भारत की आजादी के समय से एक विवाद, जिसे समय समय पर राजनीतिक आवश्यकता के अनुसार उभारा जाता रहा है, वह भाषागत विभिन्नता और हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिए जाने का विवाद है। संविधान निर्मात्री सभा में इस बात पर लंबी बहस हुई थी कि हिंदी को राजभाषा का दर्जा मिलना चाहिए अथवा नहीं। भारत की आजादी के संग्राम में हिंदी को अंग्रेजी के प्रतिद्वंदी के रूप में खड़ा करने का प्रयास नरमपंथी एवं गरमपंथी, दोनों पक्षों द्वारा किया गया। यहां तक की महात्मा गांधी हिंदी के प्रबल समर्थक थे और हिंदी को राजभाषा के रूप में स्थापित करने की इच्छा रखते थे किंतु आजादी के बाद भी राजनीतिक स्वार्थों के कारण महात्मा गांधी की शिक्षा को पूरा नहीं किया गया। दुर्भाग्य तो यह है कि गांधी के इस विचार का विरोध भी उन्हीं लोगों ने सबसे अधिक किया है जो स्वयं को सबसे बड़ा गांधीवादी दिखाते हैं।
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दक्षिण की राजनीति
हिंदी का विरोध एक ऐसा मुद्दा है जो राजनीतिक दलों के लिए संजीवनी का कार्य करता है। जब भी केंद्र में बैठी राजनीतिक शक्ति दक्षिण के राज्यों में प्रवेश करती है, भले वह कांग्रेस हो या भाजपा, उस केंद्रीय शक्ति के विस्तार को रोकने के लिए दक्षिण के क्षेत्रीय राजनेता हिंदी बनाम दक्षिण की भाषा के मुद्दे को अपना हथियार बनाते हैं। हिंदी बनाम कन्नड़ अथवा हिंदी बनाम तमिल जैसे विवाद इतने संवेदनशील है कि बड़े से बड़े राष्ट्रवादी नेता द्वारा भी इन पर टिप्पणी नहीं की जाती है। इस संदर्भ में हाल ही में TFI के संस्थापक अतुल मिश्र द्वारा टिप्पणी भी की गई है।
Hindi is an orphan language. UP, Bihar, Jharkhand, Madhya Pradesh, Rajasthan, and a large number of people in almost every state speak it yet no state can lay claim to it.
— Atul Kumar Mishra (@TheAtulMishra) April 29, 2022
हिंदीभाषियों के लिए सदैव ही अपमानजनक शब्दों का प्रयोग किया जाता है। सोशल मीडिया से लेकर सिनेमा तक हिंदी विरोधी भावना स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है। किंतु कभी भी हिंदी भाषी क्षेत्रों में दक्षिणी भाषाओं के प्रति इस प्रकार का विरोध नहीं देखने को मिलता है। दोनों क्षेत्रों के व्यवहार में अंतर का कारण यह है कि उत्तर भारत के जो क्षेत्र हिंदी बोलते हैं वह हिंदी को एक संपर्क भाषा के रूप में देखते हैं और उन्होंने अपनी क्षेत्रीय भाषा जैसे गुजराती, मगधी, मैथिली, गढ़वाली, भोजपुरी, राजस्थानी आदि भाषाओं की पहचान को बनाए रखा है। दक्षिण के राज्यों में अपनी भाषा के साथ ही एक प्रकार का उपराष्ट्रवाद देखने को मिलता है। ऐसा नहीं है कि दक्षिण भारत के राज्य उत्तर भारत के राज्यों की अपेक्षा कम राष्ट्रवादी हैं बल्कि समस्या यह है कि दक्षिण भारत के राज्य अपनी संस्कृति के प्रति इतने सजग हैं कि उनकी सजगता सांस्कृतिक क्षय के डर में बदल जाती है।
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हिंदी का विरोध
हिंदी को कन्नड़, तमिल, तेलगु का विरोधी मानने के स्थान पर अंग्रेजी का विकल्प समझना चाहिए था। हिंदी का विकास आधुनिक काल में आकर हुआ है, उत्तर भारत की क्षेत्रीय भाषाओं, अवधि, ब्रज, राजस्थानी, मागधी आदि भाषाओं के साथ संस्कृत के मिश्रण का नाम हिंदी है। दक्षिणी में हिंदी को ग्राह्य बनाने के लिए उसमें क्षेत्रीय भाषाओं का मिश्रण करना चाहिए, किंतु इसके स्थान पर हिंदी का विरोध किया जाता है।
छोटे राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए व्यापक राष्ट्रीय हित को ताक पर रख दिया जाता है। संविधान निर्माण समिति के अध्यक्ष बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने तो संस्कृत को भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करने का पक्ष लिया था किंतु उनका यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया गया। अंबेडकर ने यह कहा था कि संस्कृत सभी भाषाओं की जननी है और तमिल के बहुत से शब्द संस्कृत से मिलते हैं। किंतु संस्कृत अधिकांश लोगों को दुर्बोध थी इसलिए संस्कृत का स्थान हिंदी को मिला। दक्षिण के राज्यों में आसानी से हिंदी भाषियों को अपमानित कर दिया जाता है क्योंकि हिंदी भाषी राज्यों में ‛उपराष्ट्रीयता’ का विचार नहीं है, उन्होंने पहले ही वृहत्तर राष्ट्रीय पहचान में अपनी क्षेत्रीय पहचान को, अपनी विशेष परंपराओं को संरक्षित रखते हुए, समाहित कर लिया है। बिहार इसका सबसे अनुपम उदाहरण है।
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दक्षिण के राज्यों को बिहार से यह सीख लेनी चाहिए कि कैसे अपनी विशेष पहचान को बनाए रखकर भी उपराष्ट्रीयता जैसे गौण विचार का त्याग किया जा सकता है। भगत सिंह ने एक बार लिखा था पंजाब की भाषा हिंदी होनी चाहिए, पंजाबी को उसकी पहचान मिलनी चाहिए किन्तु राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी के महत्व को उन्होंने भी स्वीकार किया था। भगत सिंह ने तो यहां तक कहा था कि मुसलमानों को राष्ट्रीय धारा में तभी शामिल किया जा सकता है जब उनकी भाषा उर्दू के स्थान पर हिंदी हो अथवा उर्दू को लिखने के लिए अरबी के बजाय देवनागरी लिपि का प्रयोग किया जाए। दक्षिण के राज्यों को उत्तर भारतीय लोगों में अपनी भाषा की समझ बढ़ानी चाहिए ना कि हिंदी का विरोध करना चाहिए। उत्तर भारत का हिंदी भाषी तमिल को किस प्रकार आसानी से समझ सके कार्य इसलिए करना चाहिए, प्रयत्न सकारात्मक होनी चाहिए।