तमाशा बनकर रह गया है संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद

ज्ञानबहादुर UNHRC का सारा ज्ञान मिट्टी में मिल चुका है

सौजन्य- brookings

दूसरों को उपदेश देना जितना सरल है उससे अधिक कठिन है उसे अपने स्तर  पर अमल में लाना। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद भी वही संस्था है जो ज्ञान देती है पर उसी ज्ञान को खुद के लिए अमल में लाने पर उसकी घिग्घी बंध जाती है। जिसके नाम में ही मानवाधिकार हो जब वो अपने दो मुंहे चेहरे से दुनियाभर में उपदेश देता है तो ज्ञानबहादुर बनने के भरसक प्रयास धूल चाट जाते हैं।

यह विडंबना ही है कि संयुक्त राष्ट्र जो लोकतंत्र के लिए प्रतिबद्ध दिखाई देने के दावे करता है वो दुनिया के सबसे अलोकतांत्रिक और भ्रष्ट संस्थानों में से एक है। इसका सबसे पहला उदाहरण हम सभी ने कोरोनाकाल में देखा जहां विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) जो संयुक्त राष्ट्र की वो एजेंसी है जिसने पूरे विश्व को कोरोना के प्रकोप से बचाने के बजाय गंभीर परिणामों के साथ की महामारी में डुबो दिया, मात्र इसलिए कि वह कुछ चीनीयों को बचाना चाहता था।

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रूस को परिषद से हटाकर क्या साबित किया?

ऐसा ही संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद निकाय ने रूस को परिषद से हटाकर दिखा दिया है कि यह एक ऐसे संगठन का दिखावा है जो वैश्विक मानचित्र पर कोई यथार्थवादी और व्यावहारिक उद्देश्य नहीं रखता है। इसका एकमात्र उद्देश्य अमेरिका और चीन सरीके देशों का महिमामंडन करना और उन्हें बाप-बाप कहना है।

दरअसल, संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA) ने गुरुवार को यूक्रेन के साथ चल रहे सशस्त्र संघर्ष के बीच रूस को मानवाधिकार परिषद से निलंबित कर दिया। विधानसभा के 193 सदस्यों में से 93 ने निलंबन के पक्ष में मतदान किया, जबकि 24 ने इसके खिलाफ और 58 ने भाग नहीं लिया – जिसमें भारत भी शामिल था। भारत के अलावा, मतदान से दूर रहने वाले कुछ प्रमुख सदस्य राज्यों में ब्राजील, मिस्र, मैक्सिको, पाकिस्तान, सऊदी अरब, दक्षिण अफ्रीका आदि शामिल हैं। रूस के साथ आने वाले राष्ट्रों में बेलारूस, चीन, उत्तर कोरिया, ईरान, कजाकिस्तान आदि शामिल हैं।

रूसयूक्रेन विवाद पर तटस्थ रहा है भारत का रुख

भारत का रुख रूस-यूक्रेन विवाद पर तटस्थ रहा है और आगे भी रहेगा। संयुक्त राष्ट्र में भारत के प्रतिनिधि, राजदूत टीएस तिरुमूर्ति ने भारत के मतदान से दूर रहने के कारणों के बारे में स्पष्टीकरण देते हुए बताया कि, “यूक्रेनी संघर्ष की शुरुआत से ही, भारत शांति, संवाद और कूटनीति के माध्यम को आगे बढ़ाने की बात के लिए खड़ा रहा है। हम मानते हैं कि रक्त बहाकर और बेगुनाहों की जान की कीमत पर कोई समाधान नहीं निकाला जा सकता है।”

तिरुमूर्ति ने आगे कहा, “अगर भारत ने किसी पक्ष को चुना है तो वह है शांति का पक्ष और यह हिंसा के तत्काल अंत के लिए है। हम बिगड़ती स्थिति पर गहराई से चिंतित रहना जारी रखते हैं और सभी शत्रुओं को समाप्त करने के अपने आह्वान को दोहराते हैं। जब निर्दोष मानव जीवन दांव पर लगा हो तो कूटनीति ही एकमात्र व्यवहार्य विकल्प के रूप में प्रबल होनी चाहिए।”

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कथित ट्रैक रिकॉर्ड पर एक नज़र डालनी चाहिए

यूएनएचआरसी से रूस की अस्वीकृति पर चर्चा करते समय, यह प्रासंगिक है कि पिछले वर्षों में एजेंसी के कथित ट्रैक रिकॉर्ड पर अवश्य नज़र डालनी चाहिए।

पिछले कुछ वर्षों में, UNHRC ने थोक के भाव में विभिन्न देशों को अपनी सदस्यता बांटी हैं। डेढ़ सौ रुपया देगा वाले उस पाकिस्तान को भी सदस्यता देने में UNHRC ने क्षणभर नहीं लगाया, बावजूद इसके कि आतंक को लेकर वैश्विक रूप से कट्टरपंथ से देशों को बर्बाद करने की चाह रखने वाले पाकिस्तान ने अनगिनत ऐसे कारनामे किये हैं जिसके सामने रूस-यूक्रेन विवाद तो कुछ भी नहीं है, पर चूंकि अमेरिका जैसे देशों का डंडा और दबाव और वित्तपोषण ही ऐसे परिषदों का सहारा है तो लगे पड़े हैं धड़ल्ले से महिमामंडन करने में। कश्मीर पर पाकिस्तान समर्थक रिपोर्ट प्रकाशित करने से लेकर वेनेजुएला जैसे क्यूबा को सीट देने तक, जहां निकोलस मादुरो के शासन में मानवाधिकारों का हनन एक नियमित घटना है, UNHRC ने अपनी सारी विश्वसनीयता खो दी है।

हालांकि, नीचता की पराकाष्ठा तब बढ़ी जब 2020 में UNHRC ने चीन को बेशर्मी से सदस्य का दर्जा दिया। चीन जो, उइगर मुसलमानों के जातीय नरसंहार का आरोपी है, जो वर्तमान में झिंजियांग प्रांत के क्रूर और बर्बर एकाग्रता शिविरों में बंद हैं, UNHRC को उससे कोई सरोकार नहीं है। ऐसे दोहरे मानदंडों ने ही WHO, UN और UNHRC के औचित्य और प्रामाणिकता को ठंडे बस्ते में डाल दिया है।

भारत के कुख्यात पड़ोसी, आतंक निर्माता पाकिस्तान को भी 2021 में UNHRC में तीन साल का विस्तार मिला है था। इस प्रकार, यदि वह किसी संगठन के नाकारेपन और दोहरे चरित्र को नहीं दिखाता है, तो क्या ही होगा।

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पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प का क्या रुख रहा है?

एक घटना पूर्व में और हुई थी जब पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने UNHRC के असल रूप को समझा और 2018 में तत्कालीन-यूएन के साथ इसे छोड़ दिया। राजदूत निक्की हेली ने परिषद को “मानवाधिकारों के हनन करने वालों का रक्षक, और राजनीतिक पूर्वाग्रह का एक सेसपूल” कहा। हालांकि, डेमोक्रेट अध्यक्ष जो बाइडेन के सत्ता में आने के बाद, वाशिंगटन 2021 में संगठन में शामिल हो गया।

वर्तमान रूस-यूक्रेन संघर्ष से  यह पता चलता है कि कोई भी कभी भी ऐसी परिस्थिति में आ सकता है। ऐसे में UNHRC द्वारा एकतरफा फैसलों को लेने से लेकर एकमुश्त ढंग से एक ही पक्ष खलनायक के रूप में चित्रित करना, बिना,संघर्ष के ग्रे क्षेत्रों की परवाह किए बगैर ऐसा करना घातक है। बावजूद इसके कि कीव से कई रिपोर्टें पहले ही सामने आ चुकी हैं, जिसमें बताया गया है कि कैसे यूक्रेनी सेना रूसी सैनिकों को काट रही है, जिनेवा सम्मेलन की बातों को दरकिनार कर कचड़े  में फेंक रही है।

इस प्रकार, यदि यूएनएचआरसी को तटस्थता बनाए रखना था तो उसे यूक्रेन को भी बाहर कर देना चाहिए था। हालांकि, चूंकि हमने पहले ही स्थापित कर दिया है कि UNHRC एक दंतहीन और असहाय संगठन है, इससे वास्तव में कोई फर्क नहीं पड़ता कि क्रेमलिन इसके सदस्य के रूप में बना रहता है या नहीं।

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