कट्टरपंथी इस्लामिस्ट अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित कर रहे हैं, इसका उपचार होना ही चाहिए

कारगिल में कट्टरपंथी इस्लामिस्ट शांतिपूर्ण और अल्पसंख्यक बौद्धों को परेशान कर रहे हैं।

KARGIL

Source: Outlook

लेह और कारगिल जम्मू-कश्मीर के दो जिले थे। मुख्य रूप से यही दो जिले लद्दाख क्षेत्र को प्रदर्शित करते थे। पर, चूँकि ये जम्मू कश्मीर के जिले थे उन्हें हमेशा से प्रताड़ित किया गया। मुस्लिम बहुल जम्मू कश्मीर राज्य में ना तो उनकी बातें सुनी गईं ना ही उन्हें कोई अधिकार दिए गए। दिन बदले और मोदी सरकार ने लद्दाख को जम्मू कश्मीर से अलग कर दिया और केन्द्रशासित प्रदेश के रूप में अपने पास रखा ताकि अगर जम्मू कश्मीर के कट्टरपंथ और राज्य सरकार के भेदभाव से लद्दाख की विकास यात्रा और शांति प्रभावित ना हो सके और सभी लोग अपने-अपने धर्म का आजादी से अनुसरण कर सकें लेकिन हालात अब भी सुधरे नहीं हैं। अब भी इस्लामिस्ट यहां बौद्धों को अपना मठ नहीं बनाने दे रहे।

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जम्मू कश्मीर से अलग होने के बाद लद्दाख की धार्मिक जनसांख्यिकी काफी संतुलित दिखती है. इस क्षेत्र में 46% शिया मुस्लिम,  40% बौद्ध (मुख्य रूप से तिब्बती बौद्ध), 12% हिंदू और 2% अन्य हैं। इसके साथ ही कारगिल में भी मुस्लिम बहुसंख्यक हैं। कारगिल में बौद्धों ने अपने एक पूजा स्थल को दोबारा से बनाने सोची।

उन्होंने निर्धारित किया की 1961 में जम्मू और कश्मीर सरकार द्वारा अल्पसंख्यक बौद्ध समुदाय को कारगिल में जो 2-कनाल भूमि गोम्पा यानी बौद्ध मठ का निर्माण हेतु आवंटित की गई थी उसी पर मोनास्ट्री बनेगी। किन्तु, मुस्लिम समुदाय इस निर्माण में अड़ंगा लगा रहा है। अब कारगिल ठहरा मुस्लिम बहुल इलाका, अतः मामला फंस गया। बौद्ध संगठन सिर्फ अपने लिए एक पूजा स्थल की मांग कर रहें है वो भी उन्हें नहीं दिया जा रहा।

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ऐसे में एक बार फिर से इस्लामिस्टों ने साबित किया है जहां भी वो ज्यादा आबादी में होंगे वहां दूसरे समुदाय के लोगों को शांति से नहीं रहने देंगे- उन्हें पूजा/उपासना नहीं करने देंगे- हाल में केरल में क्या हुआ वो भी हमने देखा- हमने देखा कि किस तरह से केरल में PFI ने एक रैली निकाली। उस रैली में हिंदू और ईसाईयों के विरुद्ध नारे लगाए गए। कत्लेआम तक की बात की गई।

ऐसे में सवाल खड़ा होता कि क्या इस्लामिस्ट भारत में अल्पसंख्यकों को रहने नहीं देंगे? सवाल यह भी है कि इन इस्लामिस्टों का आखिरकार इलाज क्या है?

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