महाराष्ट्र में तीन पहियों वाली महाविकास अघाड़ी सरकार अपने अंतिम दिन गिनने लगी हैं। अपने ही शिवसेना विधायकों की बगावत के कारण उद्धव ठाकरे की कुर्सी इस समय गहरे संकट में फंसी है। महाराष्ट्र की सियासत में यह भूचाल शिवसेना के वरिष्ठ नेता एकनाथ शिंदे और उनके समर्थकों की बगावत से आया है। दावा किया जा रहा है कि शिंदे गुट में इस समय 40 से अधिक विधायक शामिल हैं। इसके बाद से ही महाविकास अघाड़ी सरकार अल्पमत में पड़ती दिख रही हैं और उद्धव सरकार की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है।
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पहले भी की जा चुकी है बगावत
वर्तमान में केवल उद्धव ठाकरे के हाथों से कुर्सी ही नहीं बल्कि शिवेसना की कमान भी ढीली पड़ती दिख रही है। शिंदे के पास उद्धव ठाकरे से कहीं अधिक विधायकों का समर्थन हासिल हैं। वैसे, ऐसा पहली बार नहीं है जब शिवसेना को अपने कद्दावर नेताओं की बगावत का सामना करना पड़ा हो। 56 सालों के इतिहास में शिवसेना कई बार बगावत का सामना कर चुकी हैं। बाला साहेब ठाकरे के सामने तीन बार पार्टी में बगावत हुई थीं। वर्ष 1991 में छगन भुजबल, 2005 में नारायण राणे और 2006 में राज ठाकरे के शिवसेना छोड़ने से पार्टी में फूट पड़ी। परंतु एकनाथ शिंदे की बगावती तेवर से शिवसेना को पहली बार सबसे बड़े संकट का सामना करना पड़ रहा है।
यही वजह है कि उद्धव ठाकरे अब इमोशनल कार्ड खेलने का प्रयास कर रहे हैं। दरअसल, सत्ता हाथों से फिसलने का आभास होते हुए उद्धव ठाकरे ने बुधवार रात को सरकारी आवास वर्षा छोड़ दिया और वे एक बार फिर मातोश्री में अपना सामान लेकर लौट गए। इस दौरान उन्होंने यह तक कह दिया कि वो मुख्यमंत्री पद क्या शिवेसना प्रमुख का पद भी छोड़ने के लिए तैयार हैं। उद्धव ठाकरे ने कहा- “शिवसैनिक नहीं चाहते कि मैं मुख्यमंत्री के रूप में बना रहूं तो मैं इस्तीफा देने के लिए तैयार हूं। मैं शिवसेना अध्यक्ष का पद छोड़ने के लिए भी तैयार हूं। मुझे बहुत खुशी होगी अगर कोई और शिवसैनिक मुख्यमंत्री बनता है।”
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कभी महाराष्ट्र की राजनीति का केंद्र हुआ करता था मातोश्री
एक समय ऐसा था जब महाराष्ट्र की राजनीति का केंद्र मातोश्री होता था। बाला साहेब ठाकरे के दौरान महाराष्ट्र की सत्ता की चाभी ही मातोश्री में रहती थी। मातोश्री एक दरबार था जहां राज्य से जुड़े हर छोटे-बड़े फैसले लिए जाते थे। परंतु फिर धीरे-धीरे मातोश्री की पकड़ महाराष्ट्र की राजनीति पर कमजोर होती चली गयी। बाला साहेब ठाकरे के दौरान जो शिवसेना थी वो बदलने लगी। बाला साहेब की पहचान एक कट्टर हिंदुवादी राजनेता के तौर पर होती थी। वहीं जैसे ही मुख्यमंत्री पद के लालच में उद्धव ठाकरे ने भाजपा को धोखा दिया और हिंदुत्व के सिद्धांतों से समझौता कर कांग्रेस और एनसीपी जैसी पार्टियों से हाथ मिलाकर सरकार बना ली थी तब से ही शिवसेना की छवि बदल गयी।। पिछले ढाई सालों में जिस तरह उद्धव ठाकरे ने हिंदुत्व को दरकिनार करने का काम किया उससे शिवसेना को काफी नुकसान पहुंचा।
यही वजह है कि शिवसैनिकों के मन में ही पार्टी के भविष्य को लेकर असंतोष बढ़ने लगा। यह स्पष्ट रूप से उद्धव ठाकरे के नेतृत्व की कमी को ही दर्शाता है कि इतनी बड़ी संख्या में विधायकों ने अपनी पार्टी के विरुद्ध ही मोर्चा खोल दिया। अब जो हालिया घटनाक्रम है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि महाराष्ट्र की राजनीति ठाकरे परिवार और मातोश्री से बाहर निकल रही है। मातोश्री के हाथों से अब महाराष्ट्र की कमान फिसलने लगी है।
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