अहिल्याबाई होल्कर– भारत के सांस्कृतिक उद्धार में जिनका अतुलनीय योगदान है

वामपंथियो की सोच पर अहिल्याबाई होल्कर करारा तमाचा हैं !

अहिल्याबाई होल्कर की प्रतिमा

Source- TFIPOST.in

निरंतर हमें वामपंथियों ने अपमानित करने हेतु हमारी संस्कृति को पितृसत्तात्मक यानि patriarchal एवं रूढ़िवादी, एवं अंधविश्वास से परिपूर्ण ठहराने का परिपूर्ण, भले ही खुद में लाख कमियाँ छुपी हो। परंतु उन्हे निरुत्तर करने के लिए हमारे पास अधिकतम ठोस तर्कों और उदाहरणों की ‘कमी’ होती थी। ऐसा नहीं था कि हमारे पास ऐसे लोग नहीं थे, परंतु उनके बारे में हमें कभी आभास ही नहीं था, और ऐसी ही एक वीरांगना थी अहिल्याबाई होल्कर, जो वामपंथियों के खोखले इतिहास को धाराशायी करने के लिए अपने आप में पर्याप्त है। इंदौर प्रांत की सूबेदारणी के रूप में प्रसिद्ध इस वीरांगना का जन्म आज ही के दिन यानि 31 मई को 1725 में हिंदवी स्वराज्य के चौंडी ग्राम में हुआ था, जो वर्तमान महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में स्थित है। इनके पिता थे मानकोजी शिंदे और इनकी माँ थी सुशीला शिंदे, जो एक धनाढ्य ढाँगर पाटिल परिवार, यानि गौपालक परिवार से संबंध रखते थे।

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अहिल्याबाई होल्कर ने तोड़ा मिथक

वामपंथी आरोप लगाते हैं कि महिलाओं को प्राचीन और मध्यकालीन भारत में शिक्षा से वंचित रखा जाता था, परंतु इसके ठीक उलट अहिल्याबाई होल्कर के शिक्षा पर काफी महत्व दिया। यूं तो उनका विवाह 8 वर्ष की आयु में ही तय हो गया, पर उनके ससुर, मल्हार राव होल्कर ने उनकी प्रखर बुद्धि और उनके ओजस्वी व्यक्तित्व को परख लिया था, और अपनी धर्मपत्नी गौतमा बाई के साथ मिलकर उन्हे राजनीति, प्रशासन, लेखन, खाता इत्यादि में प्रशिक्षण दिया। ये वह समय था जब हिंदवी स्वराज्य सूर्य के समान शिखर की ओर अग्रसर था। पेशवा बाजीराव भले ही स्वर्गलोक को प्रस्थान कर चुके थे, परंतु उनके पुत्रों पेशवा बालाजी बाजीराव और रघुनाथ राव ने उनके स्वप्न को साकार करने के लिए कमर कस ली, जिसमें मल्हार राव होल्कर भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे। उनका पारिवारिक जीवन भी सुख से परिपूर्ण था, और ऐसा लगा कि मानो अब किसी चीज़ की कमी नहीं थी, कि तभी अचानक से दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। एक युद्ध अभियान के समय शत्रुओं के तोप का एक गोला अहिल्याबाई होल्कर के पति, खांडेराव होल्कर को लगा, और वे वीरगति को प्राप्त हुए।

यूं तो मराठों में ये कभी प्रथा न थी, और न ही अहिल्याबाई होल्कर इसके लिए बाध्य थी, परंतु खांडेराव की मृत्यु का वियोग वह न सह पाई। वह सती होने को तैयार हो गई, परंतु मल्हार राव इसके लिए तैयार न थे, और बड़ी कठिनाई से उन्होंने अहिल्याबाई को सती होने से रोका। तद्पश्चात मल्हारराव ने अपनी बहू को अपने पुत्र के रूप में पाला पोसा, और युद्धकला से राजनीति तक में प्रशिक्षित किया। फिर आई परीक्षा की घड़ी, 1761। ये वह समय था जब पानीपत के युद्ध के कारण हिंदवी स्वराज्य के शौर्य को क्षति पहुंची थी, और पेशवा बालाजी बाजीराव, सदाशिवराव बहु एवं विश्वासराव के असामयिक मृत्यु के कारण मराठा समुदाय के समक्ष कुशल नेतृत्व का अभाव उत्पन्न हो चुका था। स्वयं मल्हार राव होल्कर भी अब उस योग्य न थे, जैसे वे पहले थे, और पानीपत के युद्ध ने उन्हे शारीरिक और मानसिक रूप से ऐसे घाव दिए थे जिससे वे फिर नहीं ऊबर पाए। ऐसे में 1766 में उनके निधन पर इंदौर के प्रांत का शासन उनके हाथ में आ गया।

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भारत-भर में प्रसिद्ध तीर्थों और मन्दिर को नई पहचान दी

यह वो भी समय था, जब हिंदवी स्वराज्य के पेशवा माधवराव थे, जो किशोरावस्था में ही पेशवा बनाए गए थे, और जिन्हे भारत को आंतरिक, एवं बाहरी, दोनों प्रकार के शत्रुओं से बचाना था। ऐसे में उनकी सहायता की तीन प्रमुख योद्धाओं ने – नाना फड़नवीस, जिन्होंने प्रशासन के साथ-साथ रघुनाथ राव जैसे कुलद्रोहियों से हिंदवी स्वराज्य की रक्षा की, महादजी शिंदे, जिन्होंने सैन्यबल को असीमित शक्ति प्रदान की, और अहिल्याबाई होल्कर, जिन्होंने शस्त्र और शास्त्र, दोनों ही प्रकार से हिंदवी स्वराज्य को एक नई ऊर्जा और दिशा प्रदान की। ये अहिल्याबाई होल्कर ही थी, जिन्होंने भारत के अनेकों मंदिरों और धर्मशालाओं का सांस्कृतिक पुनरुद्धार किया। आज जिस काशी विश्वनाथ मंदिर के भव्य परिसर का जीर्णोद्धार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रशासन ने करवाया, उसकी नींव इन्होंने ही रखी थी।

इसके अतिरिक्त अहिल्याबाई ने अपने राज्य की सीमाओं के बाहर भारत-भर के प्रसिद्ध तीर्थों और स्थानों में मन्दिर बनवाए, घाट बँधवाए, कुओं और बावड़ियों का निर्माण किया, मार्ग बनवाए-सुधरवाए, भूखों के लिए अन्नसत्र (अन्यक्षेत्र) खोले, प्यासों के लिए प्याऊ बिठलाईं, मन्दिरों में विद्वानों की नियुक्ति शास्त्रों के मनन-चिन्तन और प्रवचन हेतु की। और, आत्म-प्रतिष्ठा के झूठे मोह का त्याग करके सदा न्याय करने का प्रयत्न करती रहीं मरते दम तक। ये उसी परम्परा में थीं जिसमें उनके समकालीन पूना के न्यायाधीश आचार्य राम शास्त्री प्रभूणे ने करवाते थे। अपने जीवनकाल में ही इन्हें जनता ‘देवी’ समझने और कहने लगी थी। हो भी क्यों न, आखिर ऐसा अतुलनीय व्यक्तित्व जनता ने अपनी आँखों देखा ही कहाँ था। कहते हैं पानीपत की पराजय के पश्चात भारत में परतंत्रता की नींव पड़ चुकी थी, पर वास्तविक नींव तो तब पड़ी, जब 1794 में महादजी शिंदे, और फिर 13 अगस्त 1795 को अहिल्याबाई होल्कर का निधन हुआ, क्योंकि जब तक ये जीवित थे, क्या यूरोपीय, क्या मुगल, कोई आतताई भारत की ओर आँख उठा कर नहीं देख सकता था।

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जब चारों ओर हाहाकार मचा हुआ था। शासन और व्यवस्था के नाम पर घोर अत्याचार हो रहे थे। प्रजाजन-साधारण गृहस्थ, किसान मजदूर-अत्यन्त हीन अवस्था में सिसक रहे थे। उनका एकमात्र सहारा-धर्म-अन्धविश्वासों, भय त्रासों और रूढि़यों की जकड़ में कसा जा रहा था। न्याय में न शक्ति रही थी, न विश्वास। ऐसे काल की उन विकट परिस्थितियों में अहिल्याबाई होल्कर ने जो कुछ किया-और बहुत किया, उसके बारे में जितना लिखें वह कम है।

 

 

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