‘शरणार्थियों का कुटुंब’ होने की सजा राजनीतिक और आर्थिक रूप से भुगतता है भारत

शरणार्थियों को शरण देने से भारत को झेलना पड़ सकता है नुकसान

SOURCE- TFIPOST

भारतीय परंपरा वसुधैव कुटुंबकम के सिद्धांत पर विश्वास रखती है किंतु आधुनिक समय में देशों को बांटने के लिए उनके बीच निर्धारित सीमा रेखा बनाई जा चुकी है। दो देशों के लोगों के रहन सहन, उनकी परंपराओं, उनके व्यवहार सभी बहुत अलग होते हैं। इसलिए वर्तमान समय में वसुधैव कुटुंबकम का सिद्धांत एक आदर्शवादी बात है जो यथार्थ में अपनाई जाए तो अपने देश के लिए मुसीबत खड़ी कर सकती है।

आर्थिक तबाही के चलते फिर से पलायन

हमारे पड़ोस में एक विशाल आर्थिक संकट खड़ा हुआ है। श्रीलंका की अर्थव्यवस्था धराशाई हो गई है और श्रीलंका के लोग भारत की ओर उम्मीद से देख रहे हैं। श्रीलंका की सरकार ने भारत सरकार से सहायता मांगी है लेकिन श्रीलंका की सरकार के अतिरिक्त वहां के लोग भी भारत से सहयोग के लिए पंक्ति बंद हो चुके हैं। वर्तमान में भारत एक लाख से अधिक शरणार्थियों को भारतीयों के टैक्स से चलने वाले रिफ्यूजी कैंप में शरण दिए हुए हैं।

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इसके अलावा, 34,000 श्रीलंकाई नागरिक इन शिविरों के बाहर रह रहे हैं और वस्तुतः एक भारतीय नागरिक के समान अधिकारों का आनंद ले रहे हैं। श्रीलंका के आर्थिक संकट के कारण श्रीलंकाई शरणार्थियों की संख्या जल्द ही बढ़ सकती है। यह भी संभव है कि भारत इन शरणार्थियों को स्वीकार भी कर ले। निश्चित रूप से शरणार्थियों को शरण देना अच्छा कार्य है किंतु उद्देश्य कितने भी अच्छे हो शरणार्थियों के आने के नकारात्मक प्रभाव को कम नहीं करेंगे।

जब शरणार्थी भारत आते हैं, तो उन्हें स्थानीय सरकारों से सहायता प्राप्त होती है।  इन सहायता में बिजली और पानी की मुफ्त पहुंच शामिल है। शरणार्थियों और घुसपैठियों के कारण कई राज्यों के मूल निवासियों की जनसंख्या प्रतिशत में कमी आई है। इसके अतिरिक्त शरणार्थियों और घुसपैठियों द्वारा कम वेतन पर श्रम उपलब्ध कराया जाता है जिस कारण स्थानीय निवासियों के लिए प्रतिस्पर्धा बढ़ जाती है।

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शरणार्थी स्थानीय आबादी को प्रभावित करते हैं

ऐसा नहीं है कि शरणार्थियों को शरण देने वाले देश के लिए फंड उपलब्ध कराने हेतु अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई व्यवस्था नहीं है। जो देश शरणार्थियों को शरण देता है संयुक्त राष्ट्र द्वारा उसे फंड देने का प्रावधान है। हालांकि इस फंड को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दान प्राप्त नहीं हो रहा है। 2018 में वैश्विक स्तर पर शरणार्थियों के लिए आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध कराने हेतु 25 बिलियन डॉलर की आवश्यकता थी जबकि संयुक्त राष्ट्र के फंड में दान करने वाले देशों द्वारा इस धनराशि का केवल 56% फंड उपलब्ध कराया गया। शेष 44% फंड उन्हीं देशों द्वारा व्यवस्थित किया गया जिनके देश में शरणार्थियों ने शरण ले रखी है।

भारत की बात करें तो हमारे यहां पहले ही बांग्लादेश, अफगानिस्तान और पाकिस्तान से भगाए गए हिंदू तथा अन्य धर्मावलंबी शरण लिए हुए हैं। इसके अतिरिक्त तिब्बत से आए शरणार्थी भी रह रहे हैं। वहीं बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठिए भारतीयों के संसाधनों पर कब्जा जमाने के लिए तैयार बैठे हैं। ऐसे भी श्रीलंका से अतिरिक्त शरणार्थी लेकर भारत अपनी अर्थव्यवस्था पर दबाव नहीं बढ़ा सकता।

आर्थिक पक्ष के अतिरिक्त यह मनोवैज्ञानिक और सामाजिक रूप से भी संकट पैदा करेगा। शरणार्थी अपने साथ अपने रीति रिवाज और सांस्कृतिक भिन्नता भी लाते हैं, विभिन्नता भी एक अच्छा विचार है, लेकिन प्रायः यह भिन्नता पहले से मौजूद आर्थिक टकराव को और विध्वंसकारी बनाती है। समाज में नृजातीय भेदभाव हिंसा का स्वरूप लेते हैं।

शरणार्थियों का कोई व्यवस्थित आंकड़ा एवं जानकारी स्थानीय प्रशासन के पास नहीं होती है। ना ही स्थानीय लोगों को उनकी पहचान होती है। आर्थिक विपन्नता के कारण शरणार्थियों द्वारा आपराधिक गतिविधियों में भागीदारी भी देखने को मिलती है। ऐसा नहीं है कि सभी शरणार्थी अपराधी होते हैं, भारत में तिब्बती शरणार्थी के रूप में रहने वाले लोग अत्यंत शांतिप्रिय हैं, दूसरी ओर प्रायः ऐसा देखा गया है कि बांग्लादेश से आए घुसपैठिए किसी न किसी आपराधिक गतिविधि में लिप्त पाए जाते हैं। ऐसे में किसी भी देश से शरणार्थियों को शरण देने से पूर्व उनकी आपराधिक प्रवृत्ति के बारे में पूरी जानकारी होनी चाहिए।

कहा जा सकता है कि शरणार्थियों का आगमन ना केवल सरकार के लिए अभी तो स्थानीय लोगों और स्थानीय प्रशासन के लिए भी चिंता का विषय बन सकता है। ऐसे में श्रीलंका के शरणार्थियों को भारत में स्वीकार करने से पूर्व भली प्रकार विचार करना आवश्यक है।

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