जवाहरलाल नेहरू को ‘अन-इंडियन’ मानते हैं नीतीश बाबू!

क्या बकलोली के पर्याय बन चुके हैं नीतीश कुमार?

शराब बिहार

सौजन्य से गूगल

बिहार की सत्ता पर विराजमान नीतीश कुमार अपने बयानों के लिए सुर्खियों में बने रहते हैं लेकिन इस बार उनका एक भाषण चर्चाओं के केंद्र में है। दरअसल,नीतीश कुमार इन दिनों बहुत व्यथा में दिख रहे हैं और उनकी व्यथा है जनता में उनकी लोकप्रियता का कम होना और जिस पार्टी को बिहार में नंबर एक की पार्टी का दर्जा प्राप्त था आज वह तीसरे पायदान पर खिसक चुकी है और रही सही कसर उनके शराबबंदी के उठाए कदम के फ्लॉप होने से पूरी हो गई है जिसके कारण वो विपक्षी पार्टी सहित सुप्रीम कोर्ट से भी लताड़ खा चुके हैं। दरअसल, नीतीश कुमार लगातार जहरीली शराब की घटनाओं को लेकर आलोचनाओं को झेल रहे हैं।

इसी बीच, उन्होंने एक व्यापक बयान दिया है कि महात्मा गांधी ने शराब के सेवन का विरोध किया था और जो लोग उनके सिद्धांतों के खिलाफ जाते हैं, वे “महापापी और महाअयोग्य ” हैं। उन्होंने कहा, “मैं इन लोगों को भारतीय नहीं मानता।

नीतीश कुमार के इस कथन से लगता है कि वो इस बात से अनभिज्ञ है कि शराब पीने का राष्ट्रीयता या राष्ट्रवाद से कोई लेना-देना नहीं है। अगर कोई शराब पीता है, तो वह अपनी भारतीयता या राष्ट्रवाद नहीं खोता है। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी युवावस्था में शराब पी थी, हालांकि उन्होंने देश के प्रधानमंत्री बनने तक इसे छोड़ दिया था। अब, शराब का सेवन करने वालों को ‘अन-इंडियन’ कहने के तर्क से, देश के पहले प्रधानमंत्री की भारतीयता पर ही सवाल खड़ा हो जाता है। अपने इस बयान से नीतीश कुमार ने नेहरू सहित कई नेताओं को लपेट लिया है।

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नीतीश कुमार के बयान पर सवाल

अपने सम्बोधन में बिहार के सीएम ने यह भी कहा कि लोग यह जानते हुए भी कि शराब का सेवन करना हानिकारक है, फिर भी लोग इसका सेवन करते हैं। इसलिए, वे शराब से होने वाले दुष्परिणामों के लिए जिम्मेदार हैं न कि राज्य सरकार। नीतीश कुमार ने आगे कहा, “यह उनकी गलती है कुछ लोग यह जानकर भी शराब का सेवन करते हैं कि यह जहरीली हो सकती है। इतना कुछ कह कर नीतीश जी अपने सरकार की कमियां छुपाने की कोशिश तो कर गए पर अपनी कानून व्यवस्था के लचर हालत पर बोल नहीं पाए। नीतीश कुमार के निर्णय के कारण ही राज्य में पंचायत स्तर तक शराब की दुकानें खुल गई थीं। उन्होंने यह टिप्पणी बिहार विधानसभा द्वारा पहली बार अपराधियों के लिए बिहार में शराब प्रतिबंध को कम करने के लिए एक संशोधन विधेयक पारित करने के बाद की।

शराबबंदी से पहले बिहार में शराब की करीब छह हजार दुकानें थीं और सरकार को इससे करीब डेढ़ हजार करोड़ रुपये का राजस्व आता था। आपको बता दें कि अप्रैल, 2016 को बिहार में शराब के सेवन और व्यापार करने पर प्रतिबंध लग गया। गौरतलब है कि शराब का मुद्दा बिहार राज्य में एक राजनीतिक मुद्दे में बदल गया है और शराब से हुई कई घटनाएं सामने आई हैं जिसमें राज्य में 2021 के अंतिम छह महीनों में 60 मौतों का दावा किया गया था।

शराब की खपत को एक दंडात्मक कानून द्वारा निषिद्ध होने के बजाय एक व्यक्तिगत पसंद और व्यक्तिगत स्वायत्तता के एक हिस्से के रूप में अधिक देखा जाना चाहिए। आप पूछ सकते हैं क्यों? खैर, कई अन्य चीजों की तरह जो मानव स्वास्थ्य के लिए उपयुक्त नहीं हैं, पीना या न पीना अनिवार्य रूप से पसंद का मामला है। हां, सरकार हमेशा जागरूकता पैदा कर सकती है और बता सकती है कि शराब का सेवन स्वास्थ्य के लिए कितना हानिकारक है। यह शराब और अन्य नशीले पदार्थों की बढ़ती खपत के खिलाफ लड़ाई को और अधिक प्रभावी और सार्थक बनाता है।

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प्रतिबंध लागू रहने पर ये है कठिनाई

शराबबंदी लागू करना किसी भी प्रशासन के लिए मुश्किल होता है। जब किसी लोकप्रिय उत्पाद पर प्रतिबंध लगाया जाता है, तो इससे काला बाजार और शराब माफिया का उदय होता है। बेरोजगार युवक व कई छात्र पड़ोसी राज्यों से शराब की तस्करी कर आसानी से पैसे कमाने के बारे में सोंचने लगते हैं।

ज्ञात हो कि नकली शराब उद्योग बिहार में पूरी तरह से पनप चूका है। बिहार में, पिछले कई वर्षों से  शराबबंदी लागू होने के बाद से देसी शराब या अत्यधिक औद्योगिक शराब के सेवन से सैकड़ों लोगों की मौत हो गई जिसका प्रमुख कारण है लोगों का कम गुणवत्ता वाली शराब का सेवन करना।

लेकिन बिहार सरकार को शराबबंदी से जो नुकसान होता है, वह राजस्व का एक बड़ा स्रोत है। चूंकि उत्पाद को अवैध बना दिया गया है, इसलिए सरकार उस पर कर नहीं लगा सकती है। इसके अलावा, शराबबंदी का पर्यटन की संभावनाओं पर हमेशा नकारात्मक प्रभाव पड़ा है और बिहार जैसे आर्थिक रूप से कमजोर राज्य के लिए, भारत की बढ़ती पर्यटन संभावनाओं का लाभ नहीं उठाना भी दुखद होता है।

इस मामले में विपक्ष ने कहा है कि बिहार में शराब पर प्रतिबंध केवल कागजों पर ही रह गया है, जबकि भाजपा ने आरोप लगाया था कि अधिकारी शराबबंदी कानून को सख्ती से लागू नहीं कर रहे हैं और इसका इस्तेमाल लोगों से पैसे वसूलने के लिए कर रहे हैं।

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सुप्रीम कोर्ट ने क्या टिप्पणी की थी?

सुप्रीम कोर्ट ने भी पिछले साल टिप्पणी की थी कि शराब कानून बिहार में न्यायपालिका के कामकाज को प्रभावित कर रहा है, पटना उच्च न्यायालय के 14-15 न्यायाधीश केवल बिहार निषेध और उत्पाद शुल्क अधिनियम के तहत की गई गिरफ्तारी से संबंधित जमानत याचिकाओं पर सुनवाई कर रहे हैं जिससे अन्य केस पर ध्यान देने के लिए न्यायाधीश के पास समय पर्याप्त नहीं मिल रहा है।

कुल मिलाकर शराबबंदी का फैसले से बिहार को फायदा कम और नुकसान अधिक झेलना पड़ा है ,बेहतर होगा कि नीतीश कुमार अपने फैसले पर दोबारा गौर करें और शराब बंदी कानून को निरस्त करें ताकि नकली शराब गिरोह पर नकेल कसा जा सके और इससे बिहार के राजस्व में भी प्रगति होगी जिससे रोजगार के द्वार भी खुलेंगे

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