जुबैर को जमानत मिलेगी इसका अंदेशा तो पहले से था लेकिन SIT को भंग करने की क्या आवश्यकता थी?

जुबैर खुद को पत्रकार नहीं मानता लेकिन सब उसे 'पत्रकार' बताने में ही जुटे हुए हैं!

Zubair and SC

Source- TIFPOST HINDI

“होने न होने का क्रम इसी तरह चलता रहेगा। हम हैं, हम रहेंगे, ये भ्रम भी सदा पलता रहेगा।” आज भारत रत्न पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की यह पंक्तियां ज़ुबैर मामले में पूर्ण रूप से चरितार्थ हो रही हैं। उत्तर प्रदेश द्वारा गठित विशेष जांच दल SIT को भंग करते हुए और यह रेखांकित करते हुए कि उसे निरंतर हिरासत में रखने का कोई औचित्य नहीं है, सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को ऑल्ट न्यूज़ के सह-संस्थापक मोहम्मद जुबैर को राज्य में उनके खिलाफ दर्ज छह मामलों में अंतरिम जमानत दे दी। यह यूं तो सबको विदित ही था कि ऐसा ही निर्णय आने की प्रबल संभावना हैं पर कोर्ट द्वारा SIT को भंग करने पर जमकर सवाल उठ रहे हैं।

दरअसल, मोहम्मद ज़ुबैर को 27 जून को दिल्ली में मामला दर्ज होने के बाद गिरफ्तार किया गया था और उसे बुधवार शाम तिहाड़ जेल से रिहा कर दिया गया। अदालत में दिए गए आदेश में जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस ए एस बोपन्ना की पीठ ने जुबैर को जमानत देते हुए कहा कि गिरफ्तारी की शक्ति का प्रयोग संयम से किया जाना चाहिए। कोर्ट ने कहा, “जुबैर को अंतहीन समय तक हिरासत में नहीं रखा जा सकता।”

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सुप्रीम कोर्ट ने जुबैर के खिलाफ दर्ज सभी मामलों को एक साथ क्लब किया। इस मामले में अब एक ही जांच एजेंसी जांच करेगी। कोर्ट ने यूपी में दर्ज छह प्राथमिकी में जांच दिल्ली पुलिस के विशेष प्रकोष्ठ को स्थानांतरित कर दी क्योंकि उन सभी में एक ही आपत्तिजनक ट्वीट के बारे में उल्लेख किया गया है। छह मामलों में से दो हाथरस में एक-एक मुजफ्फरनगर, गाजियाबाद, लखीमपुर खीरी और सीतापुर जिलों में दर्ज हैं। चंदौली में सातवां मामला दर्ज है। चंदौली में दर्ज FIR में शिकायतकर्ता प्रशांत सिंह हैं।

इस मामले में जांच के लिए गठित यूपी की SIT को भी कोर्ट ने भंग कर दिया है। हालांकि, खुली अदालत में निर्देशित विस्तृत आदेश की एक प्रति अभी उपलब्ध नहीं कराई गई है। पीठ ने अपने निर्देश में कहा, “तिहाड़ जेल के अधीक्षक यह सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक कदम उठाएंगे कि याचिकाकर्ता को आज शाम छह बजे तक न्यायिक हिरासत से रिहा कर दिया जाए।”

वरिष्ठ अधिवक्ता और उत्तर प्रदेश की अतिरिक्त महाधिवक्ता गरिमा प्रसाद ने पीठ से भविष्य में ‘जहरीले’ ट्वीट करने से रोकने के लिए जमानत की शर्त लगाने के लिए कहा और एक उपक्रम मांगा कि वह सबूतों के साथ छेड़छाड़ नहीं करेंगे। जिस पर पीठ ने अलग से जमानत की कोई शर्त लगाने से इनकार करते हुए कहा, “सुबूत सभी सार्वजनिक डोमेन में हैं।” न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा, “यह एक वकील को आगे बहस न करने के लिए कहने जैसा है। आप एक पत्रकार को कैसे बता सकते हैं कि वह लिख नहीं सकता?”

जुबैर खुद को पत्रकार नहीं मानता लेकिन…

अब न्यायमूर्ति जी को कौन समझाए कि, जो व्यक्ति स्वयं यह कहता रहा है कि वो पत्रकार नहीं है, उसे पत्रकार बनाने में वो सब तुले हुए हैं जिनका एजेंडा ही इस बल पर चलता है और जो ज़ुबैर जैसों के बोल को दुनियाभर में जस्टिफाई करते घूमते हैं। ऐसे में जज साहब को ऐसी बातें कहने से बचनी चाहिए थी जो उनकी कार्यप्रणाली पर चोट करता प्रतीत हो! एक बार के लिए ज़ुबैर को मिली जमानत और उसके लिए पीठ की बातों को अपवाद मान भी लिया जाए तो SIT भंग करने को कहां तक जायज ठहराया जा सकता है? जिस SIT पर ज़ुबैर को मिल रही बाहरी फंडिंग का पता लगाने से लेकर सभी गुप्त सूत्रों पर जांच करने का जिम्मा था उसे मोहम्मद ज़ुबैर की जमानत के साथ ही भंग कर देना कैसी समझदारी है? सोशल मीडिया पर भी इसे लेकर जमकर सवाल उठाए जा रहे हैं। SIT ही थी जो उसके काले चिट्ठे को खोल कर दुनिया के सामने ला सकती थी लेकिन जुबैर को जमानत देने के साथ ही उसे भंग कर दिया गया है। यह कितना न्योयोचित था वो आंकलन आम जनमानस गुना-भाग करके लगा रहा है। बाकी, जुबैर को बेल पर बाहर भेजने की उम्मीद थी लेकिन एसआईटी को भंग करने की क्या जरूरत थी यह सवाल सबको कचोट रहा है?

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