एक समय था जब पास होने पर मोहल्ले में मिठाइयां बांटी जाती थी, फर्स्ट डिवीजन में उत्तीर्ण होने पर जो मांगों सो मिल जाए, और गलती से अगर डिस्टिनक्शन प्राप्त हुई, तो समझिए पूरी बिरादरी के लिए आप किसी परम प्रतापी, अखंड प्रतापी शूरवीर से कम नहीं है। आपका कद तो यूं समझ लीजिए कि अमरेन्द्र बाहुबली से कम न होगा। लेकिन फिर आया शिक्षा में व्यवसायीकरण का युग और अब तो स्थिति ऐसी है कि लोग भी पूछते हैं, फर्स्ट डिवीजन, ऊ का होता है?
मूल्यांकन की पद्धति में बहुत अंतर आ चुका है
इस लेख में हम समझने का प्रयास करेंगे कि कैसे 90 प्रतिशत को प्रसाद की तरह बांटने की स्कीम से न सिर्फ शिक्षा के स्तर में गिरावट आई है अपितु प्रतिस्पर्धा की भावना भी इतिहास बन रही है। 25 दिन में पैसा डबल हो न हो लेकिन आज के युग में 25 दिन में 90 प्रतिशत नंबर अवश्य आ जाते हैं। अब वो दिन गए जब एक एक नंबर के लिए लड़ना और तरसना पड़ता था क्योंकि मूल्यांकन की पद्धति में अब आकाश पाताल का अंतर आ चुका है।
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कभी सोचा है कि IIT JEE मेंस में आप 2 नंबर से पीछे क्यों रह जाते हैं? कभी सोचे हैं कि लाख चाहने पर भी दिल्ली यूनिवर्सिटी के कट ऑफ लिस्ट घटने के बजाए बढ़ते ही क्यों जाते हैं? इसके पीछे के दो प्रमुख कारण है – शिक्षा का व्यवसायीकरण और मूल्यांकन का गिरता स्तर।
शिक्षा के व्यवसायीकरण और उसके दुष्प्रभावों से हम अनभिज्ञ नहीं है। लेकिन भारतीय शिक्षण व्यवस्था में मूल्यांकन भी एक प्रमुख कारण है कि आखिर क्यों हमारे शैक्षणिक व्यवस्था को अब उपहास का विषय बना दिया गया है। आज 90 प्रतिशत गर्व का विषय नहीं रहा अपितु ऐसा प्रतीत होता है जैसे हाथ की सफाई हो, कोई न कोई हर वर्ष ले आता है। अब नंबर कमाए नहीं जाते, नंबर मुफ़्त में बांटे जाते हैं, जैसे कोई मिड डे मील की योजना हो।
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पहले सेकेंड डिवीजन लाने में भी लोगों के पसीने छूटते थे
एक समय होता था जब सेकेंड डिवीजन लाने में भी लोगों के पसीने छूटते थे, इसलिए नहीं क्योंकि शिक्षा व्यवस्था में खामियां थीं वरन इसलिए क्योंकि तब मूल्यांकन में प्रश्नोत्तरी यानी इग्ज़ाम पेपर की एक एक बात पर जोर दिया जाता था, किसी भी पक्ष को नहीं छोड़ा जाता। लेकिन पहले सीबीएसई और फिर आईसीएसई द्वारा लाए गए कथित ‘शिक्षा सुधारों’ ने वो किया, जो अधिक मिठास शरीर के साथ करती है – विनाश।
आज मार्क्स के नाम पर जो लूट खसोट शैक्षणिक संस्थानों में मची है उसके बारे में जितना लिखा जाए उतना कम है। इसके कारण न जाने कितने जीवन बर्बाद हो रहे हैं, कितने सपनों पर पानी फिर रहा है। इसी से निपटने हेतु हाल ही में राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अंतर्गत CUET परीक्षा का प्रस्ताव पारित हुआ जिसके अंतर्गत अब 10वीं और 12वीं के परीक्षा के अंकों को अधिक वरीयता नहीं दी जाएगी।
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परंतु समस्या यहीं पर नहीं खत्म होती है। 10वीं और 12वीं के परीक्षाओं के कथित टॉपरों को जो अनावश्यक लाइमलाइट मिलती है, वो लाइमलाइट हटते ही उनका क्या होता है, कभी किसी ने सोचा है? क्यों सोचेंगे, उपयोगिता खत्म, काम खत्म। 90 प्रतिशत या उससे अधिक नंबर लाने की इसी अंधी दौड़ में अब नंबर कमाने की कला इतिहास हो चुकी है। अब प्रथम श्रेणी केवल कथाओं तक ही सिमट कर रह चुकी है और फिलहाल के लिए इस भेड़चाल का कोई रामबाण इलाज तो दूर दूर तक नहीं दिखाई देता।