उपमुख्यमंत्री पद के लिए सामाजिक और जातीय समीकरणों के अलावा और भी बहुत कुछ है

जनता और सरकार के बीच के संवाद का है भाजपा का यह सफल प्रयास !

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उप मुख्यमंत्री का पद कोई संवैधानिक पद नहीं है। संविधान के किसी भी प्रावधान में इसका कोई भी उल्लेख नहीं है। आम जनता को लगता है की राजनीतिक पार्टियां उप मुख्यमंत्री का पद केवल राजनीतिक, जातीय और सामाजिक समीकरणों को साधने के लिए करते हैं। उनका ऐसा सोचना स्वाभाविक है क्योंकि पूर्ववर्ती सरकारों ने अपने स्वार्थ और नेताओं के अहंकार सिद्धि के लिए ही इस पद को निर्मित किया था। जहां तक उत्तर प्रदेश का प्रश्न है चरण सिंह के मुख्यमंत्री कार्यकाल में तीन उपमुख्यमंत्री हुए- नारायण सिंह, रामचंद्र वकील और राम प्रकाश गुप्ता। चंद्रभानु गुप्ता की सरकार में कमलापति त्रिपाठी उप मुख्यमंत्री बने तो वहीं माननीय योगी जी के प्रथम कार्यकाल में दिनेश शर्मा और केशव प्रसाद मौर्य तो दूसरे कार्यकाल में केशव प्रसाद मौर्य के साथ ब्रजेश पाठक रहे।

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“उप-परंपरा” की शुरुआत

वैसे तो सरदार बल्लभ भाई पटेल के उप प्रधानमंत्री बनने से इस “उप-परंपरा” की शुरुआत हुई किंतु, वीपी सिंह के सरकार में देवीलाल ने उप प्रधानमंत्री की सार्वजनिक शपथ लेकर विवाद खड़ा कर दिया। इसके संवैधानिक मान्यता पर सवाल उठने लगे। 1992 में कांग्रेस के नेता एसएम कृष्णा ने पहले उप मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली। अभी उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, दिल्ली, महाराष्ट्र और करीब-करीब पूर्वोत्तर के सारे राज्यों में उपमुख्यमंत्री हैं।

विशेषकर उत्तर प्रदेश के संबंध में भाजपा पर जातीय समीकरणों को साधने और विभाजन की राजनीति करने हेतु उपमुख्यमंत्री नियुक्त करने के आरोप लगते रहे हैं। किंतु, हमें यह समझना होगा कि भाजपा ने इस पद को निजी स्वार्थ से नहीं बल्कि सामाजिक प्रतिनिधित्व, राजनीतिक न्याय, प्रशासनिक कुशलता और सर्वांगीण विकास से जोड़ दिया है। भाजपा ने इस चीज को समझा की उत्तर प्रदेश अनंत जातियों और समुदायों का एक घर है। सभी समुदाय के अंदर राजनीतिक प्रतिनिधित्व और न्याय की अभिलाषा अवश्य रहती है। अगर इन अभिलाषाओं की पूर्ति हेतु संसाधन मुहैया न कराई जाए तो यह विद्रोह का स्वरूप ले लेती है। शायद इसी सिद्धांत की वास्तविकता को सुनिश्चित करने के लिए योगी सरकार ने सवर्णों की ओर से ब्रजेश पाठक को उपमुख्यमंत्री बनाया और हारने के बावजूद केशव प्रसाद मौर्या की नियुक्ति कर समाज के द्रवित, कुंठित और व्यथित लोगों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया।

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उपमुख्यमंत्री पद की नियुक्ति के अहम पहलू

आज के उप मुख्यमंत्री पद की प्रशासनिक दक्षता और कुशलता। आप सभी समझते हैं कि एक मुख्यमंत्री राज्य में सभी स्थानों पर उपस्थित नहीं रह सकता एक नेता के रूप में जनता के बीच उनका हालचाल जानना भी राजनीतिक कार्यशैली का अनिवार्य हिस्सा है, तो वही समय-समय पर कार्यपालिका का औचक निरीक्षण करना भी सरकार का ही उत्तरदायित्व है। अब ऐसे में सवाल ये उठता है कि एक मुख्यमंत्री अपने जनता की पीड़ा सुनने उसके दरवाजे पर जाए या उसी समय उसके निवारण के लिए कार्यपालिका की क्लास लगाये। ऐसी परिस्थिति में हम राज्य में दो-दो उपमुख्यमंत्रियों की महत्ता को भली-भांति समझ सकते हैं।

राजनीतिक और सामाजिक न्याय तथा प्रशासनिक कार्यकुशलता और दक्षता के अलावा उपमुख्यमंत्री की नियुक्ति मुख्यमंत्री कार्यालय के भार को भी अप्रत्याशित रूप से कम कर देती है। इतना ही नहीं यह सरकार और संगठन तथा प्रशासन और विपक्ष में भी तारतम्यता सुनिश्चित करती है। यह पार्टी के अंदर शीर्ष नेतृत्व को लेकर होने वाले वर्चस्व की लड़ाई को भी धूल-धूसरित कर देती है। यह आम कार्यकर्ताओं को संगठन के शीर्ष नेताओं से जोड़ती है। मूल रूप से यह सत्तासीन पार्टी का सरकार में रहते हुए एक अद्भुत विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया है। किंचित रूप से उपमुख्यमंत्री के पद का सृजन कर भाजपा ने असल मायने में लोकतंत्र और इस लोकतांत्रिक व्यवस्था का सार तत्व को जीवित कर दिया है। यह सरकार की ओर से प्रशासनिक दक्षता और कार्यकुशलता के लिए सरकार की शक्तियों का किया गया एक शानदार विकेंद्रीकरण है जो अत्यंत प्रशंसनीय और सराहनीय है।

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