बीते कुछ समय से न्यायपालिका को लेकर लोगों ने प्रश्न उठाए हैं। कुछ टिप्पणियों ने तो खूब वाद विवाद फैलाए। उनमें से एक था भाजपा की पूर्व प्रवक्ता नूपुर शर्मा को देश में हो रही हिंसा और खराब माहौल का जिम्मेदार बताना। न्यायपालिका, जो किसी को जवाबदेह नहीं है, जिससे कोई प्रश्न नहीं पूछता, वह अचानक विवादों में आ गयी और उससे प्रश्न पूछे जाने लगे। प्रश्न उठने लगा कि कहीं न्यायपालिका का झुकाव किसी एक पक्ष की ओर तो नहीं?
हालांकि अभी तक तो न्यायपालिका इस मामले में चुपचाप रही लेकिन अब लगता है कि सीजेआई रमना ने खुद पर जिम्मेदारी ली है।
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मीडिया ट्रायल पर CJI
हाल ही में CJI ने मीडिया और न्यायपालिका के बीच तनातनी पर अपनी राय रखी। उन्होंने मीडिया पर न्यायिक मामलों को लेकर गैर-सूचित और एजेंडा संचालित बहस चलाने का आरोप लगाया। उन्होंने इन प्रदर्शनों को “कंगारू कोर्ट चलाना” करार दिया। कंगारू न्यायालय एक ऐसा न्यायालय है जिसमें साक्ष्य जो कि कानून की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता होती है अधिक प्रासंगिक नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय के सर्वोच्च न्यायाधीश के अनुसार, यह घटना लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। भारत के मुख्य न्यायाधीश एन वी रमना ने शनिवार को नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ स्टडी एंड रिसर्च इन लॉ, रांची में एक सार्वजनिक व्याख्यान के दौरान यह टिप्पणी की।
CJI रमना ने कहा कि मीडिया परीक्षण न्यायपालिका के निष्पक्ष कामकाज और स्वतंत्रता को प्रभावित करते हैं और मीडिया में विशेष रूप से सोशल मीडिया पर न्यायाधीशों के खिलाफ “संयुक्त अभियानों” की आलोचना की।
CJI विशेष रूप से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के आलोचक रहे। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि हितधारक एक ही समय में अपनी जिम्मेदारियों से आगे निकल रहे हैं और उनका उल्लंघन कर रहे हैं। यह कहते हुए कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में शून्य जवाबदेही है CJI रमना ने कहा, “अपनी जिम्मेदारी से आगे बढ़कर और आप हमारे लोकतंत्र को दो कदम पीछे ले जा रहे हैं। प्रिंट मीडिया में अभी भी कुछ हद तक जवाबदेही है जबकि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की कोई जवाबदेही नहीं है। सोशल मीडिया इससे भी बदतर है।“
उन्होंने सोशल मीडिया को अपनी सीमाएं लांग कर न्यायपालिका के कार्य में हस्तक्षेप करने से रोकने को कहा। उन्होंने कहा, “मीडिया द्वारा प्रचारित किए जा रहे पक्षपातपूर्ण विचार लोगों को प्रभावित कर रहे हैं, लोकतंत्र को कमजोर कर रहे हैं और व्यवस्था को नुकसान पहुंचा रहे हैं। इस प्रक्रिया में न्याय वितरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। वे लोग अपने दायरे से आगे बढ़कर हमारे लोकतंत्र को दो कदम पीछे ले जा रहे है।
उन्होंने कहा कि बेहतर होगा अगर लोग अपने शब्दों को सोशल मीडिया पर लिखने से पहले थोड़ा नाप तोल कर लें। मीडिया के अदालत के फैसलों और सरकारी प्रथाओं में हस्तक्षेप करने की आदत सही नहीं है। अगर न्यायाधीश आपके शब्दों पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रहे हैं तो इसे उनकी कमजोरी या लाचारी न समझें।
इस बीच, न्यायमूर्ति रमना ने न्यायाधीशों पर शारीरिक हमलों में वृद्धि का भी उल्लेख किया। उन्होंने कहा, “इन दिनों हम न्यायाधीशों पर शारीरिक हमलों की बढ़ती संख्या देख रहे हैं। न्यायाधीशों को उसी समाज में रहना होगा जिसमें उन्होंने लोगों को दोषी ठहराया है। बिना किसी सुरक्षा या सुरक्षा के आश्वासन के।“ उन्होंने जोर देकर कहा कि न्यायाधीशों के साथ राजनेताओं, नौकरशाहों, पुलिस अधिकारियों और अन्य जन प्रतिनिधियों से अलग व्यवहार किया जा रहा है। जहां सेवानिवृत्ति के बाद मंत्रियों और सरकार के बड़े कर्मचारियों के पास सुरक्षा होती है उसके ठीक विपरीत न्यायाधीशों को सुखोई सुरक्षा मुंहैया नहीं करवाई जाती जिसके कारण उनकी जान पर खतरा बना रहता है।
हालांकि सीजेआई रमना की यह बात कुछ हद तक सही भी है की न्यायपालिका को विधायकी और कार्यपालिका से थोड़ा अलग माना जाता है। शायद यही कारण है कि जहां एक तरफ इस देश में हर एक व्यक्ति की संपत्ति का ब्यौरा सरकार के पास है, स्वयं सरकार में बैठे मंत्रियों को अपनी चुनाव याचिका दायर करने से पहले अपनी संपत्ति का ब्यौरा देना होता है, वहीं न्यायपालिका में बैठे किसी न्यायाधीश पर ऐसा कोई नियम लागू नहीं होता है। उन्हें संविधान का कोई भी पन्ना उनकी संपत्ति का ब्यौरा देने के लिए बाध्य नहीं करता।
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उत्तर की उम्मीद करना गलत तो नहीं
मीडिया क्या कर रही है, इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया की क्या जिम्मेदारी है, इस पर तो बात की जाती रही है लेकिन इन सबके बीच एक बड़ा प्रश्न ये उठता है कि किसी को भी हिंसा, दंगा, या माहौल खराब करने का जिम्मेदार बिना किसी ट्रायल या बिनी किसी साक्ष्य के क्या ठहराया जा सकता है? क्या यह किसी भी तरह से तार्किक हैं? माना कि न्यायपालिका किसी को जवाब देने के लिए बाध्य नहीं है लेकिन जिस न्यायपालिका का गठन लोगों के लिए किया गया हो, उसके पास लोगों के प्रश्नों के उत्तर तो होने ही चाहिए, ऐसी उम्मीद करना तो गलत नहीं है। न्यायपालिका कार्यपालिका और विधायिका से स्वतंत्र है, लेकिन जनता की राय से नहीं।
लोकतंत्र के अन्य सभी अंगों की तुलना में भारतीय न्यायपालिका की एक अन्य समस्या इसकी सापेक्ष अपारदर्शिता है। जबकि राजनेताओं और यहां तक कि नौकरशाहों को अपनी संपत्ति और दायित्वों को सार्वजनिक रूप से प्रस्तुत करना अनिवार्य है। न्यायाधीशों के लिए ऐसी कोई अनिवार्यता नहीं है। हाल ही में आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष विवेक देबरॉय ने आदित्य सिन्हा के सह-लेखक अपने कॉलम में इस समस्या की ओर इशारा किया। अन्य देशों में भी न्यायाधीश अपनी संपत्ति को सार्वजनिक करते हैं लेकिन भारत में न्यायाधीशों पर ऐसा कोई कानून लागू नहीं होता।
अब समय आ गया है जब न्यायपालिका और जनता के बीच पारदर्शिता को बढ़ाया जाए, समय आ गया है कि अब न्यायपालिका भी उत्तरदायी हो अपनी टिप्पणियों के लिए ताकि समाज में एक संतुलन बना रहे, ताकि बिना किसी ट्रायल और बिना किसी साक्ष्य के कोई न्यायाधीश आगे आकर टिप्पणी न कर दे। ताकि न्यायपालिका और न्यायाधीशों पर जनता का विश्वास किसी भी तरह से कम न हो।
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