परिवारवाद की राजनीति केवल ठाकरे, यादव और गांधी परिवार तक ही सीमित नहीं है

भारतीय राजनीति के लिए नासूर है परिवारवाद!

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कांग्रेस, सपा और शिवसेना तो यूं ही बदनाम हैं, वास्तव में परिवावाद से पोषित पार्टियों में सत्ता की ऐसी लालसा है कि सत्ता का सुख निजी संबंधों के आड़े आ जाता है। एक क्षण भी नहीं लगता और निजी संबंधों को तिलांजलि दे दी जाती है। कुछ ऐसा ही इन दिनों आंध्र प्रदेश में हो रहा है जहां राज्य के मुख्यमंत्री वाई एस जगन मोहन रेड्डी को उन्हीं की मां और बहन ने झटका दे दिया है। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाई एस जगन मोहन रेड्डी की मां विजयम्मा ने शुक्रवार को एक आश्चर्यजनक घोषणा करते हुए कहा कि वह बेटी शर्मिला का समर्थन करने के लिए वाईएसआरसी के मानद अध्यक्ष के पद से इस्तीफा दे रही हैं। बस फिर क्या था राजनीति की वजह से एक और परिवार में फूट सरेआम हो गयी।

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भारत में राजनीतिक विविधताएं भी हैं 

दरअसल, भारत में राजनीतिक विविधताएं भी हैं। अब आंध्र प्रदेश की राजनीति में एक नयी पार्टी का उदय हुआ है और यह अपने ही भाई के विपरीत नयी पार्टी खड़ी करने वाली वाईएस शर्मिला ने कर दिखाया है। उनका साथ देने के लिए उनकी मां और जगन मोहन की पार्टी की मानद अध्यक्ष से वाईएस विजयलक्ष्मी जिन्हें विजयम्मा के नाम से भी जाना जाता है, उन्होंने अपना पद छोड़ दिया है। उन्होंने कहा, ‘मेरी बेटी वाईएस शर्मिला के साथ मेरे खड़े होने को लेकर बहुत सारी अटकलें, अफवाहें और अनावश्यक विवाद थे, जो तेलंगाना के लोगों के लिए वाईएस राजशेखर रेड्डी के सपनों को साकार करने के लिए वहां अकेली लड़ाई लड़ रही हैं। इसलिए, मैंने परिवार के भीतर मतभेदों के बारे में अनावश्यक विवाद या हितों के टकराव को खत्म करने के लिए वाईएसआरसीपी छोड़ने का फैसला किया है।’

ऐसे में यह एक नई लड़ाई है जिसको जगजाहिर होते समय नहीं लगा। बता दें, दोनों भाई-बहन के बीच संपत्ति को लेकर भी विवाद चल रहा है, ऐसे में विजयम्मा का ठीक चुनाव से पहले ऐसे वाईएसआरसीपी छोड़कर जाना और अपनी बेटी का समर्थन करना निश्चित रूप से सीएम जगन मोहन को कमज़ोर करेगा। अब इससे एक बात और प्रदर्शित हुई कि एक और परिवारवाद से उपजी पार्टी अर्थात येदुगुरी संदीप्ति राजशेखर रेड्डी जोकि YSR के नाम से जाने जाते थे, जगन उन्हीं के पुत्र हैं।  YSR 2004 से 2009 तक आंध्र प्रदेश के 14वें मुख्यमंत्री थे और लंबे समय तक संसद में सदस्य भी रहे।

अब यह अकेला एक विवाद नहीं है जो परिवार पोषित पार्टियों की पोल खोल रहा है, ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में किस हद तक परिवारवाद घुसा पड़ा है उसको प्रमाणित करते हैं। राष्ट्रीय राजनीति की बात करें तो मोतीलाल नेहरू से लेकर राहुल गांधी तक पूरे समय कांग्रेस में परिवारवाद का ही बोलबाला रहा।

बिहार में राष्ट्रीय जनता दल में क्या लालू प्रसाद यादव और क्या उनकी पत्नी राबड़ी देवी दोनों मुख्यमंत्री रहे और अब बेटे सक्रिय राजनीति में हैं। बिहार के ही बीपी मंडल की बात करें तो वो बिहार के 7वें मुख्यमंत्री रहे और बाद में भी उन्हीं के परिवार के धनिक लाल मंडल हरियाणा के राज्यपाल रहे और ऐसे ही उनका भी राजनीतिक चक्र परिवारवाद से सुशोभित रहा। इसी बिहार के ललित नारायण मिश्रा से लेकर जगन्नाथ मिश्रा से लेकर नीतीश मिश्रा तक सभी राज्य की राजनीति के बड़े चेहरे हैं और उसी परिवारवाद का तमगा अपने साथ लाते हैं।

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इन राज्यों में भी है परिवारवाद 

छत्तीसगढ़ के जोगी परिवार की बात करें या रमन सिंह की दोनों के परिवार में राजनीति का पूरा घोल मिला हुआ है। गोवा जितना छोटा राज्य लगता है उससे कहीं अधिक तो वो परिवारवाद के लिए जाना जाता है। अलेमाओ परिवार से लेकर राणे परिवार तक राज्य की राजनीति में परिवारवाद बहुत है ऐसा साफ-साफ प्रदर्शित होता है। गुजरात में भी पटेल परिवार का नाम लिया जाता है जिसके परिवार का हस्तक्षेप सरकार में लंबे समय से रहा है।

हरियाणा जिसका परिवारवाद छुपाए नहीं छुप सकता है। जहां भारत के पूर्व उपप्रधानमंत्री चौधरी देवी लाल से लेकर हरियाणा के उपमुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला तक, सभी एक परिवार के सदस्य हैं जिनका प्रभाव राज्य की राजनीति में बहुत है। इसी हरियाणा से भूपिंदर सिंह हुड्डा जो राज्य के मुख्यमंत्री रहे और जिनके पुत्र दीपेंद्र सिंह हुड्डा वर्तमान में राज्यसभा सांसद हैं। इसके बाद जिंदल परिवार, ओमप्रकाश जिंदल से लेकर नवीन जिंदल तक सभी परिवारवाद से ही उपजे हैं।

हिमाचल प्रदेश की बात करें तो कांग्रेस के दिवंगत वरिष्ठ नेता, राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह, उनकी पत्नी प्रतिभा सिंह और उनके बेटे विक्रमादित्य सिंह सभी राजनीतिक रूप से बड़े पदों पर रहे और अभी भी उनका नाम राज्य की राजनीति में बड़े परिवारवादी के रूप में लिया जाता है। जम्मू कश्मीर में शेख अब्दुल्ला से लेकर फारुख अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला, यह वो नाम हैं जो सभी को याद हैं। इसी जम्मू कश्मरी से मुफ़्ती मोहम्मद सईद से लेकर मेहबूबा मुफ़्ती ने राज्य की राजनीति में अपना वर्चस्व कायम किया। सभी परिवारवाद का परिणाम है।

कर्नाटक में देवेगौडा परिवार के पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवेगौडा से लेकर एच डी कुमारस्वामी तक सभी बड़े पदों पर रहे और राजनीति के सारे स्वाद चखे। महाराष्ट्र में बी.आर. अंबेडकर के नाम पर अपने राजनीतिक वर्चस्व को भुनाने वाले यशवंत अंबडेकर से लेकर आनंदराज अंबेडकर यह वो नाम हैं जिनको लिया कम जाता है पर ऐतिहासिक दृष्टि से बड़ा सरोकार रखते हैं। इसी महाराष्ट्र में बालासाहेब ठाकरे की शिवसेना के उत्तराधिकारी बने उद्धव ठाकरे और फिर आदित्य ठाकरे। ठाकरे परिवार के ही एक और सदस्य राज ठाकरे जिनकी पार्टी एमएनएस है, राज्य में बड़ा प्रभाव रखते हैं।

ओडिशा में पटनायक परिवार बीजू पटनायक से लेकर नवीन पटनायक, पुडुचेरी में रेड्डीयारी परिवार के वी. वेंकटसुभा रेड्डीयारी स्वतंत्रता सेनानी से लेकर मुख्यमंत्री बने और उनके बेटे वी. वैथिलिंगम रेड्डीयारी राज्य के मुख्यमंत्री रहे। पंजाब का बादल परिवार से लेकर तमिलनाडु के एम जी रामचंद्रन परिवार से लेकर वीके शशिकला परिवार से लेकर करूणानिधि परिवार तक सभी परिवारवादी पार्टियों के जनक रहे। उत्तर प्रदेश का समाजवादी पार्टी मुलायम सिंह यादव से लेकर अखिलेश यादव का कुनबा हो या अन्य सभी परिवारवादी दल सभी का इतिहास कुछ ऐसा ही रहा है।

ऐसे में यह तो सत्य है कि भारतीय राजनीति सिर्फ ठाकरे, यादव और गांधी परिवार तक ही सीमित नहीं है यह कुनबा बहुत बड़ा है।

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