आखिरी “खान स्टार” सैफ अली खान थे और वे 1993 में आए थे

अब किसी “खान स्टार” को भाव नहीं दे रही है जनता!

The Fourth Khan Of The Industry

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सूर्यवंशी, द कश्मीर फाइल्स, भूल भुलैया 2, इनमें समान बात क्या है? ये सभी भारतीय फिल्म उद्योग विशेषकर बॉलीवुड की वो फिल्में हैं जो कोविड के प्रचंड लहर के पश्चात बॉक्स ऑफिस पर सफलता के झंडे गाड़ने में सफल हुई हैं पर क्या एक और कॉमन फैक्टर आपको ज्ञात है। चलिए हम आपको बता देते हैं। वो फैक्टर है कि इसमें कोई खान नहीं हैं।

इस लेख में जानेंगे कि कैसे अब बॉलीवुड में परिवर्तन की बयार धीरे धीरे ही सही, पर चलने लगी है, और खानों का वर्चस्व कैसे खत्म हो रहा है, चाहे वो शाहरुख हो, आमिर हों या फिर सलमान और फरदीन।

हाल ही में बॉलीवुड के फुस्स पड़ते उद्योग में भूल भुलैया 2 के बॉक्स ऑफिस कलेक्शन ने मानो नई ऊर्जा दी है। इस फिल्म ने प्रथम हफ्ते में केवल भारतीय बॉक्स ऑफिस पर 92 करोड़ कमा लिए हैं, जो कई महीनों में किसी बॉलीवुड फिल्म के लिए चमत्कार से कम नहीं है।

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खानों का कम हो रहा है वर्चस्व

लेकिन इसका खानों के कम होते वर्चस्व से क्या संबंध? ठहरिए बंधु, हम लोगन किस दिन के लिए हैं? बॉलीवुड यानि हिन्दुस्तानी फिल्म उद्योग, जिसे कुछ औपचारिकता के लिए हिन्दी फिल्म उद्योग भी कहते हैं, एक समय पर हर प्रकार के लोगों का स्वागत करता था, परंतु 80–90 का दशक आते आते ये एक वर्ग विशेष का अड्डा मात्र तक ही सीमित रह गया। उन्हीं की पसंद, उन्हीं की नापसंद सर्वोपरि थी। यूं समझिए कि जिस बॉलीवुड में ‘अमर’, ‘अकबर’ और ‘एंथनी’ तीनों को लपेट सकते थे, वहां अब अकबर किसी वीवीआईपी से कम नहीं था जिसके दो प्रमुख कारण थे – अंडरवर्ल्ड और खान चौकड़ी।

अब अंडरवर्ल्ड का प्रभाव तीव्र परंतु सीमित था, क्योंकि 1993 के ब्लैक फ्राइडे ब्लास्ट्स के पश्चात उनका दबदबा पहले जैसा नहीं रहा। परंतु चाहे सलमान खान हो, शाहरुख खान हो, आमिर खान या हाल फिलहाल सैफ अली खान, इनका वर्चस्व खत्म नहीं हुआ। इनके समक्ष बड़े से बड़े स्टार पानी मांगते हुए दिखाई पड़े, और केवल सनी देओल, गोविंदा, अजय देवगन जैसे अभिनेता स्टारडम में इन्हें किसी प्रकार की टक्कर देते हुए दिखाई दिए।

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गोविंदा और सनी देओल भी पड़े फीके

परंतु 2000 के प्रारम्भिक दशक में ये भी बदल गया। ‘गदर’ के पश्चात गोविंदा और सनी देओल ‘खान चौकड़ी’ के समक्ष तो मानो फीके पड़ गए, अजय देवगन कुछ समय प्रयोगों में व्यस्त रहे, अक्षय कुमार जैसों का प्रभाव भी प्रारंभ में कॉमेडी तक सीमित था और प्रारंभ में ऐसा लगा कि खानों के वर्चस्व को चुनौती देने वाला दूर दूर तक कोई नहीं है। ये वर्चस्व ऐसा था कि स्टारडम के लोक के सितारे तो छोड़िए, अभिनय के परिप्रेक्ष्य में भी कोई ‘खान’ इन्हें दूर दूर तक चुनौती नहीं दे पाया। आखिरी सफल ‘खान’ स्टार सैफ अली खान थे, जिन्होंने ‘परंपरा’ से 1993 में बॉलीवुड में पदार्पण किया। अब वहीं निस्संदेह इरफान खान एक बेहतरीन अभिनेता रहे हैं, पर क्या वे शाहरुख खान या सलमान खान, या फिर सैफ अली खान के ही बराबर के बॉक्स ऑफिस आंकड़े अपने दम पर किसी फिल्म से जुटा पाए? क्या किसी जाएद खान या फरदीन खान को स्टारडम में सलमान खान को टक्कर देते हुए आपने कभी देखा है, और अभी तो हमने नवाजुद्दीन सिद्दीकी जैसों की चर्चा भी नहीं की है।

परंतु बात यहीं खत्म नहीं होती। सोशल मीडिया का प्रभाव कहिए या जनता के समक्ष विकल्पों का भंडार, परंतु धीरे धीरे ‘खान चौकड़ी’ का वर्चस्व फीका पड़ने लगा। ये बात अभी की नहीं, अपितु नींव 2012 में ही पड़ चुकी थी, जब शाहरुख खान की बहुप्रतीक्षित ‘जब तक है जान’ के साथ साथ ही अजय देवगन ने अपनी ‘सन ऑफ सरदार’ प्रदर्शित की थी। अनेक प्रकार की अटकलों के बाद भी इस फिल्म ने न केवल ‘जब तक है जान’ को टक्कर दी, अपितु 100 करोड़ से अधिक का कलेक्शन भी किया।

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आज तो स्थिति यह है कि बॉलीवुड के खानों को कोई पूछता भी नहीं। स्थिति इतनी दयनीय हो गई कि कल तक जिस दक्षिण भारत का बॉलीवुड उपहास उड़ाती थी, आज उसी के आगे ये लोग गिड़गिड़ाने को विवश है और खान चौकड़ी इसी का प्रत्यक्ष प्रमाण है। यदि इनके वर्चस्व को कोई नुकसान न होता तो एक KGF के समक्ष ‘लाल सिंह चड्ढा’ जैसी फिल्म को प्रदर्शित करने में आमिर खान का क्या जा रहा था? मिस्टर परफेक्शनिस्ट जो ठहरे, पर अंदर की बात तो वही है बंधु, अब ये पहले वाले खान थोड़े न रहे, और न ही बॉलीवुड अब इनकी जागीर रही।

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