इन दिनों बहुभाषीय सिनेमा ने धूम मचा रखी है। नींव किसी भी भाषा में हो, परंतु अगर कथा में दम है, तो आपको इतिहास रचने से कोई नहीं रोक सकता, जैसे ‘पुष्पा’, फिर ‘रौद्रम रणम रुधिरम’ और अब ‘केजीएफ – चैप्टर 2’ ने कर दिखाया। लगभग 100-150 करोड़ के बीच इस मूवी ने मात्र दो दिन में 250 करोड़ से भी अधिक का वैश्विक कलेक्शन किया है, जिसमें से लगभग 100 करोड़ अकेले हिन्दी में डब किये गए संस्करण से आए हैं।
वहीं दूसरी तरफ बॉलीवुड पर तो मानो ग्रहण सा लग चुका है। एक के बाद सभी महत्वपूर्ण फिल्में औंधे मुंह बॉक्स ऑफिस पर गिरी है। कोविड की महामारी के पश्चात ‘सूर्यवंशी’ और ‘द कश्मीर फाइल्स’ को छोड़ दें, तो बड़े बजट की फिल्में ब्लॉकबस्टर होना तो दूर की बात, अपना बजट तक रिकवर करने में उन्हे लाले पड़ गए हैं। ‘83’ हो, ‘गंगूबाई काठियावाड़ी’ या फिर ‘बच्चन पांडे’, बड़े बड़े बॉलीवुड सितारों से सजी फिल्में आक्रामक प्रोमोशन के बाद भी बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुंह गिरी, और अब बात बॉलीवुड के अस्तित्व पर आ चुकी है।
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परंतु क्या इस दलदल से निकलने का कोई रास्ता नहीं है? क्या बॉलीवुड अब भी वापसी कर सकता है? निस्संदेह कर सकता है, और बॉलीवुड के पास अनेक अवसर है भारतीय फिल्म उद्योग में पुनः अपना खोया गौरव वापिस पाने के लिए। बस उन्हे इन निम्नलिखित बिंदुओं पर विशेष ध्यान देना होगा –
1.भारतीय सिनेमा का हिस्सा बने, उससे अलग नहीं
सर्वप्रथम बॉलीवुड को यह मानना बंद कर देना चाहिए कि हम ही हम है, बाकी सब पानी कम है। ‘बाहुबली’ की अपार सफलता के पश्चात बहुभाषीय सिनेमा ने भारतीय सिनेमा को एक नया ही रूप दिया है, जहां क्षेत्र और भाषा के बंधन से कोई वास्ता नहीं। परंतु बॉलीवुड को आज भी यही प्रतीत होता है कि भारतीय फिल्म उद्योग पर उसी का वर्चस्व है, और जब तक वह इस भ्रम से बाहर नहीं निकलेगा, उसका कुछ भला नहीं होगा।
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2.बांद्रा से वर्सोवा के बाहर भी एक दुनिया है
बॉलीवुड की एक और बड़ी बीमारी है – जो भी फिल्में निर्मित होती है, वो कभी भी पूरे भारत को ध्यान में रखकर नहीं बनाई जाती। एक फिल्म का मूल उद्देश्य यह होता है कि वह अपने दमदार कथा से गाँव के चिंटू से लेकर मेट्रो के विकी तक को सीटियाँ बजाने पर विवश कर दे। परंतु बॉलीवुड की कूप मंडूक प्रवृत्ति ऐसी है कि वह केवल मेट्रो शहरों में बसे युवाओं को आकर्षित करने हेतु अपनी फिल्में निर्मित करती है, चाहे उसके लिए भारतीयता को ही ताक पर क्यों न रखना पड़े। परंतु इसके बारे में भी विस्तार से चर्चा होगी।
3.एजेंडा ऊंचा रहे हमारा नहीं चलेगा
यदि पिछले कुछ वर्षों में कुछ सिद्ध हुआ है, तो वह यह कि आपकी फिल्म केवल अच्छे कॉन्टेन्ट और शुद्ध मनोरंजन के बल पर सफल रहती है, एजेंडावाद के लिए कोई स्थान नहीं, चाहे OTT पर या सिनेमाघरों में। 2020 से इस रीति में एक अप्रत्याशित वृद्धि देखने को मिली है, और जहां ‘शेरशाह’, ‘कौन प्रवीण तांबे’, ‘द कश्मीर फाइल्स’ जैसी फिल्मों को उनके वास्तविकता और उनके अच्छे कॉन्टेन्ट के लिए सराहा गया, तो वहीं ‘83’, ‘गंगूबाई काठियावाड़ी’ और ‘गहराइयाँ’ को उनके एजेंडावाद के पीछे विभिन्न माध्यमों सिरे से नकार दिया गया। ‘सरदार उधम’ भले ही अपने तकनीकी कौशल के लिए चर्चा में रही, परंतु उसके एजेंडावाद के लिए भी वह जनता की आलोचना से बच नहीं पाई।
4.प्रतिभा को सर्वोपरि रखें
यदि बॉलीवुड को भारतीय सिनेमा में टिकना है, तो उन्हे केवल वंशवाद के स्थान पर प्रतिभा को सम्मान देना होगा। ऐसा नहीं है कि तेलुगु, तमिल या कन्नड़ सिनेमा में कोई वंशवाद नहीं है, परंतु वहाँ ओछी हरकतों एवं एजेंडावाद के ऊपर प्रतिभा को प्राथमिकता मिलती है, जिसके कारण सम्पन्न परिवारों से आने के बाद भी अल्लू अर्जुन, एनटी रामाराव जूनियर एवं रामचरण तेजा जैसे अभिनेताओं को प्रतिभावान कलाकारों से बराबर की प्रतिस्पर्धा मिलती है। इसके अतिरिक्त नवीन राज गौड़ा उर्फ रॉकिंग स्टार यश जैसे सितारे भी हैं, जिन्होंने अपने दम पर भारतीय सिनेमा में अपनी अलग पहचान बनाई है, और एक समय पर अभेद्य माने जाने वाली खान तिकड़ी तक को दुम दबाकर भागने पर विवश कर दिया है।
5.देश की संस्कृति को सम्मान दें
बॉलीवुड को एक बात और स्पष्ट समझ लेनी चाहिए – यदि देश में रहना है, तो भारत और भारतीयता का सम्मान करना है। आप देश की संस्कृति का उपहास उड़ाकर, उसे हीन दिखाकर चंद विदेशियों, कुछ अयोग्य बुद्धिजीवियों को प्रसन्न कर सकते हैं, परंतु अपने मूल आधार, यानि अपनी जनता को क्रोधित कर आप अधिक दिनों तक नहीं टिक पाएंगे। ये वही जनता है जिसने बॉलीवुड को सर आँखों पर बिठाया था, लेकिन अपने अहंकार में चूर होकर बॉलीवुड आज उसी जनता को अपना शत्रु बना बैठा है, जिसके बिना वह कुछ भी नहीं है।
आपको क्या लगता है, ‘बाहुबली’ क्यों सफल हुई? ‘पुष्पा’ एक बहुत धमाकेदार फिल्म न होकर भी इतना प्रसिद्ध और सफल कैसे हुई? ‘RRR’ इतने विलंब और बाधाओं के बाद भी कैसे 1000 करोड़ के पार कैसे हुई? इन सबमें एक बात समान थी – इन्होंने दर्शकों का भरपूर मनोरंजन भी किया, अपनी बात भी रखी, और भारतीयता एवं भारतीय संस्कृति का मान भी रखा। यही प्रयास जब ‘तान्हाजी – द अनसंग वॉरियर’ ने किया, या हाल ही में जैसे ‘द कश्मीर फाइल्स’ ने किया, तो क्या उसने बॉक्स ऑफिस पर सफलता के झंडे नहीं गाड़े? यदि बॉलीवुड को अपना खोया गौरव पाना है, तो भले ही वह ‘तान्हाजी’ और ‘द कश्मीर फाइल्स’ को अपना स्थाई आदर्श न बनाए, परंतु कम से कम ‘बच्चन पांडे’, ‘83’ और ‘गहराइयाँ’ जैसे बीमारियों से भी बचें।
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