अरे वाह वाह वाह वाह, सरस बात, मजामा, परंतु किसको पता था कि यही संवाद एक दिन किसी व्यक्ति के लिए ब्रह्मवाक्य समान होगा। कोई मृत लोगों और उनके संबंधियों की भावनाओं से भी धंधा कर सकेगा, ऐसा अमूमन कथाओं और फिल्मों में ही सुनने या देखने को मिलता है लेकिन फिर अस्तित्व में आते हैं तीस्ता सीतलवाड़ जैसे लोग।
इस लेख में हम जानेंगे कि कैसे एक महिला ने वर्षों तक दंगों से पीड़ित एक वर्ग विशेष की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया और ऐसे कारनामे किए जिसे देख तो अब्दुल करीम तेलगी, हर्षद मेहता, यहां तक कि विजय माल्या तक सयाना दिखने लगे।
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तीस्ता सीतलवाड़ की क्या है भूमिका?
वर्तमान में सुप्रीम कोर्ट ने जाकिया जाफरी द्वारा दाखिल PIL याचिका को रद्द किया, जिसमें उसने PM मोदी को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त SIT द्वारा दिए गए क्लीन चिट को चुनौती दी थी। प्रश्न ये है कि ये क्लीन चिट किस परिप्रेक्ष्य में थी और इसमें तीस्ता सीतलवाड़ की भूमिका क्या है? वास्तव में 2012 में कई घंटों तक चलने वाली SIT की कार्यवाही में नरेंद्र मोदी की 2002 में भड़के गोधरा हिंसा के पश्चात के गुजरात दंगों में बतौर गुजरात के मुख्यमंत्री उनकी भूमिका पर जांच पड़ताल हुई, जिसमें उन्हें पूर्णतया निर्दोष सिद्ध किया गया था।
परंतु प्रश्न तो अब भी व्याप्त है कि आखिर तीस्ता सीतालवाड़ ने गुजरात के दंगों के नाम पर ऐसा क्या झोल कर दिया? दरअसल, सीतालवाड़ ने वर्षों तक सम्पूर्ण राष्ट्र को अपने असत्य के मकड़जाल में उलझा के रखा। और समझने के लिए हमें जाना होगा 27 फरवरी 2002 की ओर, जब ये समस्त कथा प्रारंभ हुई।
साबरमती एक्सप्रेस वाराणसी से अहमदाबाद के लिए प्रस्थान कर रही थी। ट्रेन सुबह लगभग पौने आठ बजे गोधरा पहुंची और जैसे ही वह अहमदाबाद के लिए प्रस्थान करने लगी किसी ने ट्रेन खींच दी। अचानक से 2000 से अधिक की संख्या में कट्टरपंथी मुसलमानों की भीड़ ने चारों ओर से ट्रेन पर हमला कर दिया और ट्रेन पर पत्थरबाजी करने लगे। उन्होंने प्रमुख तौर पर ट्रेन में कारसेवकों को निशाना बनाते हुए एस 6 को चारों ओर से बंद किया और ट्रेन बोगी को आग के हवाले कर दिया, जिसके कारण 59 निर्दोष प्राणी भस्मावशेष में परिवर्तित हो गए।
परंतु हिंसा का यह तांडव केवल गोधरा तक ही सीमित नहीं रहा। जैसे ही इसकी खबर गुजरात में फैली राज्य में चारों ओर बड़े स्तर पर दंगे होने लगे। अब लोगों के क्रोध की कोई सीमा नहीं रही, और फिर गुजरात में रक्तपात का वो समय भी देखने को मिला जिसे नियंत्रित करने के लिए तत्कालीन सरकार को भारतीय सेना की सहायता लेनी पड़ी, क्योंकि तीन दिन तक तो पड़ोसी राज्य सहायता तक देने को तैयार नहीं थे।
अब इसी रक्तपात में 28 फरवरी 2002 को जब आक्रोशित भीड़ गुलबर्ग सोसाइटी पहुंची, तो उनका सामना वयोवृद्ध कांग्रेसी नेता एहसान जाफरी से हुआ। इस बात में अब भी मतभेद है कि हिंसा किस ओर से पहले प्रारंभ हुई, परंतु स्वयं तहलका की रिपोर्ट के अनुसार एहसान जाफरी द्वारा फायरिंग करने से भीड़ आग बबूला हो गयी, जिसके कारण उनके साथ लगभग 69 अन्य लोगों को मार डाला गया।
लेकिन इसके पश्चात उत्पन्न हुई एक नयी प्रजाति – न्याय दिलाने वाली प्रजाति। ये छाती ठोक के बताती थी कि वह शोषितों और पीड़ितों, विशेषकर अल्पसंख्यकों को उनका न्याय दिलाएगी। ये पिछड़ों को उनका अधिकार दिलाएगी और वो अत्याचारी मोदी से उन्हें ‘मुक्त’ कराएंगी, और इन्हीं में अव्वल थी तीस्ता सीतालवाड़।
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तीस्ता का धंधा पानी 1993 में ही हो गया था प्रारंभ
तीस्ता सीतलवाड़ को ऐसा वैसा समझने की भूल कतई न करें, इनका धंधा पानी तो 1993 में ही प्रारंभ हो गया था जब बाबरी मस्जिद के विध्वंस के पश्चात ये और इनके पति जावेद आनंद ने कम्युनलिज़्म कॉम्बैट नामक मैगजीन शुरू किया था, जो बॉम्बे के दंगों के पश्चात भारत के सामाजिक दृष्टिकोण को एक नये सिरे से चित्रित करने का दावा करता था। इन्होंने 2002 में फादर सेडरिक प्रकाश, पत्रकार अनिल धारकड़, नाट्यकार विजय तेंदुलकर एवं एलीक पदमसी, गीतकार जावेद अख्तर एवं अभिनेता राहुल बोस के साथ मिलकर Citizens of Justice and Peace नामक संस्था प्रारंभ की। ये वही Citizens of Justice and Peace हैं, जिन्होंने लगभग 12 वर्षों तक नरेंद्र मोदी को बिना किसी ठोस आधार के अमेरिका में घुसने तक नहीं दिया था, केवल इसलिए क्योंकि गुजरात के दंगे उनके शासनकाल में हुए थे।
यदि आपको लगता है कि शहला राशिद, राना अयूब, साकेत गोखले ने अपनी विचारधारा के नाम पर अनुयाइयों से लाखों करोड़ों ठगे, तो आप निस्संदेह भ्रम में हैं। तीस्ता सीतलवाड़ की Citizens of Justice and Peace ने जिस प्रकार से गुलबर्ग सोसाइटी और बेस्ट बेकरी पर ‘अल्पसंख्यकों के न्याय’ के नाम पर धन और संख्याबल के सहारे नरेंद्र मोदी को झुकाने का प्रयास किया, उससे तो आश्चर्य होता है कि इन्हें नोबेल पुरस्कार क्यों नहीं मिला क्योंकि इन्हीं आधारों पर ‘शांति की प्रतिमूर्ति’ मलाला यूसुफजाई को भी तो पुरस्कार मिला है न?
परंतु अब प्रश्न तो ये भी उठते हैं कि जितने पैसे इन महोदया ने खाए हैं वो गए कहां? स्वयं वामपंथी शिरोमणि BBC की माने, तो तीस्ता ने उन रुपयों का जमकर दुरुपयोग किया। 2015 की एक रिपोर्ट के अनुसार, “गुलबर्ग सोसाइटी में रहने वाले कुछ लोगों का आरोप है कि तीस्ता ने गुलबर्ग सोसाइटी में एक म्यूज़ियम बनाने के लिए विदेशों से लगभग डेढ़ करोड़ रुपये जमा किए लेकिन वे पैसे उन तक कभी नहीं पहुंचे। जनवरी 2014 में तीस्ता, उनके पति जावेद आनंद, एहसान जाफ़री के पुत्र तनवीर जाफ़री और दो अन्य के विरुद्ध अहमदाबाद क्राइम ब्रांच में एफ़आईआर दर्ज की गयी। जांच के बाद पुलिस ने दावा किया कि तीस्ता और जावेद ने उन पैसों से अपने क्रेडिट कार्ड के बिल चुकाये।”
उसी रिपोर्ट में आगे ये भी बताया गया कि “सीबीआई ने उन दोनों के विरुद्ध एफ़आईआर दर्ज कर उनके ज़रिए चलाए जा रहे दो एनजीओ ‘सबरंग ट्रस्ट’ और ‘सिटीजन्स फ़ॉर जस्टिस एंड पीस’ के दफ़्तरों पर छापे मारे हैं। लेकिन सीबीआई का केस भी उसी एक आरोप पर आधारित है कि उन्होंने म्यूज़ियम बनाने के लिए पैसे लिए और उनका ग़लत इस्तेमाल किया। इसी साल मार्च में गुजरात सरकार ने केंद्रीय गृहमंत्री को एक पत्र लिखकर तीस्ता और उनके पति जावेद आनंद के एनजीओ की जांच करने की अपील की थी।
गुजरात सरकार का आरोप है कि अमेरिका स्थित फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन से तीस्ता ने अपने एनजीओ के लिए जो पैसे लिए उनका इस्तेमाल उन्होंने सांप्रदायिक सौहार्द्र बिगाड़ने और विदेशों में भारत की छवि ख़राब करने के लिए किया। गुजरात सरकार के पत्र के केवल एक सप्ताह बाद गृह मंत्रालय ने फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन को निगरानी सूची में डाल दिया”।
मारने वाले का धर्म हो या नहीं, इस पर काफी लंबी, कभी न समाप्त होने वाली राजनीति हो सकती है, परंतु जो मृत लोगों और उन पर आश्रित लोगों की भावनाओं में भी अपनी स्वार्थ सिद्धि खोजे उससे अधिक निकृष्ट इस संसार में कोई दूसरा नहीं हो सकता है। ऐसी ही निकृष्ट है तीस्ता सीतलवाड़ और अब समय आ चुका है कि ऐसे लोगों को चिह्नित करके इनके काले कारनामों को सबके समक्ष प्रस्तुत कर न्यायिक एजेंसियों को इनके विरुद्ध कड़ी से कड़ी कार्रवाई के लिए प्रेरित किया जाए।
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