हाल ही में भारत के राजनीतिक पटल पर एक महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ जब देश के 15वें राष्ट्रपति के रूप में द्रौपदी मुर्मु ने शपथ ली। द्रौपदी मुर्मु ने इसके साथ ही कई कीर्तिमान स्थापित किये जैसे देश की सबसे युवा राष्ट्रपति होना, स्वतंत्रता के पश्चात जन्म लेने वाली देश की प्रथम राष्ट्रपति होने का गौरव प्राप्त करना इत्यादि। परंतु यह सब इतना महत्वपूर्ण नहीं था जितना राष्ट्रपति के रूप में अपने प्रथम अभिभाषण में द्रौपदी मुर्मु का यह अंश रहा। उन्होंने कहा, “मेरा चुनाव साबित करता है कि गरीब भारतीय न केवल सपने देख सकते हैं बल्कि आकांक्षाओं को भी पूरा कर सकते हैं। संथाल क्रांति, पाइका क्रांति से लेकर कोल क्रांति और भील क्रांति तक स्वतंत्रता संग्राम में आदिवासी योगदान को और मजबूत किया गया। हम सामाजिक उत्थान और देशभक्ति के लिए ‘धरती आबा’ भगवान बिरसा मुंडा जी के बलिदान से प्रेरित हैं।”
रोचक बात तो यह है कि द्रौपदी मुर्मु स्वयं संथाल समुदाय से आती हैं जो एक प्राचीन, जनजातीय समुदाय है और जिसकी ख्याति धीरे-धीरे अब पूरे देश में फैल रही है। परंतु यह संथाल समुदाय इतना प्रचलित क्यों है? उन्होंने ऐसा क्या किया जिसके प्रति आज भी देश को उनका कृतज्ञ होना चाहिए? उनकी कथा को वामपंथियों ने इतनी सफाई से छिपाया कि यदि उसका अंश मात्र भी आप पढ़ें तो आपको समझ में आएगा कि हमारे पास योद्धाओं और नायकों की कमी कभी थी नहीं, कमी थी तो केवल एकता की। टीएफआई प्रीमियम में आपका स्वागत है। यह कथा है उस संथाल क्रांति की जिसका प्रभुत्व बाद में स्वयं ब्रिटिश साम्राज्यवादियों तक को स्वीकारना पड़ा।
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इस कथा का प्रारंभ हुआ था भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के गवर्नर जनरल लॉर्ड कॉर्नवालिस के आगमन से। उन्होंने स्थाई बंदोबस्त के नाम से भूमि अधिग्रहण की व्यवस्था कराई ताकि कंपनी के लिए भारत में व्यापार करना सरल हो परंतु कम ही लोग जानते थे कि इसके पीछे असल कारण कुछ और था। ब्रिटिश साम्राज्यवादी भारत पर वर्षों से कुदृष्टि डाले हुए थे और अब लॉर्ड कॉर्नवालिस के माध्यम से वे अपने कुटिल नीतियों को अपने परिणाम तक पहुंचाते, जो अमेरिका में मिली पराजय की खुन्नस भारत पर निकालना चाहते थे। यह वही लॉर्ड कॉर्नवालिस थे जिन्हें अमेरिकी क्रांतिकारियों ने ऐसा धोया कि ब्रिटिश साम्राज्यवादियों को अमेरिका में आत्मसमर्पण स्वीकारने पर विवश होना पड़ा था।
परंतु यह संथाल थे कौन? अंग्रेजों ने इनका क्या बिगाड़ा और इनपर कैसे अत्याचार किये जो ये विद्रोह पर उतर आए? इसके लिए हमें उनके प्रारम्भिक स्त्रोतों पर प्रकाश डालना होगा। बंगाल जैसा आज दिखता है पूर्व में वैसा नहीं था। यह एक विशाल प्रांत था जिसमें वर्तमान बिहार, ओड़ीशा, झारखंड, यहां तक कि आधुनिक बांग्लादेश के भी कुछ भाग समाहित थे। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में ब्रिटिश ऑफिसर बुकानन ने राजमहल की पहाड़ियों की यात्रा की। उसके वर्णन के अनुसार ये पर्वत अभेद्य प्रतीत होते थे और यह आदिवासियों का एक ऐसा खतरनाक इलाका था जहां बहुत कम यात्री जाने की हिम्मत करते थे, इसलिए उन्हें ‘पहाड़िया’ नाम दिया गया।
परंतु उस जनजाती को ‘पहाड़िया’ क्यों कहा जाता था? दरअसल, वे राजमहल की पहाड़ियों के इर्द-गिर्द रहा करते थे। वे जंगल की उपज से अपनी गुजर-बसर करते थे और झूम खेती किया करते थे। वे जंगल के छोटे-से हिस्से में झाड़ियों को काटकर और घास-फूस को जलाकर जमीन साफ कर लेते थे और राख की पोटाश से उपजाऊ बनी जमीन पर ये पहाड़िया लोग अपने खाने के लिए तरह-तरह की दालें और ज्वार-बाजरा उगा लेते थे।
राजमहल की पहाड़ियों को अपना मूलाधार बनाकर पहाड़िया लोग बराबर उन मैदानों पर आक्रमण करते रहते थे जहां किसान एक स्थान पर बस कर अपनी खेती-बाड़ी किया करते थे। पहाड़ियों द्वारा यह आक्रमण ज्यादातर अपने आपको विशेष रूप से अभाव या अकाल के वर्षों में जीवित रखने के लिए किए जाते थे। साथ ही ये हमले मैदानों में बसे हुए समुदायों पर अपनी ताकत दिखाने का भी एक तरीका था। इसके अलावा ऐसे आक्रमण बाहरी लोगों के साथ अपने राजनीतिक संबंध बनाने के लिए भी किए जाते थे। मैदानों में रहने वाले जमींदारों को अकसर इन पहाड़ी मुखियाओं को नियमित रूप से एक तरह का टैक्स देकर उनसे शांति खरीदनी पड़ती थी। यूं कह लीजिए कि हिमाचल के कांगड़ा राजपूतों की भांति इन संथाल जनजातियों ने राजमहल के पर्वतों को अपना अभेद्य दुर्ग बना लिया था।
इसी प्रकार व्यापारी लोग भी इन पहाड़ियों द्वारा नियंत्रित रास्तों का इस्तेमाल करने की अनुमति प्राप्त करने हेतु उन्हें कुछ पथ कर दिया करते थे। जब ऐसा पथ कर पहाड़िया मुखियाओं को मिल जाता था तो वे व्यापारियों की रक्षा करते थे और यह भी आश्वासन देते थे कि कोई भी उनके व्यापार को नहीं लूटेगा। इस प्रकार कुछ ले-देकर की गई शांति संधि अधिक लंबे समय तक चली। जैसे भील राजपूताना के लिए महत्वपूर्ण थे, वैसे ही संथाल बंगाल भूमि के लिए महत्वपूर्ण थे और यदि यूरोपीय साम्राज्यवाद की विषबेल भारत की मातृभूमि पर न पड़ती तो ये भारत के पुनरुत्थान में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। परंतु उनके भाग्य में कुछ और ही लिखा था।
ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के लिए स्थायी कृषि का विस्तार आवश्यक था क्योंकि उससे राजस्व के स्रोतों में वृद्धि हो सकती थी, निर्यात के लिए फ़सल पैदा हो सकते थे और एक स्थायी, सुव्यवस्थित समाज की स्थापना हो सकती थी। वे जंगलों को उजाड़ मानते थे और वनवासियों को असभ्य, बर्बर, उपद्रवी और क्रूर समझते थे जिन पर शासन करना उनके लिए कठिन था।
इसलिए उन्होंने यह जाना कि जंगलों का सफ़ाया करके, वहां स्थायी कृषि स्थापित करनी होगी और जंगली लोगों को पालतू व सभ्य बनाना होगा, उनसे शिकार का काम छुड़वाना होगा और खेती का धंधा अपनाने के लिए उन्हें राजी करना होगा। ज्यों-ज्यों स्थायी कृषि का विस्तार होता गया, जंगलों तथा चरागाहों का क्षेत्र संकुचित होता गया। उससे पहाड़ी लोगों तथा स्थायी खेतीहरों के बीच झगड़ा तेज हो गया। पहाड़ी लोग पहले से अधिक नियमित रूप से बसे हुए गांवों पर हमले बोलने लगे और ग्रामवासियों से अनाज और पशु छीन-झपट कर ले जाने लगे। औपनिवेशिक अधिकारियों ने उत्तेजित होकर इन पहाड़ियों पर काबू करने की भरसक कोशिशें की परंतु उनके लिए ऐसा करना सरल नहीं था।
अब ब्रिटिश साम्राज्यवादियों का दमन चक्र प्रारंभ हुआ। आज जो अंग्रेज ‘RRR’ में अपने चित्रण से इतना बिदक रहे हैं, उन्हें अगर इन जनजातियों के शोषण का अंश मात्र भी दिखा दें तो ये कहीं मुख दिखाने योग्य न रहेंगे। 1780 के दशक में भागलपुर के कलेक्टर ऑगस्टस क्लीवलैंड ने “शांति स्थापना की नीति” प्रस्तावित की जिसके अनुसार पहाड़िया मुखियाओं को एक वार्षिक भत्ता दिया जाना था और बदले में उन्हें अपने आदमियों का चाल-चलन ठीक रखने की जिम्मेदारी लेनी थी। उनसे यह भी आशा की गई थी कि वे अपनी बस्तियों में व्यवस्था बनाए रखेंगे और अपने लोगों को अनुशासन में रखेंगे। परंतु बहुत से पहाड़िया मुखियाओं ने भत्ता लेने से मना कर दिया क्योंकि वे बंगाल में ईस्ट इंडिया कंपनी के दोहरे मापदंडों से पूरी तरह अनभिज्ञ नहीं थे। जिन्होंने इसे स्वीकार किया उनमें से अधिकांश अपने समुदाय में अपनी सत्ता खो बैठे। औपनिवेशिक सरकार के वेतनभोगी बन जाने से उन्हें अधीनस्थ कर्मचारी या वैतनिक मुखिया माना जाने लगा।
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जब शांति स्थापना के लिए अभियान चल रहे थे तभी पहाड़िया लोग अपने आपको शत्रुतापूर्ण सैन्यबलों से बचाने के लिए और बाहरी लोगों से लड़ाई चालू रखने के लिए पहाड़ों के भीतरी भागों में चले गए। इसलिए जब 1810-11 की सर्दियों में ब्रिटिश ऑफिसर बुकानन ने इस क्षेत्र की यात्रा की थी तो यह स्वाभाविक ही था कि पहाड़िया लोग बुकानन को संदेह और अविश्वास की दृष्टि से देखते। शांति स्थापना के अभियानों के अनुभव और क्रूरतापूर्ण दमन की यादों के कारण उनके मन में यह धारणा बन गई थी कि उनके इलाके पर ब्रिटिश लोगो की घुसपैठ का क्या असर होने वाला है। उन्हें ऐसे प्रतीत होता था कि प्रत्येक गोरा आदमी एक ऐसी शक्ति का प्रतिनिधित्व कर रहा है जो उनसे उनके जंगल और जमीन छीन कर उनकी जीवन शैली और जीवित रहने के साधनों को नष्ट करने पर उतारू है। वस्तुत: उन्हीं दिनों उन्हें एक नए खतरों की सूचनाएं मिलने लगी थीं और वह था संथाल लोगों का आगमन।
संथाल लोग वहां के जंगलों का सफ़ाया करते हुए इमारती लकड़ी को काटते हुए, जमीन जोतते हुए और चावल तथा कपास उगाते हुए उस इलाको में बड़ी संख्या में घुसे चले आ रहे थे। चूंकि संथाल निवासियों ने निचली पहाड़ियों पर अपना नियंत्रण जमा लिया था, इसलिए ‘पहाड़ियों’ को राजमहल की पहाड़ियों में और भीतर की ओर पीछे हटना पड़ा। पहाड़िया लोग अपनी झूम खेती के लिए कुदाल का प्रयोग करते थे इसलिए यदि कुदाल को पहाड़िया जीवन का प्रतीक माना जाए तो हल को नए बाशिंदों, संथालों की शक्ति का प्रतिनिधि मानना होगा। हल और कुदाल के बीच की यह लड़ाई बहुत लंबी चली।
अब ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने इस आंतरिक झड़प का लाभ उठाने का निर्णय किया। 19वीं शताब्दी के प्रारंभ में संथालों को कृषि योग्य भूमि देकर राजमहल की तलहटी में बसने के लिए तैयार कर लिया गया। 1832 तक जमीन के एक काफ़ी बड़े इलाके को दामिन-इ-कोह के रूप में सीमांकित कर दिया गया। इसे संथालों की भूमि घोषित कर दिया गया। उन्हें इस इलाके के भीतर रहना था, हल चलाकर खेती करनी थी और स्थायी किसान बनना था।
संथालों को दी जाने वाली भूमि के अनुदान-पत्र में यह शर्त थी कि उन्हें दी गई भूमि के कम-से-कम दसवें भाग को साफ़ करके पहले दस वर्षों के भीतर जोतना था। उस पूरे क्षेत्र का सर्वेक्षण करके उसका नक्शा तैयार किया गया। उसके चारों ओर खंबे गाड़कर उसकी परिसीमा निर्धारित कर दी गई और उसे मैदानी इलाके के स्थायी कृषकों की दुनिया से और पहाड़िया लोगों की पहाड़ियों से अलग कर दिया गया।
दामिन-इ-कोह के सीमांकन के बाद संथालों की बस्तियां बड़ी तेजी से बढ़ीं। संथालों के गांवों की संख्या जो 1838 में 40 थी वह तेजी से बढ़कर 1851 तक 1,473 तक पहुंच गई। इसी अवध में संथालों की जनसंख्या जो केवल 3,000 थी वह बढ़कर 82,000 से भी अधिक हो गई। जैसे-जैसे खेती का विस्तार होता गया, वैसे-वैसे कंपनी की तिजोरियों में राजस्व राशि में वृद्धि होती गई। उन्नीसवीं शताब्दी के संथाल गीतों और मिथकों में उनकी यात्रा के लंबे इतिहास का बार-बार उल्लेख किया गया है, जिनमें कहा गया है कि संथाल लोग अपने लिए बसने योग्य स्थान की खोज में बराबर बिना थके चलते ही रहते थे। अब यहां दामिन-इ-कोह में आकर मानो उनकी इस यात्रा को पूर्ण विराम लग गया था।
जब संथाल राजमहल की पहाड़ियों पर बसें तो पहले पहाड़िया लोगों ने इसका विरोध किया पर अंततोगत्वा वे इन पहाड़ियों में भीतर की ओर चले जाने पर मजबूर कर दिए गए। उन्हें निचली पहाड़ियों तथा घाटियों में नीचे की ओर आने से रोक दिया गया और ऊपरी पहाड़ियों के चट्टानी और अधिक बंजर इलाकों तथा भीतरी शुष्क भागों तक सीमित कर दिया गया। इससे उनके रहन-सहन तथा जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ा और आगे चलकर वे गरीब हो गए। झूम खेती नयी से नयी जमीनें खोजने और भूमि की प्राकृतिक उर्वरता का उपयोग करने की क्षमता पर निर्भर रहती है। अब सर्वाधिक उर्वर जमीनें उनके लिए दुर्लभ हो गईं क्योंकि वे अब ‘दामिन’ का हिस्सा बन चुकी थीं। इसलिए पहाड़िया लोग खेती के अपने तरीके झूम खेती को आगे सफलतापूर्वक नहीं चला सके।
जब इस क्षेत्र के जंगल खेती के लिए साफ़ कर दिए गए तो पहाड़िया शिकारियों को भी समस्याओं का सामना करना पड़ा। इसके विपरीत संथाल लोगों ने अपनी पहले वाली खानाबदोश ज़िंदगी को छोड़ दिया था। अब वे एक जगह बस गए थे और बाजार के लिए कई तरह के वाणिज्यिक फ़सलों की खेती करने लगे थे तथा व्यापारियों एवं साहूकारों के साथ लेन-देन करने लगे थे।
परंतु शनै-शनै संथालों को भी ज्ञात होने लगा कि उन्होंने जिस भूमि पर खेती करनी शुरू की थी वह उनके हाथों से निकलती जा रही है। संथालों ने जिस जमीन को साफ़ करके खेती शुरू की थी उस पर सरकार भारी कर लगा रही थी, साहूकार बहुत ऊंची दर पर ब्याज लगा रहे थे और कर्ज अदा न किए जाने की सूरत में जमीन पर ही कब्जा कर रहे थे। वहीं, जमींदार लोग दामिन इलाके पर अपने नियंत्रण का दावा कर रहे थे। 1850 के दशक तक संथाल लोग यह महसूस करने लगे थे कि अपने लिए एक आदर्श संसार का निर्माण करने के लिए जहां उनका अपना शासन हो, जमींदारों, साहूकारों और औपनिवेशिक राज के विरुद्ध विद्रोह करने का समय अब आ गया है।
यहीं से संथाल विद्रोह का प्रारंभ हुआ। वर्ष 1855 में बंगाल के मुर्शिदाबाद तथा बिहार के भागलपुर जिलों में स्थानीय जमींदार, महाजन और अंग्रेज कर्मचारियों के अन्याय अत्याचार के शिकार पहाड़िया जनता ने एकबद्ध होकर उनके विरुद्ध विद्रोह का बिगुल फूंक दिया था। इसे पहाड़िया विद्रोह, पहाड़िया जगड़ा या संथाल हूल कहते हैं। पहाड़िया भाषा में ‘जगड़ा’ शब्द का शाब्दिक अर्थ है-‘विद्रोह’। यह अंग्रेजों के विरुद्ध प्रथम सशस्त्र जनसंग्राम था। विद्रोह का नेतृत्व चार मुर्मु भाइयों (सिद्धू, कान्हू, चन्द और भैरव) ने किया था। विद्रोह ३० जून १८५५ को आरम्भ हुआ था। ईस्ट इंडिया कम्पनी ने सैन्य कानून लगा दिया जो ३ जनवरी १८५६ तक चला। अंग्रेज कैप्टन एलेक्ज़ेंडर ने विद्रोह का दमन कर दिया परंतु इस विद्रोह की सबसे प्रमुख बात यह थी कि किसी भी जनजातीय समुदाय ने पीठ नहीं दिखाई यानी कोई भी संथाल कायरों की भांति रणभूमि से नहीं भागा।
बंगाल डिस्ट्रिक्ट गैजेट के लिए अपने विचार व्यक्त करते हुए एक ब्रिटिश आर्मी अफसर मेजर जार्विस कहते हैं, “यह युद्ध नहीं हो सकता, उन्हें झुकना आता ही नहीं था। जब तक उनका नगाड़ा बजता था, उनकी पूरी पार्टी एक साथ आती और गोली खाने को तैयार हो जाती। उनके तीर हमारे सैनिकों की जान ले लेते और हमें उन्हें तब तक मारना पड़ता, जब तक वे खड़े रहते। जब उनके नगाड़े रुकते तो थोड़ा पीछे जाते फिर नगाड़े बजते और वे पुनः अपनी प्रक्रिया दोहराते। किसी को अपने आप पर तनिक भी लज्जा नहीं आती।”
उनके शौर्य और पराक्रम से स्वयं चार्ल्स डिकेंस जैसे लेखक भी अभिभूत हुए बिना नहीं रह सके। साम्राज्यवाद के समर्थकों में से एक होने के बाद भी उन्हें अपने पुस्तक, ‘Household Words’ में लिखा है कि “उन लोगों में गर्व की भावना कूट कूटकर भरी हुई थी। कहते हैं कि उनके पास आखेट के लिए विषैले तीरों की कोई कमी नहीं थी परंतु युद्धकाल में उनका उपयोग वे कदापि नहीं करते। उन झड़पों में भी कभी भी हमने विषैले तीरों का कोई उल्लेख नहीं सुना और वे रूसी लोगों से कहीं अधिक सम्मान के योग्य हैं जो ऐसे कार्यों को हास्यास्पद मानेंगे।”
इसी विद्रोह पर एक आधारित एक काल्पनिक कथा आई थी ‘मृगाया’, जिसमें ब्रिटिश साम्राज्यवादियों द्वारा जनजातियों का ऐसा ही शोषण दिखाया गया था। रोचक बात तो यह थी कि यह गौरांग चक्रवर्ती की प्रथम फिल्म भी थी, जिसके लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। यही से उदय हुआ भारत के सबसे प्रभावशाली अभिनेताओं में से एक मिथुन चक्रवर्ती का। उम्मीद है कि अब आपको देश के निर्माण में संथाल क्रांति का योगदान स्पष्ट हो गया होगा?
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