राजनीति संभावनाओं और समीकरणों का खेल है और इन्हीं संभावनाओं और समीकरणों को साधने का काम जितना सामने से राजनीति करने वाले नेता करते हैं, उससे कही अधिक अहम किरदार पीछे से नीति निर्माण कर रहे नेता और संगठन संभाल रहे पार्टी के ध्वजवाहक का होता है। राजनीति में भी आईटी सेक्टर में चलन में रहे शब्द फ्रंट एंड और बैकएंड वाली कार्यविधि चलती है। हमारे बीच राजनीतिक नेताओं की श्रेणी के बारे में बात करते समय यही एक विशेष समानता है, खासकर जब पिछले कुछ दिनों में कुछ हाई-प्रोफाइल नेता इधर से उधर हुए हैं। कांग्रेस से भाजपा में आए सुनील जाखड़ उसी कार्यविधि के अंश हैं जिन्होंने दल बदल किया और अब भाजपा के खेमे के नेता बन गए।
यूं तो कांग्रेस में सुनील जाखड़ के योगदान को पीछे छोड़ देना किसी भी नेता के लिए आसान बात नहीं है। फ्रंटफुट पर न खेलने और संगठनात्मक रूप से पार्टी को स्थिर करने की कवायद में जुटे रहने वाले नेताओं में से एक सुनील जाखड़ ने पूरे देश में रजानीतिक रूप से वेंटिलेटर पर पड़ी कांग्रेस को जाखड़ जैसे नेताओं ने ही पंजाब के 2017 वाले चुनाव में संजीवनी प्रदान की थी। तत्पश्चात न केवल कांग्रेस राज्य में चुनाव जीती बल्कि अमरिंदर सिंह भी बिना विरोध के सीएम बन गए। ये जाखड़ की ही कर्तव्यपरायणता थी, जो वो अंततः लालच और सीएम की कुर्सी से कोसों दूर रहे।
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जाखड़ को है जमीनी नब्ज की अच्छी जानकारी
बीते गुरुवार को वरिष्ठ कांग्रेस नेता और पंजाब इकाई के पूर्व प्रमुख सुनील जाखड़ ने कांग्रेस छोड़ने के कुछ दिनों बाद औपचारिक रूप से भारतीय जनता पार्टी ज्वाइन कर ली। यह सर्वविदित है कि सुनील जाखड़ जैसे नेता पार्टी को पर्दे के पीछे से मजबूत रखने में कोई कसर नहीं छोड़ते और क्षुब्ध हो चुकी पार्टी को जीवनदान देते हैं। उनके सरीखे नेताओं का काम फैंसी या आकर्षक अखबारों की सुर्खियों के योग्य नहीं है, बल्कि पार्टी के चुनावी भाग्य के लिए महत्वपूर्ण है। यदि बैकएंड में कुछ भी गलत हो जाता है, तो फ्रंटएंड बेकार हो जाता है और कुछ भी काम नहीं करता है। ठीक ऐसा ही पंजाब कांग्रेस के मामले में हुआ था।
जाखड़ की जमीनी पकड़ काफी बेहतरीन थी और वो भी तब जब पार्टी में आंतरिक संघर्ष हमेशा उच्च स्तर पर रहा, क्योंकि आलाकमान दबाव में बना रहा फिर चाहे वो सिद्धू का दबाव हो या किसी और नेता का। हालांकि, जिस क्षण सिद्धू को गांधी परिवार के साथ मिलीभगत के कारण जाखड़ का प्रदेश अध्यक्ष का पद उन्हें उपहार में दिया गया पंजाब कांग्रेस उसी वक्त बिखर गई। राज्य में कांग्रेस लंबे समय तक पार्टी को विपक्ष से दूर रखने में सक्षम थी क्योंकि जाखड़ को जमीनी नब्ज़ की जानकारी थी। जब भी जाखड़ को लगा कि उनकी पार्टी लड़खड़ा रही है, तो उन्होंने समस्या को ठीक करने के लिए अपने कार्यकर्ताओं को भेज दिया ताकि लोकप्रियता में सेंध न लगे। उनके नेतृत्व में पंजाब कांग्रेस का संगठनात्मक ढांचा बेजोड़ था और यहां तक कि भाजपा जैसी चुनाव जीतने वाली मशीनरी को भी राज्य में इससे मुकाबला करने में मुश्किल होती थी। इसके बावजूद उन्हें कांग्रेस आलाकमान ने केवल छला और ठगा।
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भाजपा के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं जाखड़
तीन बार के विधायक और एक बार के सांसद रहे जाखड़ को कभी भी एक जन नेता के रूप में नहीं देखा गया, लेकिन कई लोग भाजपा में उनके प्रवेश को दोनों पक्षों के लिए जीत के रूप में देखते हैं। कोई भी बैकएंड नेता कभी भी जन नेता नहीं होता है, लेकिन किसी पार्टी और उसके संगठनात्मक ढांचे के लिए उनके महत्व को कम करके नहीं आंका जा सकता है। यही जाखड़ की USP है, कांग्रेस में भी कार्यकर्ता प्रिय रहे नेता जाखड़ भाजपा में भी उसी रीत को चलाएंगे, क्योंकि उनका संगठनात्मक कौशल किसी के आगे नहीं टिकता। जाखड़ एक साफ-सुथरी छवि वाले जाट हिंदू नेता हैं, जाखड़ जैसी क्षमता वाले नेता को छोड़ कर कांग्रेस ने एक बार फिर दिखा दिया है कि उसके आलाकमान ने एक बार फिर हाथ में आई गेंद को जानबूझकर छोड़ दिया।
टीएफआई की रिपोर्ट के अनुसार, जाखड़ ने अपने जाने की औपचारिक घोषणा अपने पंचकुला आवास से फेसबुक लाइव ‘दिल की बात’ के जरिए सार्वजनिक की। अपने 35 मिनट के लंबे फेसबुक लाइव में, उन्होंने “दिल्ली में बैठे” कांग्रेस के कई बड़े लोगों पर कटाक्ष किया। जाखड़ ने अपने विदाई के अंतिम शब्दों का उल्लेख “गुड लक और अलविदा कांग्रेस” के रूप में किया और इसे पार्टी को अपना उपहार कहा। उन्होंने उदयपुर में कांग्रेस के विचार-मंथन सत्र को केवल “औपचारिकता” कहा। उन्होंने यह भी कहा कि अगर पार्टी देश में अपनी दयनीय स्थिति के बारे में वास्तव में गंभीर होती, तो वह ‘चिंतनशिविर’ के बजाय ‘चिंताशिविर’ का आयोजन करती और यह ‘आत्मनिरीक्षण’ से ज्यादा ‘चिंता’ की बात होती।
निश्चित रूप से जब भी कोई गहरा और अंतर्मन से जुड़ा रिश्ता तोड़ता है तो उसके लिए एक साहस और स्वयं पर विश्वास होना आवश्यक होता है। सुनील जाखड़ अपने राजनीतिक जीवन के बड़े हिस्से के लिए कांग्रेस से जुड़े रहे थे और फिर भी उन्हें कांग्रेस के शीर्ष नेताओं द्वारा एक सिख बहुल क्षेत्र में हिंदू नेता होने के कारण नजरअंदाज कर दिया गया था। यही कारण रहा कि जाखड़ ने अंततः अपना निर्णय कांग्रेस से सभी संबंध तोड़कर, भाजपा के साथ नई पारी के शुरुआत करके लिया। अब यह भाजपा के ऊपर निर्भर करता है कि वो इस अवसर को कैसे भुनाते हुए खेला करती है, क्योंकि अमरिंदर सिंह के साथ आने के बाद सुनील जाखड़ का आना भाजपा के लिए सोने पर सुहागा हो गया है।
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