शिमला समझौता: एक ऐसा जख्म जिससे आज तक उबर नहीं पाया भारत

वो समझौता नहीं ‘समर्पण’ था!

शिमला समझौता

Source- Google

लोग कहते हैं कि आप मैदान पर चाहे जितना युद्ध लड़ लें पर असल परीक्षा तो बातचीत की मेज पर होती है। पता नहीं क्यों पर ये बात स्वतंत्र भारत पर कुछ अधिक स्पष्टता से लागू होती है। जब वर्षों बाद एक साक्षात्कार में फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ (सेवानिर्वृत्त) ने एक समझौते पर अपने विचार साझा किये तो सभी चकित हुए, परंतु 50 वर्ष पूर्व हुए इस भूल का दंड आज भी भारत भुगत रहा है। इस लेख में हम उस 50 वर्ष पुरानी भूल के बारे में विस्तार से जानेंगे जिसे शिमला समझौता के नाम से बेहतर जाना जाता है और जिसके कारण एक नहीं, अपितु अनेक व्याधियों से आज भी भारत को पीड़ा झेलनी पड़ती है।

और पढ़ें: जयराम रमेश को स्मरण होना चाहिए कि 1971 के विजय में इंदिरा गांधी की कोई भूमिका नहीं थी

यहां समझिए पूरी कहानी

दरअसल, 1971 के ऐतिहासिक विजय को कुछ माह बीत चुके थे। 93,000 से अधिक पाकिस्तानी सैनिकों को आत्मसमर्पण पर विवश करके भारतीय सेना ने वो कर दिखाया जो कोई स्वप्न में भी नहीं सोच सकता था। उसने न केवल एक बार फिर पाकिस्तान के घमंड को मिट्टी में मिलाकर पूर्वी पाकिस्तान को स्वतंत्र कर बांग्लादेश का स्वरूप दिया, अपितु अमेरिका के कथित वर्चस्व को बुरी तरह मिट्टी में मिला दिया। परंतु 2 जुलाई 1972 को एक समझौते में वो सब कुछ बदल गया। यह समझौता तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उनके पाकिस्तानी समकक्ष जुल्फिकार अली भुट्टो ने शिमला में तैयार किया और उसपर हस्ताक्षर भी किया। परंतु ऐसा क्या हुआ जिसके कारण एक विजयी देश होने के बाद भी भारत इस समझौते में पराजित होकर निकला और फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ ने इंदिरा की आलोचना भी की?

भारत के राजनीति विज्ञान के प्रोफ़सर उदय बालाकृष्णन ने इंदिरा गांधी के जन्मदिन के अवसर पर 20 नवंबर, 2019 को द हिंदू में एक लेख लिखा था। इस लेख में उन्होंने इंदिरा गांधी की प्रशंसा के बाद वर्ष 1972 के शिमला समझौते को उनकी एक ‘राजनीतिक ग़लती’ बताते हुए लिखा, “हम कभी भी यह नहीं जान पाएंगे कि ऐसी कौन सी परिस्थितियां थीं, जिन्होंने 1971 के युद्ध के बाद इंदिरा गांधी को पाकिस्तान के साथ एक हानिकारक सौदा करने पर मजबूर किया। शिमला समझौता और उसके बाद के दिल्ली समझौते ने पाकिस्तान को वह सब कुछ दिया जो वह चाहता था। पाकिस्तान को वो सभी इलाक़े भी मिले जिन पर भारतीय सेना ने क़ब्ज़ा कर लिया था और पाकिस्तानी सेना के किसी भी अधिकारी को वर्तमान बांग्लादेश में नरसंहार के आरोप में मुक़दमा चलाये बिना उन सबकी सुरक्षित पाकिस्तान वापसी सुनिश्चित की गई थी।”

ठहरिए, ये तो मात्र प्रारंभ है। डॉक्टर बालकृष्णन लिखते हैं कि “अगर कभी भी भारत के पाकिस्तान के साथ संबंधों में कोई बरतरी और प्रभावशाली होने का पॉइंट दिखा तो यही वह क्षण था जब भारत ने अपनी ताक़त के बल पर पाकिस्तान के 5 हज़ार वर्ग मील क्षेत्र पर क़ब्ज़ा किया हुआ था और उसकी सेना के लगभग एक चौथाई हिस्से को युद्ध बंदी बना लिया गया था। यह आश्चर्यजनक बात है कि भारत ने दोनों को ही आसानी से क्यों लौटा दिया।”

कश्मीरी आतंकवाद और खालिस्तान भी इंदिरा की ही देन है

अब इस समझौते से दो घटनाएं हुई – जहां भारत ने 93,000 पाकिस्तानी युद्धबंदियों को गाजे बाजे के साथ वापस भेजा तो वहीं दूसरी ओर पाकिस्तान में बंद भारत के युद्धबंदियों को उन्हीं के हाल पर छोड़ दिया गया और ये केवल 1971 के लिए नहीं, उन युद्धबंदियों के लिए भी था, जो 1965 में बंदी बनाए गए थे। ‘1971’ में तो केवल एक अंशमात्र प्रस्तुत हुआ, अन्यथा उन वीरों की क्या दुर्दशा हुई हुई, इसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते।

परंतु इस समझौते से कहीं न कहीं उस कोढ़ की भी नींव पड़ी, जिसने आगे चलकर इंदिरा गांधी को ही लील लिया। आज जो खालिस्तानी और कश्मीरी आतंकवाद देश के लिए सरदर्द बना हुआ है, उसकी नींव भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इसी समझौते के कारण पड़ी, क्योंकि पाकिस्तानी भी समझ गए कि भारत को सीधे युद्ध में हराना तो असंभव है, तो दूसरा मार्ग ही सही। ऐसे ही नहीं आज देश में इतनी समस्याएँ एक साथ उत्पन्न हुई हैं और ऐसे ही नहीं आज भारत को सीमा पार आतंकवाद का दुष्परिणाम भुगतना पड़ता है। 50 वर्ष पूर्व यदि इंदिरा गांधी ने उस समझौते पर हस्ताक्षर न किये होते तो हमारे देश की तस्वीर कुछ और ही होती।

और पढ़ें: PSBs का निजीकरण: इंदिरा गांधी ने जो गलती की थी उसे सुधारने का काम शुरू कर चुके हैं PM मोदी

TFI का समर्थन करें:

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की ‘राइट’ विचारधारा को मजबूती देने के लिए TFI-STORE.COM से बेहतरीन गुणवत्ता के वस्त्र क्रय कर हमारा समर्थन करें।

Exit mobile version