मुस्लिम अल्पसंख्यकों लिए बीते 8 सालों में निर्णयों से कोई अनभिज्ञ नहीं है। तीन तलाक जैसी कुरीतियों से निजात दिलाने से लेकर सिविल सेवा की तैयारियों की कोचिंग देने से लेकर ऐसे कई काम हैं जो प्रमुख रूप से इस वर्ग के लिए किए गए। अब महिलाऐं और पुरुष दोनों ही कई बड़ी योजनाएं और अपने भविष्य निहित तरक्की देख चुके हैं। इस वर्ग में अब जिस तबके का उत्थान सुनिश्चित किया जाना है वो है “बच्चियाँ।” यह वो वर्ग है जो अपने कानून और तय नियामकों से स्वयं को सदैव दूर ही पाता है। हाल ही में कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले समेत उन सभी बिंदुओं पर पुनर्विचार करना ज़रूरी है क्योंकि यह मुस्लिम समुदाय की बच्चियों के भविष्य से खिलवाड़ से कम नहीं है।
दरअसल, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने सोमवार को फैसला सुनाया कि 15 साल से अधिक उम्र की मुस्लिम लड़की अपनी पसंद के व्यक्ति के साथ शादी का अनुबंध करने के लिए सक्षम है। यह मात्र इसलिए स्वीकृत हो गया क्योंकि न्यायमूर्ति जसजीत सिंह बेदी की एकल-न्यायाधीश पीठ ने पठानकोट के एक मुस्लिम दंपति की याचिका पर यह आदेश पारित किया, जिन्होंने सुरक्षा के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया था। इसके बाद सुनवाई के दौरान इस्लामिक शरिया नियम का हवाला देते हुए जस्टिस बेदी ने कहा कि मुस्लिम लड़की की शादी मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत होती है।.ऐसे में इसे मान्य करार कर दिया गया।
और पढ़ें: महिलाओं के लिए विवाह की न्यूनतम आयु बढ़ाने के निर्णय ने Islamists को सुलगने पर विवश कर दिया है
पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट
अब अगर ऐसा ही है तो दरवाजे चर्चा के लिए भी खुल गए हैं और बदलाव के भी रास्ते अब और सुगम हो जाएंगे। जिस प्रकार मुस्लिम महिलाओं को ट्रिपल तलाक जैसी कुप्रथा से निजात मिली है, उससे यह तो तय है कि नियत हो तो कानून के दायरे में बहुत कुछ सकारात्मक किया जा सकता है, अब यदि नियत ही वोट बैंक साधने और हिमायती बनने की होगी तो कौन क्या ही कर लेगा। ऐसे में अब कोर्ट के इस नतीजे ने पुनर्विचार और केंद्र द्वारा नए बिंदु को साधने का लक्ष्य दे दिया है।
मुस्लिम बच्चियों को कम उम्र में शादी के बंधन में झोंकने की प्रवृत्ति ने उनके स्वास्थ्य और भविष्य के साथ खिलवाड़ किया है। ऐसे में केंद्र सरकार का अगला निशाना यही होना चाहिए कि कैसे उन बच्चियों का भविष्य सुरक्षित हो सके। यूँ तो सरकार अब लड़कियों की शादी की न्यूनतम उम्र 18 साल से बढ़ाकर 21 साल करने पर विचार कर रही है पर इस निर्णय के लागू होने से पूर्व ही कई निर्णय ऐसे भी हैं जो पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट ने बीते सोमवार को दिए।
Govt decision to raise women's marriage age to 21 is causing pain to some: PM Narendra Modi's jibe at rivals
— Press Trust of India (@PTI_News) December 21, 2021
यद्यपि ‘धर्मनिरपेक्ष’ कानून, बाल विवाह निषेध अधिनियम 2005 ने लड़कियों और लड़कों के लिए विवाह की न्यूनतम आयु क्रमशः 18 और 21 वर्ष निर्धारित की है। लेकिन भारत में शादियां हर धर्म के ‘पर्सनल लॉ’ के अनुसार तय होती हैं। मुसलमानों को छोड़कर, सभी धार्मिक कानूनों ने विवाह को नियंत्रित करने वाली नीति के अनुसार विवाह की न्यूनतम आयु में वृद्धि की है। इसके अलावा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लड़कियों की न्यूनतम शादी की उम्र को 21 साल तक बढ़ाने का भी तर्क दिया है।
लेकिन बात वहीं है जब सामान्य कानून नियामक इस परिप्रेक्ष्य में लागू ही नहीं हो रहे हैं। हालांकि, राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) के अध्यक्ष प्रियांक कानूनगो इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील कर सकते हैं, लेकिन जब तक धर्मों को नियंत्रित करने वाले पर्सनल लॉ नहीं होंगे, तब तक इस संबंध में कोई प्रगति नहीं होने वाली है।
पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने एक निर्णय में 15 साल की नाबालिग मुस्लिम लड़कियों की शादी को जायज़ करार दिया है।
बाल अधिकार संरक्षित करने के उद्देश्य से उक्त निर्णय का अध्ययन किया जा रहा है,आवश्यक होगा तो निर्णय के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में याचिका लगाई जाएगी।#ChildRights pic.twitter.com/89fXIEydlD— प्रियंक कानूनगो Priyank Kanoongo (मोदी का परिवार) (@KanoongoPriyank) June 20, 2022
और पढ़ें: मेवात के बाद अब हैदराबाद में मुसलमान जल्दबाजी में करवा रहे हैं अपनी बेटियों की शादी
इस निर्णय से मुस्लिम बच्चियों का उत्थान नामुमकिन
यह केवल एक आयु की बात नहीं है, कम उम्र में शादी होना बच्चियों की शादी के साथ ही गर्भावस्था को भी प्रभावित करता है। वो कम आयु में बच्चे को जन्म देने में इतनी सक्षम नहीं होती हैं, बावजूद इससे उनके स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ किया जाता है। इसके अलावा, कम उम्र में गर्भावस्था से महिला के व्यक्तिगत विकास की संभावना कम हो जाती है और प्रजनन दर बढ़ जाती है। NFHS-5 (राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण) के आंकड़ों में कहा गया है कि 2019-21 में मुसलमानों में TFR (कुल प्रजनन दर) 2.36 थी, जिसका अर्थ है कि 100 मुस्लिम महिलाएं 236 बच्चे पैदा कर रही थीं।
इन्हीं उक्त कारणों के कारणवश अब अल्पसंख्यक और उनमें भी मुस्लिम बच्चियों पर नया नीति निर्धारण और विशेष कानून के प्रावधानों पर बात होनी चाहिए। इसलिए सभी सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक कोणों पर विचार करते हुए, सरकार को सभी धर्मों को समान रूप से नियंत्रित करने वाला सार्वभौमिक कानून लाने की आवश्यकता है। जब तक पर्सनल लॉ बोर्ड गिद्ध की तरह निर्णय और मुस्लिम बच्चियों के हित-अहित का निर्णय लेता रहेगा तब तक इस वर्ग का उत्थान मुमकिन ही नहीं है।
और पढ़ें: अब बेगम साहिबा भी दे सकेंगी मियां साहब को तलाक़, महिला विरोधी मियाओं को केरल हाईकोर्ट का झटका
TFI का समर्थन करें:
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की ‘राइट’ विचारधारा को मजबूती देने के लिए TFI-STORE.COM से बेहतरीन गुणवत्ता के वस्त्र क्रय कर हमारा समर्थन करें।