1991 में एक फिल्म आई, जिसे खूब पुरस्कार मिले। इस फिल्म के लिए अभिनेता से लेकर सभी पात्रों को खूब प्रशंसा मिली और निर्देशक को ‘सर्वश्रेष्ठ निर्देशक’ का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। इस फिल्म का नाम था ‘एक डॉक्टर की मौत’, जिसे निर्देशित किया था चर्चित निर्देशक तपन सिन्हा ने और जिसमें प्रमुख भूमिकाओं में थे पंकज कपूर, शबाना आजमी, इरफान खान इत्यादि। पर क्या आपको पता है कि यह एक ऐसे व्यक्ति पर आधारित था, जिसकी कथा वास्तविकता की प्रतिमूर्ति थी और उसकी व्यथा जानकर आपका शासन और व्यवस्था पर से विश्वास कहीं न कहीं डोलने लगेगा?
अपने मस्तिष्क पर यदि जोर दें, तो सोचिए भारत की प्रथम टेस्ट ट्यूब बेबी का नाम क्या है और वो कब पैदा हुई? आप में से कई लोगों के दिमाग में उत्तर आएगा – बेबी हर्षा / इंदिरा, जिसका जन्म 1986 में आईवीएफ़ तकनीक के माध्यम से हुआ था। परंतु ये बात पूर्णतया असत्य है। यह उपलब्धि भारत ने वर्षों पहले प्राप्त कर ली थी, जब एक बांग्ला डॉक्टर विश्व में आईवीएफ़ तकनीक से इस कार्य को सिद्ध करने में सफलता प्राप्त करने वाले केवल दूसरे व्यक्ति बने, परंतु वो नौकरशाही और कुत्सित राजनीति के शिकार बनकर रह गए। यह कथा है डॉक्टर सुभाष मुखोपाध्याय की, जिन्हें जीते जी कभी भी अपनी उपलब्धि का यश प्राप्त नहीं हुआ।
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मुखोपाध्याय को मिला सिर्फ अपमान
बहुमुखी प्रतिभा के धनी इस योग्य डॉक्टर का जन्म 16 जनवरी 1931 को तत्कालीन बिहार (अब वर्तमान झारखंड) के हजारीबाग में एक बंगाली ब्राह्मण परिवार में हुआ। कलकत्ता विश्वविद्यालय से अपना स्नातक, परास्नातक एवं पीएचडी करने के पश्चात उन्होंने एडिनबर्ग की यात्रा की, जहां उन्होंने ‘Reproductive Endocrinology’ में अपनी दूसरी पीएचडी प्राप्त की। तत्पश्चात उन्होंने 1967 से 1975 तक एनआरएस मेडिकल कॉलेज, कोलकाता को अपनी सेवाएं दी, जिसमें उनका परिचय डॉक्टर सुनीता मुखर्जी और डॉक्टर सरोज कान्ति भट्टाचार्य जैसे गणमान्य सदस्यों से हुआ। फिर 1978 में जब डॉक्टर पैट्रिक स्टेपटो और डॉक्टर रॉबर्ट एडवर्ड्स ने इंग्लैंड में इन विट्रो फर्टिलाइजेशन (In Vitro Fertilization) से गर्भ जना, तो फिर तीन माह से भी कम समय में डॉक्टर मुखर्जी और डॉक्टर भट्टाचार्य के साथ मिलकर डॉक्टर सुभाष ने इसी तकनीक को भारत में आत्मसात करने का निर्णय किया।
उस वक्त डॉक्टर सुभाष मुखोपाध्याय के लैब में भी एक भ्रूण आकार ले रहा था। 25 जुलाई की घोषणा के महज 67 दिनों के भीतर 3 अक्टूबर 1978 को डॉ मुखोपाध्याय ने भी एक घोषणा की। उन्होंने दुनिया को बताया की टेस्ट ट्यूब के जरिए बच्चे को जन्म देने का उन्होंने भी सफल प्रयोग कर लिया है..! टेस्ट ट्यूब के जरिए जन्मी बच्ची को नाम मिला ‘दुर्गा’। इस नाम के पीछे की कहानी यह है कि 3 अक्टूबर 1978 को दुर्गा पूजा का पहला दिन था, इसलिए उसका नामकरण ‘दुर्गा’ कर दिया गया। अगर 67 दिन पहले दुर्गा का जन्म हुआ होता, तो टेस्ट ट्यूब पद्धति से बच्चे को जन्म देने वाला भारत दुनिया का प्रथम देश बनता। जिस राष्ट्र ने संसार को ‘सुश्रुत संहिता’ दी, जिस राष्ट्र ने संसार को चिकित्सा करना सिखाया, वह पुनः अपने मूल शास्त्रों की ओर लौटता हुआ प्रतीत हो रहा था, परंतु सीमित संसाधन एवं तकनीक के अभाव में भी डॉ मुखोपाध्याय का प्रयोग शत-प्रतिशत सफल रहा। यदि किसी अन्य देश में अगर वह होते, तो शायद वहां की सरकार उनकी इस कामयाबी को सिर आंखों पर रखती, लेकिन उन्हें मिला तो बस अपमान!
उन्हें वैश्विक मंचों पर जाने ही नहीं दिया गया!
डॉक्टर मुखोपाध्याय वैश्विक मंच पर जाकर सबको अपने प्रयोग के बारे में बताना चाहते थे, लेकिन तत्कालीन सरकार ने इसकी आज्ञा उन्हें नहीं दी। इसके उलट उस वक्त की तत्कालीन पश्चिम बंगाल सरकार, जिसका नेतृत्व धूर्त और कपटी ज्योति बसु के हाथ में था, उन्होंने उनके दावों की जांच के लिए 18 नवंबर 1978 को एक कमिटी बना दी। कमिटी को चार बिंदुओं की जांच करनी थी और उन्होंने अजीबोगरीब सवाल पूछे और अंततः उनके दावे को बोगस करार दे दिया। इस देश को डॉक्टर मुखोपाध्याय के प्रतिभा का सम्मान कितना था, इस बात का अंदाजा इस बात से ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि उनका निरीक्षण करने वाली कमिटी के अध्यक्ष रेडियोफिजिक्स के शास्त्री थे, जिनका चिकित्सा से छत्तीस का आंकड़ा था। उनका स्पष्ट रूप से मजाक उड़ाया जा रहा था। उन्हें जापान में अपने प्रयोग के बारे में बताने के लिए आमंत्रित किया गया था, लेकिन सरकार ने उन्हें वहां भी जाने की इजाजत नहीं दी और तो और 1981 में सजा के तौर पर उनका ट्रांसफर रीजनल इंस्टीट्यूट ऑफ ऑफ्थॉल्मोलॉजी (कोलकाता) में कर दिया गया।
डॉक्टर मुखोपाध्याय के लिए ये अपमान असह्य था। इस पूरे प्रकरण ने उन्हें भीतर तक तोड़ दिया। वह तिल-तिल कर मरते रहें और अंत में उन्होंने 19 जून 1981 को अपने ही घर में आत्महत्या कर ली। अपने अंतिम पत्र में उन्होंने लिखा था कि “मैं हर दिन एक हृदयाघात की प्रतीक्षा नहीं कर सकता मुझे मारने के लिए….।” ऐसा लगा कि डॉक्टर मुखोपाध्याय के शोध व्यर्थ चले जाएंगे और उनके कार्यों को कभी न्याय नहीं मिलेगा। परंतु जिस व्यक्ति को भारत के प्रथम टेस्ट ट्यूब बेबी जनने का श्रेय मिलता है, उनके भाग्य को कुछ और ही स्वीकार था। वर्ष 1986 में भारत के ही एक डॉक्टर टी. सी. आनंद कुमार ने भी टेस्ट ट्यूब पद्धति से एक बच्चे को जन्म दिया। उन्हें भारत में टेस्ट ट्यूब बेबी को जन्म देनेवाले पहले डॉक्टर का खिताब मिला।
वर्ष 1997 में उनके हाथ वे महत्वपूर्ण दस्तावेज लग गए, जो इस बात के प्रमाण थे कि उनसे पहले डॉ मुखोपाध्याय ने टेस्ट ट्यूब बेबी को जन्म दिया था। सभी दस्तावेजों के गहन अध्ययन के बाद डॉ आनंद कुमार इस परिणाम पर पहुंचे कि भारत को टेस्ट ट्यूब बेबी की सौगात देने वाले पहले वैज्ञानिक डॉ सुभाष मुखोपाध्याय ही थे। डॉ आनंद कुमार की पहल के चलते आखिरकार डॉ मुखोपाध्याय को भारत के पहले टेस्ट ट्यूब बेबी के जन्मदाता का खिताब मिला। इसी विषय पर 1990 में प्रख्यात फिल्म निर्देशक तपन सिन्हा ने ‘एक डॉक्टर की मौत’ नाम से फिल्म बनाई। फिल्म में मुख्य भूमिका पंकज कपूर ने निभाई थी। इसके बाद पूरी दुनिया में डॉक्टर सुभाष मुखोपाध्याय का नाम विश्व भर में प्रसिद्ध हो गया। यह विडंबना ही है कि डॉक्टर मुखोपाध्याय उस वामपंथी शासन के शिकार बने, जिसकी लालसा के कारण पूरा बंगाल आज नरक का पर्याय है।
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