“आप सभी को नमस्कार, जनता का वफादार मैं रवीश कुमार” कभी इसी व्यक्ति को देखने के लिए लोग टीवी से चिपक जाते थे मानो मंगल ग्रह से आया कोई अजूबा हो जिसे न कभी पहले देखा न कभी सुना। वैसे भी रवीश से पूर्व जमीन से जुड़े पत्रकार सिर्फ कथा कहानियों तक सिमटे हुए थे, सच्चाई का भाग तो थे ही नहीं। परंतु ऐसा क्या हुआ कि कभी जो रवीश कुमार पत्रकारिता का ध्वज ऊंचा करने चले थे वही आज पत्रकारिता के नाम पर कलंक बन चुके हैं! इस लेख में हम विस्तार से जानेंगे रवीश की यात्रा- शिखर से शून्य तक!
युद्धकला में रघुनाथ राव, राजनीति में जयप्रकाश नारायण और पत्रकारिता में रवीश कुमार पांडे में क्या समानता है? चकरा गए? समानता है और वो ये है कि ये सभी अपने क्षेत्र के विद्वान थे और अपने देश को बहुत कुछ दे सकते थे परंतु ये सभी अपने मूल उद्देश्य से भटक गए और बन गए उसी राष्ट्र के शत्रु, जिसे उन्हें बचाना था। ये जानबूझकर नहीं बने परंतु इनके विचार, इनका दृष्टिकोण इन्हें जाने अनजाने उसी ओर ले गया।
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‘रवीश की रिपोर्ट’ से वामपंथियों का चहेता बनने तक का सफर
अब जब आप किसी पत्रकारिता के विद्यार्थी से पूछते हैं कि उनका आदर्श पत्रकार कौन है तो फटाक से उत्तर आता है – रवीश कुमार। आप जितना चाहे हंस ले परंतु यही सत्य है। पर रवीश कुमार लोकप्रिय कैसे हुए? आखिर मोतिहारी के एक सरकारी विद्यालय से निकला लड़का भारतीय पत्रकारिता में इतना चर्चित नाम कैसे बना? 5 दिसंबर 1974 को मोतिहारी में जन्मे रवीश कुमार एक उच्च मध्यम वर्ग परिवार से नाता रखते हैं। उन्होंने लोयोला हाई स्कूल, पटना से अपनी प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की और फिर उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए वह दिल्ली आ गये। दिल्ली विश्वविद्यालय के देशबंधु कॉलेज से स्नातक उपाधि प्राप्त करने के बाद उन्होंने भारतीय जन संचार संस्थान (IIMC) से पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा प्राप्त किया।
रवीश कुमार केवल 22 वर्ष के थे जब उन्होंने NDTV जॉइन की थी। परंतु उनकी प्रतिभा अनदेखी नहीं गई और शीघ्र ही उन्हें रिपोर्टरों की मंडली में शामिल किया गया। उनकी प्रतिभा को देखते हुए उन्हें एक विशेष प्राइम टाइम शो भी दिया गया- ‘रवीश की रिपोर्ट’, जहां वो गांव, कस्बों, चाय चौपाल पर लोगों से चर्चा और उनकी दिनचर्या पर बातचीत करते। क्या इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था? ऐसा भी नहीं था परंतु अधिकतम पत्रकार अपनी रिपोर्ट या तो स्टूडियो से देते या फिर अगर देते तो अंग्रेजी में देते जिससे जनता को तनिक भी मतलब नहीं था। लोग देसी रिपोर्टिंग चाहते थे जिसमें अपनापन हो ‘मिट्टी की खुशबू’ हो और NDTV ने रवीश कुमार के माध्यम से उन्हें वही प्रदान कराया।
सत्ता परिवर्तन का दुख इन्हें सबसे अधिक हुआ
बस फिर क्या था रवीश कुमार रातों रात मीडिया में एक जाना माना नाम बन गए और उन्हें पुरस्कार पर पुरस्कार मिलने लगे। हिंदी पत्रकारिता के लिए उन्हें गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार एवं पत्रकारिता के लिए रामनाथ गोएनका पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था। परंतु हर वस्तु का भी एक समय होता है और शीघ्र ही रवीश का समय बीतने लगा। जब मोदी सरकार ने सत्ता संभाली तो उन्हें आभास था कि उन्हें पत्रकारों से कोई विशेष सहानुभूति या समर्थन नहीं मिलेगा। परंतु उन्हें ये अंदेशा बिल्कुल भी नहीं था कि सत्ता परिवर्तन का दुख रवीश कुमार को कुछ अधिक ही होगा। रवीश कुमार ने नरेंद्र मोदी को मानो अपना निजी शत्रु ही बना लिया और जो भी व्यक्ति उनके समर्थन में एक शब्द भी बोल देता, उसे वो तुरंत अंधभक्त या मोदीभक्त घोषित कर देते। आज जिस गोदी मीडिया के नाम से वामपंथी दक्षिणपंथियों को चिढ़ाने का भद्दा और असफल प्रयास करते हैं, वो भी इसी व्यक्ति की देन है।
परंतु ठहरिए, ये तो कुछ भी नहीं है। अपनी कुंठा में रवीश कुमार ने न केवल अपना विनाश किया अपितु कई लोगों के जीवन को बर्बाद करने का प्रयास किया। जो रवीश कुमार कभी लोगों के साथ बैठकर चाय की टपरी पर चुसकियां लगाते थे उन्होंने एक आम नागरिक की गाड़ी के पीछे अपने गुंडे केवल इसलिए लगा दिया था क्योंकि उसने ट्रैफिक नियम तोड़ते समय रवीश कुमार की फोटो खींच ली थी! ये तो कुछ भी नहीं है, जब पूर्वोत्तर दिल्ली दंगों की आग में जल रहा था तो इस महोदय की प्राथमिकता यह नहीं थी कि खबरों को किस तरह दिखाया जाए अपितु यह थी कि कैसे कट्टरपंथी मुसलमानों को कोई भी नुकसान नहीं होने दिए जाए, जैसे शाहरुख पठान को उन्होंने अनुराग मिश्रा बताकर हिंदुओं की छवि को धूमिल करने का प्रयास किया था।
अब ‘फेसबुकिया पत्रकार’ बन गए हैं रवीश कुमार
वर्ष 2019 में इस व्यक्ति को पत्रकारिता के लिए मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया। ध्यान देने वाली बात है कि शांति और समरसता लाने के लिए एक समय मलाला यूसुफजई को नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था, आगे आप स्वयं समझदार हैं। रही बात पत्रकारिता की तो वो उसी दिन खत्म हो चुकी थी जिस दिन रवीश कुमार ने नोटबंदी के विरोध में अपनी स्क्रीन अंधेरी कर ली थी और जो व्यक्ति जमीन से हटकर केवल स्टूडियो और फ़ेसबुक पर बकैती झाड़ता फिरे वो और कुछ भी हो जाए, पत्रकार तो कतई नहीं हो सकता।
वैसे रवीश कुमार आजकल किस स्तर की पत्रकारिता करने लगे हैं इससे भी कोई अपरिचित नहीं है। एक समय देश के जटिल मुद्दों पर चर्चा करने वाला यह व्यक्ति अब इस बात पर चिंतित है कि आलिया भट्ट की शादी में इन्हें क्यों नहीं बुलाया गया और दिल्ली में ब्राह्मणों की विशेष बस्ती क्यों है? हम मज़ाक नहीं कर रहे हूं यह वास्तव में इनके फ़ेसबुक अकाउंट की देन है जहां वो नित्य अनर्गल प्रलाप करते हैं। अपनी ‘व्यंग्यात्मक’ शैली में रवीश कुमार पांडे ने हाल ही में फ़ेसबुक पर पोस्ट किया, “दक्षिण दिल्ली की एक बस्ती। इस बस्ती का नाम कैसे पड़ा, कैसे बसी, इसका अध्ययन करना चाहिए” –
सच कहें तो एनडीटीवी और रवीश कुमार दोनों अपनी प्रासंगिकता बहुत पहले ही खो चुके हैं। एक समय पर केंद्र सरकार में मंत्री ‘फिक्स’ करने वाला यह न्यूज चैनल आज अदद व्यूवरशिप के लिए भी तरस रहा है! ऐसे में अपने आप को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए ये लोग किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं जैसे कि कई प्रकरणों में देखने को भी मिला है। लेकिन ऐसे प्रयासों से एनडीटीवी को अपनी खोई साख मिलने के बजाए उनकी बची खुची इज्ज़त भी मिट्टी में मिलने की पूरी संभावना दिखाई दे रही है और अंत में यही होगा।
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