क्या हम विदेशी गणमान्य व्यक्तियों को साबरमती आश्रम में ले जाना बंद कर सकते हैं?

भारत को देना चाहिए नए राष्ट्रवाद को बढ़ावा !

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Source- TFI POST

किसी भी देश के राष्ट्राध्यक्ष या प्रतिनिधिमंडल भारत आते हैं तो क्या करते हैं? वह साबरमती जाते हैं। गांधी जी का चरखा चलाते हैं। अहिंसा स्वराज और समाजवाद की पीपड़ी बजाते हैं और गांधी जी की याद में दो बनावटी शब्द बोल जाते हैं। सारा कार्यक्रम बिल्कुल बनावटी लगता है। शब्द भी बनावटी होते हैं। और यहां तक की उन्हें देख कर के ऐसा लगता है कि उनकी भावनाएं भी बनावटी ही है। इन्हीं बनावटी भाषा, भावना और मोहनदास करमचंद गांधी के यादों और आभामंडल के बीच जो गुम हो जाता है वह भारत की वैभवशाली सांस्कृतिक और स्वतंत्रता संग्राम की विरासत है।

ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन आते ही वह भी साबरमती गये। वहा पर चरखा चलाया, गांधी जी को माला पहनाया और उपहार भी बटोरे। और उनकी बनावटी याद में दो बनावटी शब्द बोले। उसके बाद वह किसी भी अन्य भारतीय स्वतंत्रता सेनानी के समाधि स्थल या फिर उसके अवशेषों को देखने के बजाय शीघ्रताशीघ्र जेसीबी के कारखाना पहुंचे।

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एक प्रश्न अवश्य कौधता होगा

कि क्या मोहनदास करमचंद गांधी भारत के स्वतंत्रता के एकमात्र कारण थे? क्या भारत के स्वतंत्रता संग्राम की विरासत सिर्फ गांधी तक ही सीमित है? क्या भारत के अवधारणा को सिर्फ गांधी के चश्मे से देखा जा सकता है?

इसमें कोई संशय नहीं की मोहनदास करमचंद गांधी की भारतीय राजनीति इसके सांस्कृतिक विरासत और स्वतंत्रता के इसकी अवधारणा के सबसे महत्वपूर्ण एवं अभिन्न अंग रहे हैं। पर, भारत की राजनीतिक, सामाजिकऔरसांस्कृतिक अवधारणा सिर्फ गांधी तक ही सीमित हो ऐसा नहीं है। हम सभी को यह समझना होगा कि गांधी भारत के सबसे बड़े राजनेताओं में से एक है पर, वह कोई धार्मिक पुरुष नहीं है। ‘महात्मा’ की उपाधि उन्हें रविंद्र नाथ टैगोर से प्राप्त हुई और बदले में उन्होंने रविंद्र नाथ टैगोर को ‘गुरुजी’ के उपाधि से नवाजा। लेकिन, इस उपाधि के चक्कर में आमजन यह भूल गए गांधी एक अलौकिक धर्म पुरुष नहीं बल्कि एक विलक्षण राजनेता थे। इसी उपाधि के कारण उनको आलोचना के परिधि से बाहर कर दिया गया।

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राष्ट्र के लिए एक सीख

इसके साथ साथ उन्हें सर्वोच्चता के उस शिखर पर स्थापित कर दिया गया जिसके आगे पीछे खड़े होने का सामर्थ्य भारत के अन्य किसी भी महापुरुष में नहीं हो। गांधी जी को आलोचना से परे करना और राजनीतिक सर्वोच्चता के शिखर पर एकमात्र अधिकार सौंपना स्वयं में गांधीवाद के खिलाफ है। गांधी जी ने भारत को स्वतंत्र कराने का अथक प्रयास किया इसमें कोई दो राय नहीं है लेकिन सिर्फ गांधी जी ने ही ऐसा किया यह तथ्य विरोधाभासी है और इससे बचा जाना चाहिए भारत को चाहिए कि अपने यहां आने वाले राष्ट्राध्यक्षों, विदेशी प्रतिनिधिमंडलों और आगंतुकों को भारत के हर उस महापुरुष से परिचित कराया जाए जिसने भारत के स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों की आहुति दी है। इसके साथ साथ गांधी द्वारा की गई गलतियों को राष्ट्र के लिए एक सीख के रूप में प्रदर्शित किया जाए।

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शायद, गांधी भी ऐसा नहीं चाहेंगे की लोग उनके देश में आयें और सिर्फ उन्हे देख कर चले जाए। गांधी को सबसे बड़ी श्रद्धांजलि तो यह होगी की लोग उनके सपने का भारत देखें और इस तरह के महिमामंडन से बचें।

 

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