भारत का स्वर्णयुग था प्राचीन इतिहास – जहां भारत की माटी भी स्वर्ण समान थी। मौर्य काल से होते हुए भारत गुप्त साम्राज्य की ओर बढ़ा, जहां शौर्य, वैभव, शास्त्र, किसी वस्तु की कमी नहीं थी। जब गुप्त साम्राज्य का अवसान हुआ, तो भारत अनेक राज्यों में बंट गया और एक समय ऐसा भी आया जब भारत पुनः मौर्यकाल से पूर्व का भारत बन गया – विभिन्न राज्यों में बंटा हुआ भारत, एक बिखरा हुआ भारत। इसी बीच उद्भव हुआ एक ऐसे राज्य का, जिसने न केवल राम राज्य के आदर्शों का अनुसरण किया, अपितु वीरों के वीर सम्राट ललितादित्य मुक्तपीड़ एवं बप्पा रावल से पूर्व अखंड भारत के विचारधारा को पुनर्जीवित करने की दिशा में सार्थक प्रयास भी किया। ये कथा है गौड़ वंश के वीर सम्राट शशांक की, जिनके प्रताप से उनका गृह राज्य बंगाल तक आज अपरिचित है।
यशस्वी गुप्त साम्राज्य के राजनीतिक विघटन के परिणामस्वरूप, पूर्वी भारत में 6वीं शताब्दी के अंत में गौड़ साम्राज्य अस्तित्व में आया। इसकी राजधानी थी कर्णसुवर्ण, जिसके अवशेष वर्तमान बंगाल के मुर्शिदाबाद नगर में आज भी व्याप्त हैं। एक समय तो सम्राट शशांक का वर्चस्व पूर्वी भारत के कोने कोने में व्याप्त था। सन् 590 से 637 तक गौड़ साम्राज्य की कीर्ति पूर्वी भारत में चहुंओर व्याप्त थी। परंतु सम्राट शशांक इतने शक्तिशाली कैसे बने? इसके बारे में ‘हर्षचरित’ के रचयिता बाणभट्ट एवं चीनी बौद्ध भिक्षु-विद्वान ह्वेनत्सांग या जुआनज़ांग के संस्मरणों से खूब मिलता है। परंतु दोनों ने ही सम्राट शशांक को एक क्रूर, नीच और कपटी शासक के रूप में पेश किया है, जो अपने लक्ष्य के लिए किसी भी हद तक जा सकते थे। बाणभट्ट के ‘हर्षचरित’ को यदि आप ध्यान से पढ़ें, तो आपको ऐसा प्रतीत होगा कि आप साक्षात शैतान की प्रतिमूर्ति से मिल रहे हैं, जिसका नाम हैं शशांक।
इतिहास में सम्राट शशांक का गलत चित्रण क्यों?
परंतु ऐसा क्यों था? आखिर ऐसा किया क्या था सम्राट शशांक ने, जो उन्हें इस तरह से चित्रित किया गया? ‘हर्षचरित’ की माने तो शशांक उनके आराध्य, सम्राट हर्षवर्धन के सबसे कट्टर शत्रु थे। ये सम्राट हर्षवर्धन कोई और नहीं, पुष्यभूति वंश के शासक सम्राट हर्षवर्धन थे, जो एक समय भारत के सबसे शक्तिशाली शासकों में से एक माने जाते थे। ‘हर्षचरित’ के अनुसार, सम्राट शशांक ने देवगुप्त की सहायता में हर्ष के अग्रज राज्यवर्धन की हत्या की थी और उनके सिंहासन को छीनने का प्रयास किया था।
हालांकि, स्थिति इसके ठीक उलट थी। उस समय उत्तरी और पूर्वी भारत की राजनीतिक परिस्थितियों ने सुनिश्चित किया कि किसी भी योग्य शासक को पहले अपनी स्थिति मजबूत करनी होगी। शशांक ने इस बात को महसूस किया और महासेनगुप्त के पुत्र देवगुप्त (6 वीं शताब्दी ईस्वी- 7 वीं शताब्दी ईस्वी की शुरुआत) के साथ मित्रता की, जिसके कारण इन्हें हर्षवर्धन से शत्रुता मोल लेनी पड़ी। सम्राट शशांक हर्षवर्धन के लिए पूर्वी भारत में वही थे, जो दक्षिण भारत में चालुक्य सम्राट पुलकेशी द्वितीय सिद्ध हुए। हर्षवर्धन के गगन समान घमंड को मिट्टी में मिलाने हेतु सम्राट शशांक ने अनेकों युद्ध लड़े। कुछ में वो विजयी हुए, तो कुछ में नहीं, परंतु इतना तो उन्होंने सुनिश्चित किया कि हर्षवर्धन की ‘कीर्ति’ कान्यकुब्ज (कन्नौज) से आगे न फैले और हुआ भी वही।
कहने को शशांक अनेकों जगह युद्धप्रिय सम्राट के रूप में चित्रित किये जाते हैं, जिन्होंने गुप्त साम्राज्य के पश्चात राजनीतिक अस्थिरता से परिपूर्ण युग में अपनी स्थिति में सुधार हेतु अनेकों संधियों को समाप्त किया और सहयोगी बनाए। सम्राट शशांक ने पुष्यभूति वंश के साथ निरंतर युद्ध जारी रखा। हर्ष जैसे दृढ़ निश्चयी और शक्तिशाली विरोधी के सामने भी वह सत्ता में बने रहें। वह राज्य का विस्तार करना चाहते थे और वह कर भी सकते थे, उन्होंने क्षेत्रों को जीतना और कब्जा करना चुना। इन सब में वह अपने समय के किसी अन्य राजा से अलग नहीं थे।
ह्वेनत्सांग या जुआनज़ांग (602-664 ईस्वी) के संस्मरणों के अनुसार, शशांक के राज्य ने वर्तमान समय के ओडिशा राज्य में मगध और गंजम सहित कई क्षेत्रों को शामिल किया। ऐसा प्रतीत होता है कि यह स्वयं शशांक ही थे जिन्होंने स्वयं इन अभियानों का नेतृत्व किया। 619/20 ईस्वी के उनके शिलालेखों में उन्हें महाराजाधिराज (संस्कृत: “महान राजाओं के भगवान”) के रूप में वर्णित किया गया है, जो द्वीपों, पहाड़ों और शहरों के साथ-साथ चार महासागरों से घिरी हुई पृथ्वी पर शासन कर रहे हैं। यह उपाधि शाही गुप्त उपाधियों की तुलना में भव्यता में कम थी, लेकिन वंगा राजाओं के साधारण महाराज (संस्कृत: “महान राजा”) की तुलना में बहुत अधिक शक्ति और अधिकार को दर्शाती थी।
सम्राट शशांक ने सक्रिय रूप से किया था हिंदू धर्म का समर्थन
प्रशासन की दृष्टि से कुल मिलाकर जो व्यवस्था गुप्त साम्राज्य में व्याप्त थी, उसे सम्राट शशांक में यथावत रखी गई। भुक्ति और नीचे जैसे प्रशासनिक प्रभाग पुरानी तर्ज पर जारी रहे। गुप्त शासन के तहत, जिला अधिकारी भी कभी-कभी सीधे राजा द्वारा नियुक्त किए जाते थे, जिन्होंने अब गुप्त सम्राट के अधिकार को बदल दिया था। राजा ने बड़ी संख्या में अधिकारियों को गुप्त शैली में आदेश जारी किए। धार्मिक नीति में भी सम्राट शशांक काफी निपुण थे, क्योंकि वह एक कट्टर शिवभक्त जो ठहरे। शशांक ने सक्रिय रूप से हिंदू धर्म का समर्थन किया।
शशांक की मुद्रा स्पष्ट रूप से उनकी प्राथमिकताओं को दर्शाते हैं: भगवान शिव को एक तरफ उनके बैल के साथ चित्रित किया गया है, जबकि दूसरी तरफ समृद्धि की देवी लक्ष्मी को भी अंकित किया गया है। शशांक और उसके उत्तराधिकारियों के सोने के सिक्के, शैली और निष्पादन में उन गुप्त सिक्कों से कम हैं जिन पर वे प्रतिरूपित थे। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि सम्राट शशांक का गौड़ राज्य राम राज्य का एक अंश स्वरूप था।
लेकिन दुर्भाग्यवश से यह अंश स्वरूप अधिक समय तक अक्षुण्ण नहीं रह पाया। सम्राट शशांक की मृत्यु के साथ गौड़ वंश की अवनति भी प्रारंभ हो गई। जिस गौड़ वंश को सम्राट शशांक ने हर्षवर्धन और कामरूप के सम्राट भास्करवर्मन की कुदृष्टि से बचा रखा था, वो उनके मृत्यु के पश्चात उन दोनों में बंट गया। गौड़ के नेता (भले ही उन्हें राजा कहा जा सकता है) जो शशांक के बाद आए, वे इतने कमजोर या महत्वहीन थे कि ऐतिहासिक स्रोतों में उनका उल्लेख भी नहीं किया जा सकता है। यह भी पूरी तरह से संभव है कि शायद ही कोई शाही नेतृत्व मौजूद हो, क्योंकि अराजकता की इन स्थितियों ने बंगाल में नेतृत्व का कोई विकल्प ही नहीं छोड़ा और यहीं से पाल वंश का उद्भव प्रारंभ हुआ।
आज बंगाल की दशा देख हंसी भी आती है और दुख भी, लेकिन एक समय ऐसा भी था, जब बंगाल में धर्म की ध्वजा गर्व से लहराती थी और लोगों को अपने शास्त्रों का अनुसरण करने के लिए मृत्यु का सामना नहीं करना पड़ता था। हम नमन करते हैं सम्राट शशांक जैसे वीरों को, जिनके कारण ये धरती आज भी गौरवशाली है।
Other Sources – Ramesh Chandra Majumdar – History of Ancient Bengal
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