भारत और जापान के मजबूत रिश्तों का श्रेय यदि किसी को जाता है तो वे हैं जापानी पीएम शिंज़ो आबे जिन्होंने न केवल अपने सोते हुए जापान को जगाया बल्कि जापान को एक बार फिर सशक्त किया। 8 जुलाई शुक्रवार को जापान के पूर्व प्रधानमंत्री शिंजो आबे पश्चिमी शहर नारा में एक रेलवे स्टेशन के बाहर रविवार को होने वाले चुनाव के लिए प्रचार कर रहे थे, तभी दो गोलियां चलीं। इस हमले में बंदूकधारी द्वारा गोली मारे जाने के बाद आबे का निधन हो गया। आरोपी हमलावर कथित तौर पर अबे से “असंतुष्ट” था और उन्हें मारना चाहता था।
हालाँकि आरोपी ने घर पर बनाई बन्दूक से गोली चलाई लेकिन गोलीबारी एक ऐसे देश में होना जहाँ हिंसक अपराध के निम्न स्तर और सख्त बंदूक कानून शामिल हैं, यह बहुत ही आश्चर्यजनक है। पर ऐसे में सवाल यह उठता है की शिंज़ो आबे की मृत्यु का सबसे बड़ा लाभ किसे होगा?
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1) चीन
चीन और जापान की दुश्मनी का इतिहास काफी पुराना रहा है और केवल इस इतिहास के बल पर नहीं बल्कि हाल में आई खबरों के कारण इस समय चीन ही शिंज़ो की मृत्यु का सबसे बड़ा लाभार्थी दिख रहा है। जहाँ पूरा विश्व इस घटना से हैरान है वहीं चीन में इस खबर के पहुँचते ही वहां खुशी में लोगों ने पटाखे फोड़े और कइयों ने जापानी पीएम की मृत्यु की कामना भी की।
चीन की इस नफरत के पीछे का दूसरा सबसे बड़ा कारण है कि शिंज़ो आबे ने एक बार फिर जापान की सोती जनता को जगाया और चीन जापान पर भारी न पड़ जाए इसके लिए देश के सैन्य बल को भी मजबूत किया। ताइवान जिसे चीन हमेशा से अपना कहता आया है जापान ने उसी ताइवान का साथ दिया जिसके चलते चीन कभी खुलेआम ताइवान पर दोबारा हमला नहीं कर सका।
2) अमेरिका
अमेरिका को जो पसंद नहीं वह उसे मौत के घाट उतारने में अधिक समय नहीं लगाता और यह बात तो किसी से छुपी भी नहीं हैं। जापान जिसे अमेरिका केवल अपने सहयोगी के रूप में चाहता था वह जापान शिंज़ो आबे के नेतृत्व में अमेरिका के हाथों से बाहर निकल अपनी स्वयं की पहचान बनाने लगा। अमेरिका जानता था कि चीन और शिंज़ो आबे की शत्रुता कभी खत्म ही होगी और अगर चीन के साथ बिना किसी परेशानी अपना काम बढ़ाना है तो जापान को अपने साथ करना जरूरी है। अब जब शिंज़ो ही नहीं है तो जापान के पीएम जो कि हमेशा से प्रो- अमेरिका और प्रो- चाइना के रूप में जाने गए हैं वह वही करेंगे जैसा बाइडन चाहेंगे।
3) चीन का पूर्ण समर्थन करने वाली किशिदा सरकार
जहाँ शिंज़ो जापान के इतिहास को मानने वाले और कभी किसी के आगे न झुकने वाले थे वहीं दूसरी तरफ किशिदा ने चीन से जापान को खतरा है यह नहीं स्वीकारा। वैसे भी जब दो बालों में टकराव हो तो उनमें से एक बल के गिरने पर दूसरे को फायदा होता ही है। शिंज़ो के बाद अब किशिदा के रास्ते में कोई रोड़ा नहीं जो उन्हें सत्ता से दूर रख सके।
विश्व युद्ध के बाद जापान के सबसे लंबे समय तक रहने वाले प्रधानमंत्री, आबे ने 2006 में एक वर्ष और फिर 2012 से 2020 तक पद संभाला, हालाँकि खराब सेहत के चलते उन्हें पद छोड़ना पड़ा जिसके बाद लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी (एलडीपी) के नेता योशिहिडे सुगा ने पद संभाला, जिन्हें बाद में फ़ुमिओ किशिदा ने बदल दिया। लेकिन शिंज़ो आबे एक ऐसे नेता हैं जो वर्षों में एक बार जन्म लेता है। आबे एक राजनितिक परिवार से थे जिनके दादा जापान के प्रधानमंत्री और पिता विदेश मंत्री रह चुके थे।
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– अपने कार्यकाल के दौरान, आबे ने देश की विदेश और आर्थिक नीतियों पर एक अमिट छाप छोड़ी – विदेशों में जापान के सहयोगियों के साथ संबंधों को मजबूत किया और अपनी ट्रेडमार्क ‘एबेनॉमिक्स’ नीतियों के साथ जापानी अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया।
– अपने ऐतिहासिक दो-अवधि के कार्यकाल में शिंज़ो ने चीन के बढ़ते दबदबे का पूरा मुकाबला किया। इसके लिए जापान की सेना को मजबूत किया।
– द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद एक नियम बनाया गया। जो यह निर्धारित करता है कि “जापानी लोग हमेशा के लिए राष्ट्र के एक संप्रभु अधिकार के रूप में युद्ध को त्याग देते हैं”। शिंज़ो ने इसे अस्वीकार करते हुए उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पहली बार विदेशों में लड़ने के लिए सेना भेजने का प्रबंधन किया। उन्हें रक्षा खर्च को बढ़ाकर देश की सेना को मजबूत करने का भी श्रेय दिया गया।
जापान और भारत
शिंज़ो के कार्यकाल के दौरान भारत और जापान के रिश्ते और मजबूत हुए। 2014 में गणतंत्र दिवस की परेड में आमंत्रित वह जापान के पहले पीएम थे। उन्हें भारत सरकार ने दूसरे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्म विभूषण से समान्नित किया। आबे के कार्यकाल के दौरान ही भारत और जापान के संबंधों ने नई ऊंचाइयां छुईं और देशों ने न केवल क्वैड बल्कि इंडो पसिफ़िक, जो बाद में भारत जापान के संबंधों का मुख्य स्तम्भ बना, उस की अवधारणा करने वाले भी शिंज़ो ही थे।
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