‘हम देखेंगे, लाज़िम है कि हम भी देखेंगे’, फ़ैज अहमद फ़ैज की इस पंक्ति को आपने देश के कई हिस्सों और तमाम विरोध प्रदर्शनों में अवश्य सुना होगा। वामपंथियों के मुलाजिम और इस गीत से दिग्भ्रमित हुए देश के युवा आज भी आपको सड़कों पर इस पंक्ति के साथ अपना करतब दिखाते दिख जाएंगे। पर इन्हें ऐसा वैसा कदापि न समझें और न ही इनके मुख से निकले बोल को अनदेखा करने की भूल करें। इस आर्टिकल में आज हम विस्तार से इस गीत के बारे में चर्चा करेंगे, जिसे जाने अनजाने में सुना हम सब ने है, परंतु उसकी वास्तविकता और उसकी भयावहता से अधिकतर लोग अनभिज्ञ हैं। जिसे क्रांति की परिभाषा समझी जाती थी, वह कैसे वैमनस्यता को बढ़ावा देती आई है, आइए बताते हैं उस ‘हम देखेंगे’ गीत की कथा!
‘हम देखेंगे’ यदि नहीं सुना है, तो आप हैं किस लोक में? भारतीय राजनीति का एक अभिन्न हिस्सा बन चुका यह गीत फैज़ अहमद फैज़ नामक बुद्धिजीवी द्वारा रचित था। मूल रूप से जनरल जियाउल हक द्वारा किए गए तख्तापलट के विरुद्ध लिखे गए इस गीत को समय-समय पर क्रांतिकारियों, बुद्धिजीवियों और यहां तक कि अनेक भारतीय राजनीतिज्ञों ने अपनी विचारधाराओं का प्रचार करने हेतु प्रयोग में लाया था। इसका सर्वाधिक प्रयोग CAA के विरोध से लेकर किसान आंदोलन जैसे राजनीतिक प्रदर्शन में देखने को मिला। उदाहरण के लिए इस वीडियो को देखिए –
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‘Hum Dekhenge’, Faiz's song that became an anthem of protests, is being targeted for being anti-Indian. @TheQuint replays you the song, in the backdrop of the anti #CAAprotests.https://t.co/H4Q1c81vG3 pic.twitter.com/3sxzmafvDH
— The Quint (@TheQuint) December 27, 2019
यह क्लिप द क्विंट ने प्रकाशित की थी, जब CAA के विरुद्ध प्रदर्शन अपने चरमोत्कर्ष पर था। इसमें कई वामपंथी कलाकारों ने भाग लिया था और इसे अपना समर्थन भी दिया था। तो इसमें समस्या क्या है? आखिर सबको अपने विचार रखने का अधिकार है न? हां जी, बिल्कुल है, अगर इस गीत के प्रारम्भिक बोल को ही ध्यान में रखें तो। ये बोल सुनकर तो किसी के मन में क्रांति की ज्वाला भड़क उठेगी –
“जब ज़ुल्म ओ सितम के कोह ए गारन रूह की तरह उड़ जाएंगे, हम देखेंगे,
हम महकमों के पाओं तले ये धरती धड़ धड़ धड़केगी ,
और अहल ए हुकूम के सर के ऊपर जब बिजली कड़ कड़ कड़केगी, हम देखेंगे, हम देखेंगे!”
लेकिन जब वास्तविक गीत के बोल पर ध्यान दें, तो इससे क्रांति की कम, और इस्लामवाद की बू अधिक आती है।
विश्वास नहीं होता तो इसे सुनिए….
“जब अर्ज-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएंगे
हम अहल-ए-सफ़ा, मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ायब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र भी है नाज़िर भी
उठेगा अन-अल-हक़ का नारा”..
अब आप स्वयं बताइए, ये क्रांति का गीत है या इस्लाम का महिमामंडन करने वाला गीत है? अगर फैज़ अहमद फैज़ वास्तव में क्रांतिकारी थे, जैसे वे आयुपर्यंत दावा ठोंकते थे तो उन्होंने भारत के विभाजन का विरोध क्यों नहीं किया? उन्होंने पाकिस्तान में ही रहना क्यों पसंद किया? वो कहते हैं न, हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और। पर ठहरिए, बात यहीं पर खत्म नहीं होती। इस गीत ने हमारे देश के युवाओं को किस हद तक दिग्भ्रमित किया है, आपको इसका अंदाजा भी नहीं होगा। हाल ही में एक ABP न्यूज के पत्रकार ने बड़गाम में एक कश्मीरी पंडित की हत्या के लिए ‘द कश्मीर फाइल्स’ को दोषी ठहराया है। अब आप भी सोच रहे होंगे कि ‘द कश्मीर फाइल्स’ और ‘हम देखेंगे’ का क्या नाता है?
इस फिल्म ने कश्मीरी हिंदुओं की त्रासदी को जिस तरह से बिना लाग लपेट के दिखाया, वो तो प्रशंसनीय है ही, परंतु इस फिल्म ने ‘हम देखेंगे’ गीत की भी पोल खोलकर रख दी। जिस प्रकार से युवा विद्यार्थियों को दिग्भ्रमित किया जाता है और भारत विरोधी नीतियों का समर्थन करने हेतु प्रेरित किया जाता है, ‘हम देखेंगे’ गीत का चित्रण इस फिल्म में उसी का परिचायक है। ऐसे में ‘हम देखेंगे’ वामपंथियों के दृष्टिकोण से एक क्रांतिकारी गीत था, परंतु वास्तव में यह एक इस्लामपरस्त गीत है, जिसकी वास्तविकता और भयावहता से लोग अब जाकर परिचित होना शुरू हुए हैं। निस्संदेह काफी देर हुई है, लेकिन जब जागो तभी सवेरा।
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