आइटम नंबर एक ऐसा रोग है, जिसकी जड़ें काफी गहरी हो चुकी हैं और इसका शिकार केवल बॉलीवुड नहीं, वरन सम्पूर्ण भारतीय सिनेमा है। अब स्थिति ऐसी है कि भारतीय सिनेमा में अगर आइटम नंबर न हो तो उसे अलग ही दृष्टि से देखा जाता है। इस आर्टिकल में विस्तार से जानेंगे कि कैसे आइटम नंबर ने फिल्म उद्योग पर अपना प्रभाव और ये कैंसर एक समय लगभग फिल्म उद्योग को लील ही गया था। आइटम नंबर के बारे में परिचित तो अधिकतम होंगे, परंतु ये रोग क्यों है? इसकी उत्पत्ति कैसे हुई? इसका प्रारंभ कहने को तो भारतीय फिल्म उद्योग में बोलते हुए फिल्मों के आगमन से ही हो सकता है, जब ‘आलम आरा’ 1931 में प्रदर्शित हुई थी। परंतु 1950 के दशक तक पहले कुक्कू, वैजयंतीमाला और फिर हेलेन ने धीरे- धीरे नृत्य कला के माध्यम से अपनी अलग छाप स्थापित करनी प्रारंभ की। इनके लिए विशिष्ट सीक्वेंस रचे जाने लगे, जो बाद में आइटम नंबर कहलाये जाने लगे।
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फिल्म उद्योग पर आइटम नंबर का प्रभाव
1958 में प्रदर्शित ‘हावड़ा ब्रिज’ में चर्चित गीत ‘मेरा नाम चिन चिन चू’ से हेलेन ने जो प्रभाव डाला, उससे आइटम नंबर की अपनी पहचान स्थापित हो गई। उसके पश्चात चाहे “दिलबर दिल से प्यारे”, कारवां (1971) से “पिया तू अब तो आजा “, शोले (1975) से “महबूबा महबूबा” और डॉन (1978) से “ये मेरा दिल”, तीसरी मंजिल से “ओ हसीना जुल्फों वाली” और इंतकाम से “आ जाने जाना” हो, हेलेन बॉलीवुड के लिए आइटम गर्ल की प्रथम विकल्प बन गई । गंगा जमुना और जिंदगी जैसी फिल्मों में अभिनेता ने “तोरा मन बड़ा पापी” और “घुंघरा मोरा छम छम बाजे” जैसे गीतों में अर्ध-शास्त्रीय भारतीय नृत्य किया। हेलेन के प्रभाव में मधुमती, बेला बोस, लक्ष्मी छाया, जीवनकला, अरुणा ईरानी, शीला आर और सुजाता बख्शी जैसे अन्य कलाकारों को भी अवसर मिला, परंतु वे उतना प्रभाव नहीं जमा पाए।
परंतु इस एकाधिकार पर जल्द ही धावा बोला जाने लगा और 70 के दशक में सेंध पड़ ही गई। जयश्री टी, बिंदु, अरुणा ईरानी और पद्मा खन्ना जैसी अभिनेत्रियों ने हेलेन को चुनौती भी दी और अपनी अलग पहचान भी बनाई। इस युग में धर्मेंद्र, जीनत अमान और रेक्स हैरिसन अभिनीत शालीमार में “आदिवासी और बंजारा “ आइटम नंबर थे। अब आइटम नंबर केवल बॉलीवुड तक ही सीमित नहीं थे, ये सम्पूर्ण भारतीय उद्योग का हिस्सा बन चुके थे।
1980 का दशक आते आते आइटम गर्ल और प्रमुख अभिनेत्री के बीच का अंतर अब मिटने लगा था। व्यवसायीकरण का दोष कहिए या फिर अश्लीलता का दुष्प्रभाव, पर अब प्रमुख अभिनेत्रियां भी कूद-कूद कर आइटम नंबर करने लगी। 1980 के दशक के आसपास वैंप और नायिका एक ही आकृति में विलीन हो गए और मुख्य अभिनेत्री ने बोल्ड नंबरों का प्रदर्शन करना शुरू कर दिया था।
फिल्म ‘तेजाब’ के बाद बदल गई चीजें
“आदिवासी और बंजारा ” आइटम नंबरों के लिए दीवानगी ने जल्द ही स्लीक कोरियोग्राफी का स्थान ले लिया। 1990 के दशक के अंत में फिल्मी गीतों पर आधारित टेलीविजन शो के प्रसार के साथ, फिल्म निर्माताओं को यह एहसास हो गया था कि सिनेमाघरों में दर्शकों को लुभाने का एक असाधारण तरीका गीतों के दृश्य पर अत्यधिक खर्च करना था। इसलिए विषय और कथा की परवाह किए बिना, शानदार भव्य सेट, वेशभूषा, विशेष प्रभाव और अतिरिक्त नर्तकियों को शामिल करते हुए एक विस्तृत गीत और नृत्य दिनचर्या को हमेशा एक फिल्म में दिखाया जाने लगा। यह दावा किया गया कि इसने फिल्म के “रिपीट वैल्यू” में अत्यधिक योगदान दिया, जिसमें योगदान दिया तेजाब फिल्म की बम्पर सक्सेस ने।
1980 के दशक के अंत में “एक दो तीन” गीत को जब फिल्म तेजाब में जोड़ा गया था, तो इसने मुख्य अभिनेत्री माधुरी दीक्षित का भाग्य बदल दिया और उन्हें रातोंरात सुपरस्टार बना दिया। फिर क्या था, कोरियोग्राफर सरोज खान के साथ उनकी साझेदारी ने विवादास्पद “चोली के पीछे क्या है” और “धक धक” (बेटा ) सहित कई हिट फिल्में दी हैं। फिल्म खलनायक की रिलीज के तुरंत बाद, प्रेस रिपोर्ट्स में कहा गया कि लोग फिल्म को बार-बार देख रहे थे, लेकिन केवल “चोली के पीछे क्या है” गाने के लिए जिसमें दीक्षित शामिल थी। यहीं से बॉलीवुड द्वारा महिलाओं के वस्तुकरण की शुरुआत हुई।
बॉलीवुड में महिलाओं की स्थिति शर्मसार करने वाली है
बता दें कि संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रायोजित एक वैश्विक अध्ययन के अनुसार, भारत अपने फिल्म जगत में 25.2 प्रतिशत के साथ आकर्षक महिलाओं को दिखाने में सबसे ऊपर हैं और इनमें से 35 प्रतिशत महिला पात्रों को कुछ नग्नता के साथ दिखाया गया है। अध्ययन से पता चलता है कि भारतीय फिल्मों में महिला पात्रों के यौनकरण का प्रचलन काफी अधिक है। परंपरागत रूप से बॉलीवुड में महिलाओं की भूमिका हमेशा पुरुषों के इर्द-गिर्द घूमती रही है। तो क्या यह उचित है? कदापि नहीं!
बॉलीवुड हो या कोई अन्य फिल्म उद्योग, अधिकतर होते कूप मंडूक हैं, जो भारतीय दर्शकों से केवल अधिक पैसा कमाने के उद्देश्य से कामुक दृश्य परोसते हैं। ये नारीवादी समर्थक महिलाओं पर आपत्ति जताने और उन्हें केवल यौन तुष्टीकरण की वस्तु के रूप में चित्रित करते हैं। ऐसे में सवाल यह भी उठता है कि क्या फिल्मों में इस तरह के महिला विरोधी व्यवहार को बढ़ावा देने की जिम्मेदारी से महिला कलाकार मुंह फेर सकती हैं? इसका जवाब है नहीं, वे बिल्कुल नहीं कर सकती हैं। फिल्मों में महिला कलाकार मूकदर्शक बनी रहती हैं। वास्तव में, वे इस तरह के चित्रणों में भी इच्छुक भागीदार होती हैं। ऐसे में यह आवश्यक है कि हम इन लोगों को स्पष्ट बताएं कि वे क्या है और कहां गलत हैं। आइटम नंबर का उद्देश्य किसी कथा में मनोरंजन लाने के लिए किसी समय हुआ करता था, परंतु अब ये न केवल अतार्किक प्रतीत होता है, अपितु हमारे राष्ट्र की छवि को भी धूमिल करता है और यह स्वीकार्य नहीं है।
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