी दर्ज की, तो अगले ही वर्ष एन चंद्रबाबू नायडू ने वही किया, जिससे कभी उन्होंने अपने ससुर को बचाया था। तख्तापलट करते हुए उन्होंने सारी सत्ता अपने हाथ में ले ली, और 1995 से 2004 तक आंध्र प्रदेश पर शासन किया। लेकिन 2004 में पराजय के पश्चात उन्हे अगले 10 वर्षों तक सत्ता से बाहर रहना पड़ा।

चंद्रबाबू नायडू ने तत्पश्चात एनडीए से पुनः हाथ मिलाया और 2014 में विभाजित आंध्र प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री बने। तेलुगु देसम पार्टी ने मोदी लहर का लाभ उठाते हुए बहुमत से विजय प्राप्त की, और एक बार फिर से वह आंध्र प्रदेश में एक जाना माना नाम बन गया। परंतु अति महत्वकांक्षा ने चंद्रबाबू नायडू का साथ नहीं छोड़ा। अब एनटीआर नहीं रहे, तो वे पीएम नरेंद्र मोदी से उलझ गए। चाहे स्पेशल स्टेटस हो, या फिर अपने आप को आंध्र प्रदेश में श्रेष्ठतम सिद्ध करना हो, अपने घमंड में चंद्रबाबू नायडू पुनः सीमाएँ लांघने में जुट गए।

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टीडीपी की खिसकती जमीनी राजनीति

परंतु नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने उत्तेजित न होकर संयम से काम लिया और तेलुगु देसम पार्टी को अपने विनाश की नींव स्वयं रखने दी। अब अगर 2019 के ईटी की एक रिपोर्ट के अनुसार, पीएम मोदी ने टीडीपी को मनाने का दायित्व पार्टी के शीर्ष नेताओं – अमित शाह एवं स्वर्गीय अरुण जेटली को सौंपा था। परंतु नायडू तो कुछ और ही ख्याल बुने हुये थे इसीलिए वे नहीं माने और दोनों पार्टियों के बीच का गठबंधन टूट गया। अब नायडू को समझ में आने लगा है कि उन्होंने बहुत बड़ी गलती की है।

एक ओर भाजपा ने सभी कठिनाइयों से पार करते हुये सत्ता में प्रचंड बहुमत के साथ वापसी की, तो वहीं नायडू के नेतृत्व में टीडीपी राजनीति में अब अपना अस्तित्व बचाने के लिए जूझ रही है। लोकसभा तो छोड़िए, विधानसभा में भी चंद्रबाबू नायडू अपनी साख बचाने में असफल रहे थे। 2019 के लोकसभा चुनाव ने कई राजनीतिक सूरमाओं को धूल चाटते हुये देखा, जिसमें सबसे अव्वल थे चंद्रबाबू नायडू और उनकी तेलुगू देसम पार्टी। 2014 में 100 से भी ज़्यादा सीट जीतने वाली टीडीपी इस बार 175 सीटों में से केवल 23 सीटों पर ही विजयी हो पायी।

यहीं नहीं, टीडीपी लोकसभा चुनावों में पिछली बार के 15 सीटों के मुक़ाबले इस बार केवल 3 सीट ही जीत पायी। इस बात को स्वयं एक जनसभा में चंद्रबाबू नायडू को स्वीकारना पड़ा, जहां उन्होंने कहा कि भाजपा के साथ नाता तोड़ने से लाभ कम और हानि अधिक हुई। आज यदि चंद्रबाबू नायडू को कोई गंभीरता से नहीं लेता है, तो उसके पीछे एक ही प्रमुख कारण है, और वह है स्वयं चंद्रबाबू नायडू, जो एक छोटी सी झड़प में विजयी होने हेतु एक युद्ध में पराजित हो गए।

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