दुनिया में सनातन ही एकमात्र ऐसा धर्म है जिसने बहुसंख्यक रहने पर भी अल्पसंख्यक अधिकारों की उत्कृष्ट मानदंडों को उठाए रखा। पर, इस संस्कृति के अनुयायी जब जब अल्पसंख्यक बने तब तब मूलभूत अधिकारों के लिए दर-दर ठोकरें खाई। कहीं-कहीं पर तो भागकर अपनी जान भी बचायी। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण पाकिस्तान और बांग्लादेश में देखने को मिलेगा जबकि अल्पसंख्यकों को कैसे रखा जाता है, इसका उदाहरण आप को हिंदुस्तान में दिखेगा जो इसके संविधान के अनुच्छेद 29-30 के माध्यम से भी प्रतिबिंबित होता है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि भारत में भी लगभग ऐसे 10 राज्य हैं जहां हिंदू आबादी अल्पसंख्यक हैं जैसे पंजाब पूर्वोत्तर के राज्य। कुछ कुछ राज्यों में व्यापक जनगणना देखने पर आपको हिंदू बहुसंख्यक में तो लगेंगे पर उनकी यही स्थिति उनके शोषण का कारक बन रही है, जैसे केरल और बंगाल यहां पर तथाकथित अल्पसंख्यक आबादी 30 से 45% के बीच है। आबादी और अनुपातिक जनसंख्या के हिसाब से यह भले ही अच्छी जनसंख्या की अवस्था में हैं पर सरकार के सारे कल्याणकारी अल्पसंख्यक योजनाओं का एकमेव लाभ उठाते हैं और बाकी बची प्रथा 50% बहुसंख्यक आबादी बस मुंह ताकती रहती है।
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अल्पसंख्यक निर्धारण के लिए याचिका
अल्पसंख्यक निर्धारण के इस मामले में न्यायालय द्वारा ऐतिहासिक टीएमए पाई फैसले को लागू करने का निर्देश दिया गया, जिसमें कहा गया है कि राज्य में अल्पसंख्यकों की पहचान की जानी चाहिए। पर चार सालों के बीत जाने के बावजूद केंद्र ने सोमवार को भी इस मुद्दे पर अपनी राय बनाने के लिए अदालत से और समय मांगना जारी रखा। सरकार ने कहा कि इस मुद्दे के “दूरगामी प्रभाव” हैं और “राज्य सरकारों और अन्य हितधारकों” के साथ और अधिक चर्चा की आवश्यकता है।
अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय की याचिका के जवाब में दायर एक हलफनामे में अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय ने कहा- “इस रिट याचिका में शामिल प्रश्न के पूरे देश में दूरगामी प्रभाव हैं और इसलिए, हितधारकों के साथ विस्तृत विचार-विमर्श के बिना कोई भी कदम देश के लिए एक अनपेक्षित जटिलता हो सकता है।”
हालांकि उपाध्याय की वर्तमान याचिका 2020 में दायर की गयी थी लेकिन उन्होंने 2017 में हिंदुओं को अल्पसंख्यक का दर्जा देने की मांग के साथ पहली बार शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाया था जिसमें कहा गया था कि केवल केंद्र ही वह राहत दे सकता है जो वह मांग रहा था।
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अल्पसंख्यक मंत्रालय की लीपापोती
अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय के एक सचिव द्वारा तीन पन्नों के ताजा हलफनामे में कहा गया है- “हालांकि अल्पसंख्यकों को अधिसूचित करने की शक्ति केंद्र सरकार के पास है लेकिन याचिका में उठाए गए मुद्दों के संबंध में केंद्र सरकार द्वारा तैयार किया जाने वाला स्टैंड राज्य सरकारों और अन्य हितधारकों के साथ व्यापक परामर्श के बाद तैयार होगा।
अपने पिछले हलफनामे में भी सरकार को इस मुद्दे पर एक स्टैंड लेने के लिए कहा गया था और यहां तक कि अनुपालन में देरी के लिए उस पर 7,500 रुपये का जुर्माना लगाया गया था। राज्यों का कहना है कि उनके पास ही एक समूह को अल्पसंख्यक घोषित करने की शक्ति है। राज्यों ने उपाध्याय की याचिका को यह कहते हुए खारिज करने की भी मांग की कि याचिकाकर्ता द्वारा मांगी गयी राहतें बड़े सार्वजनिक या राष्ट्रीय हित में नहीं हैं।
हालांकि, जब इस हलफनामे पर 28 मार्च को सुनवाई हुई तो सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि उन्होंने इसकी समीक्षा नहीं की है और न्यायमूर्ति एस के कौल की अध्यक्षता वाली पीठ से एक नया हलफनामा पेश करने के लिए समय मांगा है। चार सप्ताह का समय देते हुए अदालत ने कहा, “हमने विद्वान एसजी को इस तथ्य से अवगत कराया है कि चार सप्ताह का मतलब 28 दिन है।”
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उपाध्याय की याचिका 2011 की जनगणना पर आधारित है
उपाध्याय की याचिका 2011 की जनगणना पर आधारित है जिसके अनुसार लक्षद्वीप, मिजोरम, नागालैंड, मेघालय, जम्मू-कश्मीर, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और पंजाब में हिंदू अल्पसंख्यक हैं। उन्होंने तर्क दिया कि टी एम ए पई के फैसले के अनुसार इन राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में समुदाय को अल्पसंख्यक का दर्जा दिया जाना चाहिए.
उपाध्याय ने पहली बार 2017 में सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था, जिसमें अल्पसंख्यकों की पहचान के लिए उचित दिशा-निर्देशों के लिए प्रार्थना की गई थी और राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग (एनसीएम) अधिनियम की धारा 2 (सी) के तहत मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध और पारसी घोषित करने वाली केंद्रीय अधिसूचना को रद्द करने के लिए प्रार्थना की गई थी।
पर, इस मामले पर केंद्र सरकार की निष्क्रियता अचंभित करने वाली है। अश्विनी उपाध्याय एक अधिवक्ता के रूप में बहुसंख्यक समुदाय के हक की आवाज को उठाने का साहसिक काम कर रहे हैं पर केंद्र सरकार को भी यह सोचना होगा की बहुसंख्यक समुदाय को उनकी राष्ट्रव्यापी स्थिति और जनसांख्यिकी आंकड़े के आधार पर वास्तविक अल्पसंख्यक अधिकारों से वंचित करना क्या अन्याय नहीं है? अगर यह अन्याय उनकी निष्क्रियता और आलस्य के कारण हो रहा है तो यह एक शर्मनाक स्थिति है और अगर यह मुस्लिम तुष्टिकरण और ध्रुवीकरण की राजनीति के लिए हो रहा है तो यह शर्मनाक के साथ-साथ निंदनीय भी है।