अक्सर हमने देखा है कि मनुष्य भावना और तर्क के बीच अंतर स्पष्ट करने में असमर्थ रहे हैं। भावना सदैव ही यथार्थ पर भारी रही है और ये बात परमाणु ऊर्जा पर भी लागू होती है। इस कारण से भारत चाहकर भी परमाणु ऊर्जा पर अपना ध्यान केंद्रित नहीं कर पाया है जिसके कारण वह अरबों डॉलर की बचत से वंचित रह गया है। किसी ने सही कहा है, ‘पैसा ही पैसे को खींचता है।’ ऐसे में बचत भी काफी महत्वपूर्ण मानी जाती हैं। भारत के परमाणु ऊर्जा का इतिहास भी परमाणु ऊर्जा की उत्पत्ति जितना ही प्राचीन है। 20 वीं शताब्दी के प्रारंभ में भारत के Geological Survey of India ने भारत में यूरेनियम और थोरियम के अकूत भंडार खोज निकालें परंतु इसके उपयोग हेतु न हमारे पास पर्याप्त तकनीक थी और न ही उचित संसाधन। इसके अतिरिक्त हमारे देश में नैतिकता और संस्कार की मूलभूत भावना भी हमें इन भंडारों के दोहन से रोकती थी।
परंतु इन सबसे हमारे वैज्ञानिकों के शोध पर कोई अंतर नहीं पड़ा। दौलत सिंह कोठारी हो, मेघनाद साहा हो, होमी जहांगीर भाभा हो, आर एस कृष्णन हो या अन्य, परमाणु भौतिकी के क्षेत्र में हमारे वैज्ञानिकों ने निरंतर शोध करना जारी रखा। होमी जहांगीर भाभा को इसके अतिरिक्त सबसे प्रभावशाली उद्योगपति परिवार का समर्थन भी प्राप्त था – टाटा परिवार का, जिनकी सहायता से शीघ्र ही टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च की स्थापना मुंबई में हुई। आगे इसी ने भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र और अप्रत्यक्ष रूप से भारतीय स्पेस अनुसंधान केंद्र की स्थापना में भी एक महत्वपूर्ण योगदान दिया।
जब अमेरिका ने द्वितीय विश्व युद्ध में जापान पर एक नहीं 2-2 परमाणु बम बरसाए तो परमाणु हथियारों के लिए मानो रेस सी निकल पड़ी। परंतु इसी बीच भारतीय वैज्ञानिक इसी ऊर्जा का वैकल्पिक उपयोग भी ढूंढने लगे जिनमें अग्रणी थे होमी जहांगीर भाभा। परमाणु अनुसंधान कमेटी के अंतर्गत उन्होंने कई देशों के साथ सांठ-गांठ की और परमाणु ऊर्जा पर विशेष अनुसंधान किया। पहले जवाहरलाल नेहरू फिर प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के नेतृत्व में उन्होंने देश के परमाणु संरचना को काफी बढ़ावा दिया। यदि 1966 में उनकी असामयिक मृत्यु न हुई होती तो भारत को परमाणु महाशक्ति बनने से कोई न रोक पाता और यह मज़ाक की बात नहीं है।
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1955 से ही भारतीयों ने एक परमाणु संयंत्र की तैयारी प्रारंभ कर दी थी परंतु पूर्णतया आत्मनिर्भर होकर एक परमाणु संयंत्र बनाना हमारे बस के बाहर था। सोवियत संघ ने अवश्य हमारे वैज्ञानिकों को निमंत्रण दिया और यूके से लेकर अमेरिका, कनाडा, यहां तक कि स्वयं यूके तक हमारे साथ सहयोग करने को तैयार थे परंतु स्वतंत्र भारत को उसका प्रथम परमाणु संयंत्र स्वतंत्रता के 22 वर्ष बाद 1969 में मिला, जिसे महाराष्ट्र के तारापुर क्षेत्र में स्थापित किया गया था। तब से अब तक देश के पास मात्र 22 परमाणु संयंत्र हैं जबकि हमारे पास थोरियम का ऐसा भंडार है कि यदि उसका एक चौथाई भी उपयोग में लाया जाए तो सदियों तक देश में ऊर्जा की कमी नहीं होगी।
परंतु हम थोरियम का उपयोग क्यों नहीं करते जब वह इतना ही बहुपयोगी है? असल में अधिकतम लोग इसके शक्तियों से अपरिचित हैं और वे पारंपरिक स्त्रोत यूरेनियम को प्राथमिकता देते हैं। लेकिन होमी भाभा थोरियम की उपयोगिता को भली भांति पहचानते थे और उसे बढ़ावा देना चाहते थे क्योंकि वे जानते थे कि भारत उसके ढेर पर बैठा हुआ है। परंतु सरकारी निष्क्रियता, वामपंथी नौटंकियों एवं अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों के कारण हम यूरेनियम के संसाधनों का ठीक से दोहन नहीं कर पाते, थोरियम की उत्पत्ति तो दूर की कौड़ी रही।
हमारे खनिज भंडार का दुरुपयोग हमारी परमाणु ऊर्जा संभावनाओं की समस्या के परिप्रेक्ष्य में एकमात्र समस्या नहीं है। जब 1974 में भारत ने “स्माइलिंग बुद्धा” के अंतर्गत परमाणु हथियारों का परीक्षण किया तो संसार में त्राहिमाम मच गया। उस समय ऐसा करने वाला यूएनएससी के 5 सदस्यों के अलावा भारत अकेला देश था जिसने यह उपलब्धि प्राप्त की और पश्चिमी देश तुरंत परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) बनाने के लिए दौड़ पड़े ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि ऐसी किसी भी घटना की पुनरावृत्ति न हो।
1992 में इसके नियमों ने अप्रत्यक्ष रूप से परमाणु निर्यात से भारत को प्रतिबंधित कर दिया परंतु 4 वर्ष बाद ही भारत ने इन्हें ठेंगा दिखाते हुए 1998 में पोखरण-द्वितीय का परीक्षण किया। इन परीक्षणों ने भारत पर प्रतिबंधों को और कड़ा कर दिया। हालांकि, इन प्रतिबंधों का उद्देश्य सीधे तौर पर अपने लिए आवश्यक सामग्री खींचने में भारत की क्षमता को सीमित करना नहीं था लेकिन उन्होंने भारत की परमाणु ऊर्जा क्षमता को सकारात्मक रूप से प्रभावित करने वाले किसी भी प्रकार के व्यापार हेतु भारत को तरजीह नहीं देने वाले साझेदार देशों में अनुवाद किया।
परंतु उगते सूर्य के प्रभुत्व को रोकने का साहस किसमें रहा है! ऐसे में भारत के प्रभाव के आगे पश्चिम को भी झुकना ही पड़ा। वर्ष 2005 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्राध्यक्ष जॉर्ज बुश और भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भारत-संयुक्त राज्य असैन्य परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर किए जो ‘123 समझौते’ के रूप में भी जाना जाता है। वर्ष 2008 में एनएसजी से छूट प्राप्त करने के लिए दुनिया भर से सौदे की परिणामी स्वीकृति भारत में हुई। यह छूट भारतीय असैन्य परमाणु क्षेत्र के लिए एक राहत के रूप में आई जिसका बिजली उत्पादन में योगदान 2006-2008 के बीच 12.83 प्रतिशत कम हो गया था।
इस समझौते ने भारत के लिए अनेक द्वार खोल दिए। आने वाले वर्षों में भारत ने मंगोलिया, कजाकिस्तान, अर्जेंटीना, नामीबिया, नाइजर और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों के साथ यूरेनियम आयात सौदों को आगे बढ़ाया। परंतु इस समझौते के कारण अनेक चुनौतियां भी सामने आई। वर्ष 2011 में फुकुशिमा की आपदा को ढाल बनाते हुए वामपंथी गिरोह ने परमाणु ऊर्जा के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया। भले ही शीर्ष न्यायालय ने उनके खोखले दावों को ध्वस्त किया परंतु इसके कारण हमारे परमाणु संयंत्रों के कार्यक्रम को काफी क्षति पहुंची।
इसके अतिरिक्त हमारी परमाणु ऊर्जा का उपयोग ही ढंग से नहीं किया गया है। वर्तमान में परमाणु ऊर्जा हमारी ऊर्जा आवश्यकता का केवल 3 प्रतिशत प्रदान करती है। इसका काफी दोष कोयले, नेचुरल गैस जैसे ऊर्जा के स्त्रोत पर अत्यधिक जोर देने के साथ है। विश्व पानी, सौर और पवन जैसे प्राकृतिक स्रोतों के दोहन पर इतना अधिक केंद्रित है कि परमाणु ऊर्जा की स्वच्छता को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। परंतु सत्य यह भी है कि कई मायनों में परमाणु ऊर्जा उस ऊर्जा से कहीं बेहतर है जिसे हम वैकल्पिक ऊर्जा कहते हैं। ध्यान देने वाली बात है कि ‘नवीकरणीय ऊर्जा’ ऊर्जा का अस्थिर रूप है और बिजली उत्पादन के लिए विशिष्ट जलवायु और मौसम पर निर्भर करती है। इसी प्रकृति के कारण उन्हें बैक अप ऊर्जा के लिए जीवाश्म ईंधन की आवश्यकता होती है।
अब जो देश परमाणु ऊर्जा का सही उपयोग कर रहे हैं उन्हें किसी प्रकार की कोई समस्या नहीं होती। उदाहरण के लिए फ्रांस को ही देख लीजिए। परमाणु ऊर्जा को उसने बढ़ावा भी दिया और उसे जबरदस्त लाभ भी मिला। आज उसी के कारण देश की 75 प्रतिशत ऊर्जा परमाणु ऊर्जा से प्राप्त होती है और अब तो फ्रांस ने उसी ऊर्जा को ‘RECYCLE’ करने के तरीके भी निकाल लिए हैं। हुआ न लाभ का सौदा? अब इस बात को कहीं न कहीं भारतीय प्रशासन भी समझ रहा है जिसके कारण परमाणु ऊर्जा को बढ़ावा दिया जा रहा है। परमाणु ऊर्जा प्लांट के निर्माण की लागत एक कोयले संयंत्र के मुकाबले 33 से 50 प्रतिशत कम है और गैस प्लांट के मुकाबले 20 से 25 प्रतिशत कम है तो सोचिए यदि हमने परमाणु ऊर्जा पर अपना ध्यान केंद्रित किया तो कितना धन बचेगा? हर वर्ष 100 बिलियन डॉलर! इसीलिए मोदी सरकार अब देश को वैकल्पिक ऊर्जा विशेषकर परमाणु ऊर्जा की ओर ले जा रही है और शीघ्र ही हमारा देश परमाणु ऊर्जा की सहायता से ऊर्जा क्षेत्र की महाशक्ति भी बनेगा और पैसा ही पैसा बचाएगा!
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