CJI रमन्ना की जलेबी जैसी घुमावदार बातें, कभी कृष्ण तो कभी मंत्रों पर टिप्पणी!

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Justice NV Ramana

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भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन्ना इन दिनों अपने बयानों के कारण विवादों के केंद्र में रह रहे हैं। कुछ दिनों पूर्व उन्होंने कानूनी भाषा के सरलीकरण के महत्व के बारे में चर्चा करते हुए संस्कृत मंत्रों पर एक टिप्पणी की थी जिस पर विवाद हो गया था। अब उन्होंने मध्यस्थता के महत्व पर बयान देते समय महाभारत के संदर्भ में एक वक्तव्य दिया है जो विवाद की जड़ बन गया है।

सीजेआई ने क्या टिप्पणी की थी?

भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) ने एकता नगर, नर्मदा, गुजरात में “मध्यस्थता और सूचना प्रौद्योगिकी” पर एक कार्यक्रम में बोलते हुए टिप्पणी की कि “मैं हमेशा इस पौराणिक कहानी को उद्धृत करता हूं। यह कुरुक्षेत्र युद्ध से पहले मध्यस्थता करने के लिए भगवान कृष्ण के प्रयासों की कहानी है। कल्पना कीजिए कि अगर मध्यस्थता सफल होती तो ये राज्य कैसे समृद्ध होते।”

उनके बयान को इस रूप में देखा जा रहा है कि उन्होंने मध्यस्थता की असफलता को कृष्ण की असफलता करार दिया है। मुख्य न्यायाधीश महोदय का वक्तव्य इस संदर्भ में गलत दिखायी पड़ता है कि कुरुक्षेत्र का युद्ध और उसमें सम्मिलित राज्य के विनाश का कारण भगवान कृष्ण द्वारा किए जा रहे मध्यस्थता के प्रयासों की असफलता नहीं थी बल्कि दुर्योधन का हट था। श्री कृष्ण और पांडवों ने शांति का मार्ग अपनाने के लिए संपूर्ण राज्य पर अपने अधिकार छोड़ दिए थे। दुर्योधन के हट को शांत करने के लिए पहले आधा राज्य मांगा और उसके बाद केवल 5 गांव पर स्वतंत्र शासन की मांग रखी, जबकि नीति के अनुसार संपूर्ण राज्य पर युधिष्ठिर का अधिकार था।

यह सर्वविदित तथ्य है कि दुर्योधन ने अपना हठ नहीं छोड़ा और उसने भगवान श्री कृष्ण से कहा था कि सुई की नोक के बराबर भी भूमि वह पांडवों को नहीं देगा। ऐसे में भगवान कृष्ण की सफलता की बात ही नहीं आती है।

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दुर्योधन एक दुर्बुद्धि वाला व्यक्ति था और उसे दंड मिलना आवश्यक था। महाभारत को उसके वास्तविक संदर्भ में देखें तो यह युद्ध पुरातन और संकीर्ण व्यवस्था के अंत के लिए हुआ था। यह युद्ध मनुष्यों के पापों का दंड था। भीष्म, द्रोण, धृतराष्ट्र, सभी किसी न किसी प्रकार दंडित हुए, पांचों पांडवों ने अपने पुत्रों सहित अपने प्रियजनों को खो दिया। द्रौपदी के चीरहरण के समय जो जो मौन रहे, सभी दंडित हुए। आज भी न्यायालयों में दंड विधान चलता है।

दुर्योधन और पांडवों का युद्ध केवल भूमि का विवाद नहीं, धर्म और अधर्म का युद्ध था। महाभारत का जिस प्रकार मुख्य न्यायाधीश महोदय द्वारा मूल्यांकन किया गया है ऐसा लगता है कि उन्होंने इस कहानी को केवल भूमि के विवाद से जुड़ी एक कथा समझा है।

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संस्कृत श्लोकों के संदर्भ में भी की थी टिप्पणी

पिछले दिनों संस्कृत श्लोकों के संदर्भ में भी उन्होंने ऐसी एक टिप्पणी की थी जिससे यह साबित लग रहा था कि न्यायाधीश महोदय को संस्कृत श्लोकों के संदर्भ में पूरी जानकारी नहीं है। उन्होंने न्यायालय की कानूनी भाषा के संदर्भ में टिप्पणी करते हुए कहा था “यह एक शादी में मंत्र जाप जैसा नहीं होना चाहिए, जो हम में से ज्यादातर लोगों को समझ में नहीं आता है।” ऐसा लगता है कि महोदय ने मंत्रों की शक्ति के बारे में जानकारी नहीं जुटाई है। शायद उन्हें नहीं पता कि वैज्ञानिकों का दावा है कि जब किसी मंत्र का लयबद्ध जाप किया जाता है, तो यह एक तंत्रिका-भाषाई प्रभाव पैदा करता है। मंत्र का अर्थ न जानने पर भी ऐसा प्रभाव होता है।

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मुख्य न्यायाधीश महोदय को भारत की सांस्कृतिक और उपलब्धियों पर टिप्पणी करने से बचना ही चाहिए। ऐसा हो सकता है कि उनका उद्देश्य हर बार सकारात्मक होता हो किंतु उनकी टिप्पणी नकारात्मक अर्थ के साथ सामने आती है।

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