बेनिटो मुसोलिनी के पदचिह्नों पर चल पड़े हैं भूपेश बघेल

छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सरकार ने लोकतंत्र को तिलांजलि दे दी है!

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Source- TFIPOST.in

आज के समय में जैसा नेतृत्वकर्ता वैसे उसके चाटुकार होते हैं और जैसा कांग्रेसी आलाकमान वैसे उसके नेता लोग है । यह सत्य है कि जिस पार्टी के नेता देश में आपातकाल लगाने का षड्यंत्र रच सकते हैं उन्हें अभिव्यक्ति की आजादी से क्या ही मतलब होगा। ऐसे में आलाकमान के अनुयायी उसी चाल पर न चलें तो कैसे चमचा होने का खिताब हासिल कर पाएंगे। हालिया मामला है छत्तीसगढ़ का जहाँ राज्य के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की सरकार ने तुगलकी फरमान जारी करते हुए धरना-प्रदर्शन को लेकर नए दिशा-दिए ताकि सभी रोष व्यक्त करने वाले और सरकार को घेरने वाले कार्यक्रमों को सरकार नियंत्रित कर सके। ऐसे में स्वयं भूपेश बघेल ही क्रूर शासक बेनिटो मुसोलिनी के नक्शेकदम पर चलने लगे हैं जो उन्हें और उनकी सरकार को शीघ्र ही धोबी-पछाड़ देने में सहायक होने वाला है।

दरअसल, पार्टी नेताओं समेत 2,000 से अधिक भाजपा कार्यकर्ताओं को सोमवार के दिन छत्तीसगढ़ भर भर कर हिरासत में लिया गया क्योंकि प्रमुख विपक्षी दल ने भूपेश बघेल के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार के धरने, प्रदर्शनों, रैलियों और अन्य सार्वजनिक कार्यक्रमों के संशोधित नियमों के खिलाफ “जेल भरो” का विरोध प्रदर्शन किया था। भाजपा ने विरोध और प्रदर्शनों को विनियमित करने के लिए बघेल सरकार के नए नियमों के खिलाफ राज्यव्यापी आंदोलन का आह्वान किया है। पार्टी ने पूर्व के घंटनाक्रमों को जोडते हुए यह आरोप लगाया कि कांग्रेस सरकार 1970 के दशक के मध्य में आपातकाल लगाकर राष्ट्रीय स्तर पर असंतोष को दबाने की कोशिश कर रही थी और कुछ ऐसा ही अब छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की भूपेश बघेल सरकार कर रही है।

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नये नियम और निर्देश

बता दें, सबसे बड़ा असंतोष नए नियम और निर्देशों से है क्योंकि राज्य सरकार अपने विरोध को कम करने और विरोधी दलों द्वारा प्रकट और उजागर किए जा रही कमियों को जनता से छुपाने के लिए नई नीति ले आई है। विरोध-प्रदर्शन और रैलियों जैसे आयोजनों पर अपने नए नियमों को लेकर भाजपा बघेल सरकार पर निशाना साध रही है। दरअसल, राज्य के गृह विभाग द्वारा पिछले महीने जारी इन दिशा-निर्देशों के अनुसार, इस तरह के आयोजनों के लिए जिला प्रशासन से पूर्व अनुमति अनिवार्य होगी, यहां तक ​​कि आयोजकों को उनके आयोजन के तीन दिनों के भीतर अपने पूरे कार्यक्रमों की वीडियो और ऑडियो रिकॉर्डिंग जमा करनी होगी।

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तानाशाही का उदाहरण बना नियम

एक बार के लिए अनुमति लेने वाली प्रक्रिया को सामान्य कह भी दिया जाए तो वीडियो और ऑडियो रिकॉर्डिंग को किस हद तक सही कहा जा सकता है वो सबसे बड़ा सवाल है। ऐसा तो है नहीं कि अब विपक्षी दल भी सब सत्ताधीशों से पूछकर करेंगे। कि सीएम साहब, आपकी इस नीति के विरोध में हम प्रदर्शन करने वाले हैं, कर लें क्या? यदि इसे तानाशाही नहीं कहा जाए तो क्या कहा जाए। यूँ तो कांग्रेसी नेताओं और शासकों द्वारा की गई यह कोई नई बात नहीं है, अब जिस गाँधी परिवार की गूंगी गुड़िया आपातकाल जैसे निर्णय देश पर थोप सकती है तो यह तो फिर भी बचे कूचे एक राज्य के सीएम भूपेश बघेल हैं।

यह बहुत बड़ी समस्या है कि, यदि सत्ताधीश का विरोध भी अब सत्तापक्ष पार्टी की अनुमति और उसको सबूत देकर किया जाने लगा तो लोकतंत्र कहाँ खड़ा दिखेगा। लोकतंत्र की दुहाई देकर भाजपा और एनडीए गठबंधन को पानी पी पीकर कोसने वाले जब स्वतः ही लोकतांत्रिक प्रणाली को कुचलने का काम करते हैं तो यह “अच्छी बात नहीं है।”

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