राजनीति शास्त्र में व्यवस्था संचालन के 3 अंग होते हैं- विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। विधायिका केंद्र सरकार राज्य सरकार और पंचायती राज व्यवस्था को प्रदर्शित करती है तो वही कार्यपालिका पुलिस और प्रशासनिक तंत्र को, जबकि न्यायपालिका भारत के न्याय व्यवस्था को चिन्हित करती है। इन तीनों के बीच समन्वय, स्वायत्तता और शक्तियों का विभाजन है लोकतांत्रिक शासन का आधार है। भारत का राजनीतिक इतिहास इन तीनों के बीच सतत संघर्षरत, युद्धरत और अनवरत मतभेदों से पटा पड़ा है। किंतु, इन तीनों में से किसी एक ने जब भी बाकी बचे व्यवस्था के 2 अंगों पर अपनी सर्वोच्चता सिद्ध करने की कोशिश की है तब लोकतंत्र खतरे में पड़ा है।
उदाहरण के लिए आप इंदिरा गांधी के शासन को देख सकते हैं। इंदिरा गांधी ने जब कांग्रेस शासित विधायिका की सर्वोच्चता न्यायपालिका पर सिद्ध करने की कोशिश की तब देश में आपातकाल लगा। देश में लगने वाली आपातकाल के पीछे इंदिरा गांधी सरकार और न्यायपालिका के बीच चली आ रही सतत संघर्ष जिम्मेदार थी। शाहबानो मुद्दे पर राजीव गांधी सरकार और न्यायपालिका के बीच का संघर्ष भी यह देश देख चुका है।
परंतु, अपने पूर्ववर्ती सरकार के परंपरा को न दोहराते हुए नरेंद्र मोदी की सरकार ने न्यायपालिका के मान और सम्मान को सुनिश्चित करने का अथक प्रयास किया है। चाहे राम मंदिर का मुद्दा हो या फिर किसान आंदोलन, चाहे नागरिकता संशोधन का देशव्यापी विवाद हो या फिर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन पर रोक, नरेंद्र मोदी की सरकार ने हरसंभव प्रयास किया है कि न्यायपालिका की श्रेष्ठता, स्वायत्तता, सर्वोच्चता और शक्तियों को पूरा सम्मान देते हुए संरक्षित और संवर्धित किया जाए, लेकिन इसी बीच अब जहांगीरपुरी हिंसा के बाद इलाके में चले बुलडोजर पर सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप कई तरह के संभावनाओं को जन्म दे रहा है। लेकिन इसी बीच अब जहांगीरपुरी हिंसा के बाद इलाके में चले बुलडोजर पर सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप कई तरह के संभावनाओं को जन्म दे रहा है।
और पढ़ें: अब तो दिल्ली पुलिस कमिश्नर ने भी बोल दिया कि जहांगीरपुरी दंगे पर ‘झांसा’ दे रहे हैं लिबरल्स
SC ने लगाया अभियान पर विराम
दिल्ली के जहांगीरपुरी इलाके में पिछले हफ्ते हनुमान जन्मोत्सव पर हिंदू समुदाय के खिलाफ हिंसा भड़कने के बाद उत्तरी दिल्ली नगर निगम (एनडीएमसी) ने बुधवार 20 अप्रैल को इलाके में हुए अवैध अतिक्रमण से छुटकारा पाने और दंगाइयों पर कार्रवाई की दृष्टि से पुलिस की कड़ी मौजूदगी के बीच दो दिवसीय विध्वंस अभियान शुरू किया। अगर सफलता की दृष्टि से बुलडोजर कार्रवाई का आकलन करें तो योगी, शिवराज, भूपेंद्र और हेमंत सरकार ने इसकी श्रेष्ठता अपने-अपने राज्यों में पहले ही सिद्ध कर दी है। हालांकि, अभियान के कुछ घंटों बाद ही सुप्रीम कोर्ट ने अधिकारियों को यथास्थिति बनाए रखने का आदेश देते हुए अभियान पर रोक लगा दी।
भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) एनवी रमना की अध्यक्षता वाली पीठ ने जमीयत उलमा-ए-हिंद द्वारा इस बुलडोजर कार्रवाई के खिलाफ याचिका की सुनवाई करते हुए टिप्पणी की- “यथास्थिति बनाए रखें। कल उपयुक्त पीठ के समक्ष इस वाद को सूचीबद्ध करें।“ जब कोर्ट में मामले की सुनवाई चल रही थी, तब तोड़फोड़ का अभियान जारी था, जिसके वीडियो सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर वायरल हो गए हैं और उनमें एनडीएमसी के अधिकारियों को फुटपाथ और सड़कों पर जगह घेरने वाली अवैध दुकानों और संरचनाओं को तोड़ने के लिए बुलडोजर को निर्देशित करते हुए देखा जा सकता है।
वृंदा करात ने प्रवर्तक बनने का प्रयास किया
सर्वोच्च न्यायालय के सह पर माकपा पोलित ब्यूरो की सदस्य वृंदा करात जहांगीरपुरी पहुंचे और अधिकारियों से तुरंत विध्वंस प्रक्रिया को रोकने के लिए कहकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लागू करने का प्रयास किया। हालांकि, दिल्ली पुलिस ने विवादास्पद कम्युनिस्ट नेता से विध्वंस स्थल खाली करने और कोई अराजकता पैदा नहीं करने को कहा। एनडीएमसी सिर्फ फुटपाथ और सड़कों को साफ करने की कोशिश कर रही थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस विववाद को सूचीबद्ध करने का आदेश दे मामले को लटकाने का प्रयास किया है। इससे इसकी गंभीरता कम होगी और अतिक्रमण करनेवालों तथा दंगाइयों को बल मिलेगा। इतना ही नही मुस्लिम शोषण का तर्क देकर याचिकाकर्ताओं ने एक बार फिर इसे सांप्रदायिक मोड़ दे दिया है। एनडीएमसी के अधिकारियों ने कहा, “दो दिवसीय अभियान बुधवार दोपहर के आसपास शुरू हुआ है। यह कार्य नगर निगम की अतिक्रमण विरोधी शाखा कर रही है। यह केवल अवैध अतिक्रमण के फुटपाथ, फुटपाथ और सड़कों को साफ करने के लिए है। इलाके (जहांगीरपुरी) में एक कबाड़ का बाजार है और ज्यादातर फुटपाथ-सड़कों पर दुकान स्थापित कर अवैध रूप से कब्जा कर लिया गया है।”
न्यायपालिका और विधायिका के बीच की रेखा को धुंधला कर रहा SC?
पूरे मामले के बीच सुप्रीम कोर्ट की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े हो रहे हैं। जब लाखों मामले लंबित हों और याचिकाकर्ताओं को सिर्फ तारीखें मिलती हों, ऐसे समय में सांप्रदायिक शोषण के आधार पर एक बार फिर मुस्लिम समुदाय को आपातकालीन आधार पर सुनवाई की अनुमति देकर दंगाइयों का मनोबल बढ़ाने का काम हुआ है। इन सबसे ऊपर, उनके मामले की सुनवाई सिर्फ सीजेआई ने की। निश्चित रूप से, CJI एक छोटे से अतिक्रमण अभियान से अधिक इस सांप्रदायिक रंग के कारण दबाव में थे! हाल के दिनों में एक पैटर्न रहा है जब देश भर की अदालतों ने दंगाइयों, आतंकवादियों या उनकी संपत्ति के मामलों की सुनवाई के लिए अपने दरवाजे खोलकर ऐसे असामाजिक तत्वों का मनोबल बढ़ाया है।
और पढ़ें: जहांगीरपुरी के दंगाइयों की ढिठाई, दंगा भी फैलाएंगे और विक्टिम कार्ड भी खेलेंगे!
विधायिका और कार्यपालिका के कामों में न्यायिक सक्रियता को रोकने की जरूरत
इसके अलावा, आदेश पारित करने के बाद भी सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को अपने फैसले के बारे में उचित चैनलों के माध्यम से पहल नहीं की। संचार में देरी के कारण जमीन पर मौजूद अधिकारी भ्रमित रहें। एनडीएमसी आयुक्त राजा इकबाल सिंह ने कहा कि नागरिक निकाय को आदेश की एक भी प्रति नहीं मिली है और इसलिए, वो अपनी कार्रवाई जारी रखेगी। गौरतलब है कि किसी भी दंगे के सबसे बड़े भुक्तभोगी देश के जिम्मेदार नागरिक होते हैं। भले ही दंगों के कारण उनकी निजी संपत्ति और स्वास्थ्य को कोई हानि न पहुंचे, पर इससे उनके मन में सुरक्षा को लेकर सवाल खड़े होते हैं।
सार्वजनिक संपत्ति को हुए नुकसान से उनके कर को क्षति पहुंचती है और उनका दैनिक कामकाज बाधित होता है, हाल के दिनों में देश ने ऐसे कई निरंकुश विरोध प्रदर्शन और दंगों का सामना किया है। कभी किसान आंदोलन तो कभी नागरिकता संशोधन, कभी शाहीन बाग तो कभी सिंधु बॉर्डर, इन सभी मामलों में सर्वोच्च न्यायालय की निष्क्रियता और लेटलतीफी ने इनका मनोबल बढ़ाया है। इसी कारण ऐसे दंगाइयों पर सख्त कार्रवाई को जनता का समर्थन और योगी सरकार का पुनः निर्वाचन इसी तथ्य को प्रदर्शित एवं प्रतिबिंबित करता है।
परंतु, उत्तर प्रदेश के मामले में भी न्यायालय ने कार्रवाई में अड़ंगा लगाते हुए सार्वजनिक स्थानों पर लगी दंगाइयों के पोस्टर को हटाने का निर्देश दिया था। तकनीकी और कानूनी रूप से भले ही यह निर्णय एक सार्थक तर्क-वितर्क की मांग कर सकता है। लेकिन, भावनात्मक स्तर पर ऐसे निर्णयों को जनता गलत मानती है। जनता का विश्वास पाने के लिए भाजपा जैसे राजनीतिक दल दंगाइयों पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के उलट प्रशासनिक कार्रवाई करने के लिए बाध्य हैं और यही वो रास्ता है जो सरकार और न्यायिक तंत्र के बीच अनवरत संघर्ष की संभावना को जन्म देता है। सरकार या विधायिका के दैनिक कामकाज में दखल देने का सुप्रीम कोर्ट का फैसला एक बार फिर न्यायपालिका की व्यापक शक्तियों पर सवाल खड़ा करता है। पिछले कुछ वर्षों में भारतीय न्यायपालिका ने बार-बार न्यायिक दुस्साहसवाद को अपनाया है। किसी भी मामले में न्यायपालिका द्वारा बार-बार हस्तक्षेप संविधान की अन्य दो शाखाओं के कामकाज को कमजोर करता है।
और पढ़ें: मेवात बनने की राह पर चल पड़ा है दिल्ली का जहांगीरपुरी